पटाखों पर प्रतिबंध

 

 

प्रमोद भार्गव:
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय समेत दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सरकारों से यह सवाल पूछा था कि क्यों न 7 नवंबर से 30 नवंबर तक पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। इस सवाल के साथ ही दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान सरकारों ने पटाखों के चलाने पर रोक लगा दी। साथ ही मप्र, छत्तीसगढ़ और उप्र सरकारों ने चीनी पटाखों समेत अन्य विदेशी पटाखे बेचने पर रोक लगा दी। होली पर्व के बाद यह दूसरा अवसर है कि चीनी वस्तुओं का बड़ी मात्रा में बहिष्कार हो रहा है। चीनी पटाखों पर रोक इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि इनमें क्लोराइड और परक्लोराइड जैसे रसायन होते हैं जो अत्यंत खतरनाक और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। इनमें जरा-सी रगड़ से विस्फोट हो जाता है। इसलिए भारत में इन रसायनों से बने पटाखों के आयात पर प्रतिबंध तो है लेकिन अनजाने में ये पटाखे आयात कर लिए जाते हैं।
यह सही है कि देश की राजधानी दिल्ली दुनिया के अधिक प्रदूषित शहरों में से एक है। यहां की हवा वैसे तो पूरे साल प्रदूषित रहती है लेकिन सर्दियों में अधिकतम प्रदूषित हो जाती है। लिहाजा प्रदूषण के उत्सर्जक कारणों की पड़ताल कर उनपर नियंत्रण जरूरी है, जिससे दिल्ली रहने लायक बनी रहे। इसीलिए दिवाली के समय पटाखों की बिक्री पर रोक लगाने से सकारात्मक बदलाव आता है। हम जानते हैं कि बच्चे आतिशबाजी के प्रति अधिक उत्साही होते हैं और उसे चलाकर आनंदित भी होते हैं। जबकि यही बच्चे वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से अपना स्वास्थ्य भी खराब कर लेते हैं। खतरनाक पटाखों की चपेट में आकर अनेक बच्चे आंखों की रोशनी और हाथों की अंगुलियां तक खो देते हैं। बावजूद समाज के एक बड़े हिस्से को पटाखा मुक्त दिवाली रास नहीं आती है। इसीलिए इस आदेश के बाद यह बहस चल पड़ी है कि क्या दिल्ली-एनसीआर में खतरनाक स्तर 2.5 पीपीएम पर प्रदूषण पहुंचने का आधार क्या केवल पटाखे हैं।
सच तो यह है कि इस मौसम में हवा को प्रदूषित करने वाले कारणों में बारूद से निकलने वाला धुआं एक कारण जरूर है लेकिन दूसरे कारणों में दिल्ली की सड़कों पर वे कारें भी हैं, जिनकी बिक्री कोरोना काल में भी उछाल पर है। नए भवनों की बढ़ती संख्या भी दिल्ली में प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाया जाना भी दिल्ली की हवा को खराब करता है। इस कारण दिल्ली के वायुमंडल में पीएम 2.5 का स्तर बढ़कर 1200 से ऊपर चला जाता है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर वायु का स्तर 10 पीएम से कम होना चाहिए। पीएम वायु में घुले-मिले ऐसे सूक्ष्म कण हैं, जो सांस के जरिए फेफड़ों में पहुंचकर अनेक बिमारियों का कारण बनते हैं।
वायु के ताप और आपेक्षिक आद्रता का संतुलन गड़बड़ा जाने से हवा प्रदूषण के दायरे में आने लगती है। यदि वायु में 18 डिग्री सेल्सियस ताप और 50 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता हो तो वायु का अनुभव सुखद लगता है। लेकिन इन दोनों में से किसी एक में वृद्धि, वायु को खतरनाक रूप में बदलने का काम करने लग जाती है। ‘राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मूल्यांकन कार्यक्रम’ ((एनएसीएमपी) के मातहत ‘केंद्रीय प्रदूषण मंडल’ ((सीपीबी) वायु में विद्यमान ताप और आद्रता के घटकों को नापकर यह जानकारी देता है कि देश के किस शहर में वायु की शुद्धता अथवा प्रदूषण की क्या स्थिति है। नापने की इस विधि को ‘पार्टिकुलेट मैटर’ मसलन ‘कणीय पदार्थ’ कहते हैं। प्रदूषित वायु में विलीन हो जाने वाले ये पदार्थ हैं, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड और सल्फर डाईऑक्साइड। सीपीबी द्वारा तय मापदंडों के मुताबिक उस वायु को अधिकतम शुद्ध माना जाता है, जिसमें प्रदूषकों का स्तर मानक मान के स्तर से 50 प्रतिशत से कम हो। इस लिहाज से दिल्ली समेत भारत के जो अन्य शहर प्रदूषण की चपेट में हैं, उनके वायुमंडल में सल्फर डाईऑक्साइड का प्रदूषण कम हुआ है, जबकि नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का स्तर कुछ बड़ा है।
