पत्रकार या राजनीतिक दल के कार्यकर्ता

 

पत्रकार या राजनीतिक दल के कार्यकर्ता

अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी के कारण आज दिन भर से पत्रकारिता और पत्रकारों की निष्पक्षता चर्चा का मुद्दा बनी हुई है। आज की परिस्थितियों पर तो बहुत लिखा जा रहा है। मुझे लगभग २० साल पुराना एक किस्सा रह रह कर याद आ रहा है।
तब मैं राज्य की नईदुनिया में काम कर रहा था। आप मान सकते हैं कि मैं एक शिशु पत्रकार था। कम्युनिस्ट पार्टी के एक बङे नेता भोपाल आए। अप्सरा रेस्टोरेंट में उनकी पत्रकार वार्ता थी। संस्थान से आदेश हुआ कि इस पत्रकार वार्ता के साथ वहाँ हो रही अन्य पत्रकार वार्ताएं भी कवर कर लेना।
नए पत्रकारों को बता दूँ उस जमाने में पत्रकार वार्ता को महत्वपूर्ण कवरेज माना जाता था और नियम यह था कि जिस पत्रकार वार्ता का आमंत्रण है वहाँ जरुर जाना है। और हर पत्रकार वार्ता छपती भी थी। यदि छूट जाए तो डाँट पङती थी।
खैर, वह पत्रकार वार्ता शुरू हुई । बहुत धीमी आवाज में वह बुजुर्ग नेता अपनी बात कह रहे थे। शिशु पत्रकार होने के कारण मुझे पीछे की कुर्सी पर स्थान मिला था, उनकी बात सुनना मुश्किल हो रहा था। मैं एक – एक बात नोट कर रहा था।
सवाल – जवाब शुरू हुए । कई वरिष्ठों ने सवाल पूछे। मैंने एक सवाल पूछा , तो बुजुर्ग नेता की बजाय पत्रकारों के बीच बैठे एक बुजुर्ग सज्जन ने जवाब दिया। मैंने पूछा क्या मैं इसे उन नेता का जवाब मान सकता हूँ (आखिर मुझे खबर तो उन्हीं नेता की तरफ से लिखना थी) मेरी बात उन बुजुर्ग सज्जन को नागवार गुजरी। फिर मैंने दूसरा सवाल पूछा। इस पर फिर जवाब उन्हीं बुजुर्ग सज्जन ने दिया । अब मैं नाराज हो गया। मैंने कहा – “आप टेबल के उसी तरफ बैठ जाइए , फिर मैं आपकी तरफ से खबर लिख सकता हूँ ।” तल्ख लहजे में कही गई मेरी इस बात से वहाँ माहौल तनावपूर्ण हो गया।
जो वरिष्ठ पत्रकार मुझे जानते थे उन्होंने मुझे शांत कराया। मैंने अपनी परेशानी बताई कि राष्ट्रीय स्तर के नेता की पत्रकार वार्ता है। मैं किसी ओर की बात को उनकी बात मान कर कैसे खबर बना सकता हूँ । बल्कि मुझे यह भी चिंता है कि जब सिटी चीफ और संपादक जी पूछेंगे तो उन्हें क्या बताउंगा कि यह जवाब किसने दिए।
सभी ने कहा तुम उनकी बात को कम्युनिस्ट नेता की बात मान लो। कोई दिक्कत नहीं है।
इसी बातचीत में मुझे उन बुजुर्ग सज्जन का नाम पता चला – वे भोपाल के एक वरिष्ठ पत्रकार हैं । मैंने नाम तो सुना था, लेकिन उनसे प्रत्यक्ष भेंट नहीं हुई थी। बात समाप्त हो गई मैं दफ्तर आ गया।
खबर बना रहा था कि जानकारी मिली कि भोपाल आए वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता बीमार हो गए हैं । दफ्तर के वरिष्ठों ने मुझे ही कहा कि पता करो। और पुख्ता जानकारी के लिए उन्हीं बुजुर्ग पत्रकार का नंबर दिया कि इनसे पूछ लो।
मैंने उन बुजुर्ग पत्रकार से बात की। उन्होंने वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता की तबीयत खराब होने की पुष्टि की। उन्होंने मुझे बताया कि वरिष्ठ नेता को प्लेन से दिल्ली ले जाया जा रहा है।
स्वाभाविक रूप से यही मैंने खबर में लिखा और अखबार में यही छपा भी।
सुबह पता चला कि वे वरिष्ठ नेता तो भोपाल में ही थे। भेल के कस्तुरबा अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है। दफ्तर में मुझसे इस पर पूछताछ हो गई। मैंने फिर उन्हीं बुजुर्ग पत्रकार को सच बात जानने के लिए फोन किया। उनका जवाब लापरवाही भरा था।
अब आप बताइए २० साल (और उसके भी) पहले (और आज भी) यदि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य को आप वरिष्ठ पत्रकार मान सकते हो। और आपने उनकी निष्पक्षता पर संदेह नहीं किया तो २१ वीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा (भाजपा को अभी भी छोड़ दीजिए ) कोई व्यक्ति निष्पक्ष पत्रकार क्यों नहीं हो सकता ?
मैं बहुत स्पष्ट कर दूँ कि मुझे न तो रविश कुमार का तरीका पसंद है और न अर्णब का। लेकिन प्रधानमंत्री के खिलाफ रोजाना बोलने / लिखने वाले रविश देश के वरिष्ठ सम्मानित पत्रकार हैं । इसलिए पत्रकार तो अर्णब भी है।

-मनोज_जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

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