अध्यात्म एक विज्ञान हैं।

अध्यात्म एक विज्ञान हैं। वैज्ञानिक बुद्धि का व्यक्ति इसको आसानी से डिकोड कर सकता हैं।

 

( महाकुंभ में आए एक बाबा का वीडियो सोशल मीडिया पर लगातार वायरल हो रहा है। इन्हें ‘IITian बाबा’ कहा जा रहा है। वायरल बाबा का नामं अभय सिंह है और दावे के मुताबिक इन्होंने IIT बॉम्बे से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। )

 

_*एक आईआईटियन का संन्यासी होना किसी की आंख में गड़ सकता है। विशेष तौर पर बुद्धि विवादियों को।*_

 

इनको गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है।

 

और संन्यास लेने के लिए आपको बाकायदा गेरुआ भी धारण करने की आवश्यकता नहीं है। राजा जनक इसके उदाहरण हैं।

 

अध्यात्म और संन्यास का अर्थ क्या है?

अनेकों अर्थ हैं इसके।

 

मेरी समझ के अनुसार। संसार संन्यास की पाठशाला भी है और परीक्षा केंद्र भी। यहीं संसार और संन्यास दोनों का ककहरा पढ़ा और पढ़ाया जा सकता है।

 

संसार हमारे मनोनुसार कभी न तो चला है और न चलेगा। और यदि संसार हमारे अनुसार नहीं चलता तो हमें मानसिक पीड़ा होती है, दुख होता है, अवसाद होता है।

 

संसार शुरू होता है वहीं, जहां हम खड़े हैं। पहली बात तो हम ही अपने अनुसार नहीं चलते। प्रत्येक दिन और प्रत्येक वर्ष कुछ न कुछ नया प्रण लेते हैं कि आज से ऐसा नहीं करेंगे, ऐसा करेंगे। परंतु फिर वही कृत्य दोहराने लगते हैं, जो हम करते आए हैं। तो पहली बात तो हम अपने आपसे ही निराश, परेशान, और दुखी हो जाते हैं। और जो हमारे पास है वही हम दूसरों को भी बांटते हैं।

फिर हमारी परिधि आती है। अब न तो पत्नी हमारे मनोनुकूल चलती है, न पति चलता है, न बच्चे चलते हैं, न सास चलती है, न बहु चलती है। सब एक दूसरे के दुख के कारण हैं।

 

तीसरी बात संसार से जो हमने अपेक्षाएं पाल रखी हैं वह पूरी होती हैं। और जिनकी पूरी होती हैं, उनसे पूछिए कि अपेक्षाओं को पूरी करने के लिए कितने पापड़ बेले, कितनी बेचैनी मोल लिया, कितना गला काट प्रतियोगिता उन्होंने ने किया जीवन में? अब वह बेचैनी, वह झंझट इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ेगी, वह आदत में सम्मिलित हो चुकी है। तो वे अपना दुख किसको सुनाएं जिनकी अपेक्षाएं पूरी होती जाती हैं? उनको कौन कंधा देगा अपना दुखड़ा रोने के लिए? और कोई देने को तत्पर हो तो भी क्या उनका अहंकार उन्हें उस कंधे पर रखकर दुखड़ा रोने भी देगा?

 

कहने का अर्थ है कि संसार रहते हुए दुख पीड़ा बेचैनी का अंत कभी संभव नहीं है। बुद्ध महावीर हमारी आपकी तरह कोई डॉक्टर इंजीनियर मास्टर वकील सरकारी कर्मचारी तो थे नहीं, राजा थे, राजकुमार थे। फिर भी उन्होंने पाया कि संसार दुख की खान है।

 

अध्यात्म या संन्यास एक कला है एक शिल्प है, एक विधा है, जो संसार की पीड़ा दुख अवसाद से आपको मुक्त कर सकती है।

कृष्ण कहते हैं:-

*योग: कर्मषु कौशलम।*

 

दुख और परेशानी तो रहेगी, परंतु दुख और परेशानी आपको परेशान नहीं करेगी। यही है संन्यास का अर्थ।

 

संन्यासी की परेशानी यह है कि उसका प्रोटोकॉल संसार ने तय कर रखा है। उसको कैसे उठना है, कैसे बैठना है, क्या खाना है, क्या पीना है, क्या बोलना है क्या नहीं बोलना है, इसकी सीमाएं तय कर रखा है संसार ने। इसलिए उसकी अपनी परेशानियां और समस्याएं हैं।

“ज्ञान का पंथ, कृपाण की धारा”।

-तुलसीदास।

 

निर्धारित की गई सीमा से जरा सा चुके नहीं कि संसारी उसको इतना गाली देंगे कि वह कहीं का नहीं रहेगा।

 

जबकि गृहस्थ इन सीमाओं से मुक्त है। वह स्वच्छंद है संन्यासियों की तुलना में।

 

रही बात महाकुंभ पर ज्ञान बघारने की कि अध्यात्म अकेला होने का नाम है। एकांत का नाम है अध्यात्म। भीड़ का नाम नहीं है अध्यात्म। तो भैया महाकुंभ शो केस है अध्यात्म के संसार का। सारे ब्रांड उपलब्ध हैं उसके। आपके पास अवसर है कि विंडो शॉपिंग कीजिए। आपको पसंद आए तो लो, नहीं तो आगे बढ़ो। अपनी स्वयं की दुकान सजाओ। कोई बाध्य नहीं कर रहा कि उसी की दुकान पर डेरा डालो। उसी का माल खरीदो।

संन्यास और अध्यात्म के खरीददार नहीं हो तो भी कोई बात नहीं। इस अपार जन समूह में जाओ, आनंद उठाओ, मौज लो, कौतूहल से देखो इस विचित्र संसार को। देखो कि किसे कहते हैं सांस्कृतिक विविधता, कल्चरल डायवर्सिटी, जिसका पाठ पूरी दुनिया को पढ़ाया जा रहा है।

तीसरा विकल्प है कि बारात में आए फूफा की तरह नाराज बैठे रहो, शायद कोई पूछत्तर मिल जाय। उसकी सुहानुभूति पा सको।

 

 

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