सीपीबी ने उन शहरों को अधिक प्रदूषित माना है, जिनमें वायु प्रदूषण का स्तर निर्धारित मानक से डेढ़ गुना अधिक है। यदि प्रदूषण का स्तर मानक के तय मानदंड से डेढ़ गुना के बीच हो तो उसे उच्च प्रदूषण कहा जाता है। यदि प्रदूषण मानक स्तर के 50 प्रतिशत से कम हो तो उसे निम्न स्तर का प्रदूषण कहा जाता है। वायुमंडल को प्रदूषित करने वाले कणीय पदार्थ, कई पदार्थों के मिश्रण होते हैं। इनमें धातु, खनिज, धुएं, राख और धूल के कण शामिल होते हैं। इन कणों का आकार भिन्न-भिन्न होता है। इसीलिए इन्हें वगीकृत करके अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी के कणीय पदार्थों को पीएम-10 कहते हैं। इन कणों का आकार 10 माइक्रॉन से कम होता है। दूसरी श्रेणी में 2.5 श्रेणी के कणीय पदार्थ आते हैं। इनका आकार 2.5 माइक्रॉन से कम होता है। ये कण शुष्क व द्रव्य दोनों रूपों में होते हैं। वायुमंडल में तैर रहे दोनों ही आकारों के कण मुंह और नाक के जरिए श्वांस नली में आसानी से प्रविष्ट हो जाते हैं। ये फेफड़ों तथा हृदय को प्रभावित करके कई तरह के रोगों के जनक बन जाते हैं। आजकल नाइट्रोजन डाईऑक्साइड देश के नगरों में वायु प्रदूषण का बड़ा कारक बन रही है।
औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति, आधुनिक विकास के ऐसे नमूने हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे हैं। यही वजह है कि आदमी भी दिल्ली की प्रदूषित वायु की गिरफ्त में है। क्योंकि यहां वायुमंडल में वायु प्रदूषण की मात्रा 60 प्रतिशत से अधिक हो गई है। दिल्ली-एनसीआर में एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा हैं तो दूसरी तरफ औद्योगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋृतु दस्तक देती है तो वायुमण्डल में आर्द्रता छा जाती है। यह नमी धूल और धुएं के बारीक कणों को वायुमण्डल में विलय होने से रोक देती है। नतीजतन दिल्ली के ऊपर एकाएक कोहरा आच्छादित हो जाता है। वातावरण का यह निर्माण क्यों होता है, मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पष्ट तार्किक उत्तर नहीं है। वे इसकी तात्कालिक वजह पंजाब एवं हरियाणा में खेतों में जलाए जाने वाले फसल के डंठलों और दिवाली के वक्त चलाए जाने वाले पटाखों को बताकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं।
अलबत्ता इसकी मुख्य वजह हवा में लगातार प्रदूषक तत्वों का बढ़ना है। दरअसल मौसम गरम होने पर जो धूल और धुंए के कण आसमान में कुछ ऊपर उठ जाते हैं, वे सर्दी बढ़ने के साथ-साथ नीचे खिसक आते हैं। दिल्ली में बढ़ते वाहन और उनके सह उत्पाद प्रदूषित धुंआ और सड़क से उड़ती धूल अंधियारे की इस परत को और गहरा बना देते हैं। इस प्रदूषण के लिए बढ़ते वाहन कितने दोषी हैं, इस तथ्य की पुष्टि दिल्ली में ‘कार मुक्त दिवस’ मनाने पर हुई थी। इसका नतीजा यह निकला कि उस थोड़े समय में वायु प्रदूषण करीब 26 पतिशत कम हो गया था। इस परिणाम से पता चलता है कि दिल्ली में अगर कारों को नियंत्रित कर दिया जाए तो बढ़ते प्रदूषण से स्थाई रूप से छुटकारा पाया जा सकता है।
दिवाली पर रोशनी के साथ ही आतिशबाजी छोड़कर जो खुशियां मनाई जाती है, उनके सांस्कृतिक पक्ष पर भी ध्यान देने की जरूरत है। अकेले दिल्ली में पटाखों का 1000 करोड़ रुपए का कारोबार होता है जो कि देश में होने वाले कुल पटाखों के व्यापार का 25 फीसदी हिस्सा है। इससे छोटे-बड़े हजारों थोक व खेरीज व्यापारियों और पटाखा उत्पादक मजदूरों की सालभर की रोजी-रोटी चलती है। इसा लिहाज से इस प्रतिबंध के व्यावहारिक पक्ष पर भी गौर करने की जरूरत है। यह अच्छी बात है कि राज्य सरकारों ने चीनी पटाखों के प्रयोग पर रोक लगा दी है। इससे स्वदेशी पटाखा उद्योग को हर साल जो 2 हजार करोड़ रुपए का नुकसान होता है, उससे यह उद्योग बचा रहेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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