हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और सभी इस बात का सम्मान करते हैं, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से व्यवस्था में टकराव देखा जा रहा है- यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ होते हैं- सही मायनों में चार होते हैं. वे हैं- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मिडिया पालिका.
हमारे संविधान ने इन सभी स्तंभों की स्वतंत्रता सुनिश्चित की है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से विधायिका, कार्यपालिका और मिडिया पालिका में आमतौर पर न केवल टकराव देखा जा रहा है बल्कि इनकी स्वतंत्रता पर भी प्रश्नचिन्ह लग रहा है.
हमारा आज भी भरोसा एक प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका पर बना हुआ है जो स्वतंत्रता से बाकी तीन स्तंभों को न केवल फटकार लगा रहा है बल्कि समाज की आंखें खोलने का प्रयास भी कर रहा है.
लेकिन न्यायपालिका की स्वतंत्रता से पिछले दिनों विधायिका द्वारा छेड़खानी का प्रयास ने दरार पैदा कर दी है और माननीय उच्च न्यायालय ने न्यायधीशों की चयन प्रक्रिया में सरकार द्वारा की जा रही मनमानी पर सरकार को फटकार लगाना लोकतंत्र में दरार पैदा करता है और इसकी स्वतंत्रता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है जिसे भरना बहुत आवश्यक है.
देश के प्रमुख और अपीलीय न्यायाधिकरणों में ढाई सौ पद खाली हैं। उनमें भर्ती के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने नामों की सूची केंद्र के पास भेजी थी।
केंद्र सरकार ने पहले तो उस सूची को लंबे समय तक लटकाए रखा, फिर अदालत ने याद दिलाया तो उस सूची में से कई नामों को छोड़ दिया गया।
कुछ ही नाम मुख्य सूची से लिए गए, कई नाम प्रतीक्षा सूची से ले लिए गए।
फिर यह भी शर्त लगा दी गई कि नियुक्त किए गए न्यायाधीशों का कार्यकाल केवल एक साल का होगा।
इस पर स्वाभाविक ही प्रधान न्यायाधीश ने केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि जिन नामों को स्वीकृति दी गई है, उन्हें देख कर साफ लगता है कि उनका चुनाव ‘पसंद के आधार’ पर किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र से पूछा है कि उसने अनुशंशित सूची से नामों का चयन क्यों नहीं किया, प्रतीक्षा सूची से नाम क्यों लिए गए, इसका कारण स्पष्ट करें।
यह केंद्र सरकार के लिए अदालत की बड़ी फटकार है।
पिछले कई सालों से शीर्ष अदालत पर आरोप लगते रहे हैं कि वह केंद्र सरकार के मन माफिक काम करती रही है। अनेक संवेदनशील मामलों में अदालत के फैसले केंद्र सरकार के पक्ष में गए, उससे और उसकी साख पर सवाल उठने शुरू हो गए थे।
वर्तमान प्रधान न्यायाधीश उस साख को लौटाना चाहते हैं और कई मौकों पर स्पष्ट कर चुके हैं कि सरकार किसी भी अदालत को अपने ढंग से नहीं चला सकती।
विधायिका और सरकार की अब जिम्मेदारी और जबाबदारी है कि संविधान के तहत लोकतंत्र के इन चारों स्तंभों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करें ताकि हमारा लोकतंत्र विश्व में अनुकरणीय और अनुसरणीय बनें.
लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर