गुरु-गूगल दोऊ खड़े, काके लागूं पांय…..

 

 

शिक्षक दिवस (05 सितम्बर) पर विशेष,

डॉ. राकेश राणा:

कोरोना संकट ने शिक्षक के भाव, भूमिका और भविष्य तीनों पर भारी दबाव बना दिया है। इस संकट से ऑनलाइन शिक्षण, शिक्षा व्यवस्था का स्थायी घटक बनता जा रहा है। पहले से मौजूद इंटरनेट, गूगल, मीडिया और सोशल मीडिया में सूचनाओं का सैलाब इन दबावों की पृष्ठभूमि निर्मित कर ही रहा था। बाजार के प्रभावों से उपजी संस्कृति ने अंधाधुंध उपभोक्तावाद को नए जरूरी जीवन मूल्यों की तरह प्रस्तुत किया है। भूमंडलीकरण के इक्कीसवीं सदी वाले इस संस्करण की खास बात यही है कि बाजार को मीडिया के रूप में स्मार्ट सह-संगिनी मिल गई है। दोनों ने मिलकर पूरे भूमंडल को रौंद डाला। समय और स्थान दोनों को सिकोड़कर मुट्ठियों में कर लिया है। ऐसे परिदृश्य में जब सारी धारणाएं-अवधारणाएं नये अर्थ ग्रहण करने को आतुर हों, तो शैक्षिक समाज भी अतिरिक्त दायित्वों के दोहरे दबावों के साथ चुनौतियों से मुखातिब हो रहा है।

कोरोना काल किसी भी विकासशील समाज के लिए एक संवेदनशील संक्रमणकाल तो है ही। बेशक आधुनिक तकनीकी ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया, आशाओं और विचारों को एक नए भी आयाम दिये हैं। आज के प्रतिस्पर्धी दौर में तेजी से हो रहे तकनीकी परिवर्तनों और आर्थिक अनिश्चितता के माहौल ने संरक्षणात्मक और सृजनात्मक वातावरण को खत्म करने का काम किया है। परिणामतः किशोरावस्था के उस शिक्षार्जन काल में आनन्दमयी जीवन का बच्चों से अधिकार छिन गया है। यह बाजार और प्रतिद्वंद्विता का हिंसक दौर है। किसी भी विचार या नीति के मूल्य का आकलन अब बाजारू-विमर्श और आर्थिक संदर्भ में ही होता है। जिसे हम आज की ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था कह रहे हैं, उसकी राजनैतिक-आर्थिकी में ज्ञान और कौशल महत्त्वपूर्ण घटक बन चुके हैं। शिक्षा व्यवस्था पर यह भारी दबाव है कि बाजार की मांग और आशा-अपेक्षाओं की निर्मिति वाली पीढ़ी तैयार हो। नई शिक्षा नीति-2020 भी इन्हीं अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर नए बदलावों के अनुकूलन का वातावरण चाहती है।

शिक्षा का यह सतत् संकट बढ़ता जा रहा है। आर्थिक विकास, रोजगार, ज्ञान और अवसरों तथा शांति, समृद्धि और सुरक्षा के बीच तालमेल बढ़ने के बजाय घट रहा है। इससे भी ज्यादा विचलित करने वाली बात यह है कि अभीतक जो आधुनिकता व्यक्ति, विवेक और लोकतंत्र की हिमायती दिखती थी, जिसके कसीदे पढ़ती कई पूर्व पीढ़ियां गुजर गई है, वास्तविकता यह है कि वही आधुनिकता अल्प-सूक्ष्म-समूह का आदर्श बनकर विषमताओं और गहरी आर्थिक असमानताओं को संस्थागत कर गई है। शैक्षिक परिदृश्य पर नज़र डालने से दो सबसे गंभीर संकट शिक्षा जगत के सामने दिखते हैं। पहला शिक्षा व रोजगार का दूसरा शिक्षा और संस्कृति का। वैश्विक अर्थव्यवस्था ने जिस तरह की सामाजिक-राजनैतिक और शैक्षिक-सांस्कृतिक संरचनाएं खड़ी कर दी हैं उनमें मानवीय गरीमा, व्यवसायिक संतुष्टि और आत्म-सम्मान का अभाव तो है ही, अनिश्चितता और असुरक्षाएं भी व्याप्त है। बहुराष्ट्रीय निगमों ने बाजार विस्तार की महत्वाकांक्षा के चलते जो सामाजिक-सांस्कृतिक अतिक्रमण किया। वह वाया शिक्षा और संस्कृति हो रहा है। नतीजतन शिक्षा गहन स्पर्धा के साथ अत्याधिक असुरक्षित वैश्विक परिस्थितियों से निपटने का एक असफल प्रयास बनकर रह गयी है।

ऐसे में समाज के उस बौद्धिक तबके, जो मिलकर एक शैक्षिक समाज की भूमिकाओं का निर्वहन करता है। जिसमें विशेषतः शिक्षा, शिक्षक, शैक्षणिक संस्थान, शिक्षा-नियंता और शिक्षार्थी आते हैं, उनसे ही कुछ आशाओं की उम्मीद बंधती है। इसलिए शिक्षा जगत इस उभरते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में विश्व चिंता के केन्द्र में हैं। हम भारतीय संदर्भ की पड़ताल के विस्तार में अगर इस पूरे मौजूदा जंजाल को समझने की कोशिश करें तो शिक्षक उस केन्द्र बिन्दु की तरह चिन्हित है, जो समाज के लिए कम्पास की सुई की तरह दिशा-दिग्दर्शन की एकमात्र आशा-व्यवस्था है। वास्तव में शिक्षा देना, शिक्षक होना कोई काम मात्र नहीं है, यह तो एक भूमिका है। शिक्षण एक महान और महत्वपूर्ण कार्य है। यह प्रतिबद्धता से कहीं बढ़कर एक आह्वान है। जिसका नेतृत्व करने वाले को शिक्षक कह सकते हैं। जिसमें राष्ट्र और समाज के प्रति दायित्व-बोध हो, समग्र नेतृत्व की प्रतिभा हो, नवाचार की नयी दृष्टि हो, परम्परा और आधुनिकता के बीच सेतु बनाने की सृजनात्मकता हो, यहीं शिक्षक होने की असली कसौटी है।

21वीं सदी के वैश्विक भारत में शिक्षक की भूमिका क्या हो? इस नये दौर के नये शिक्षक से समाज, राजनीति, नयी अर्थ-संरचनाएं व विश्व के सतत् संकट गरीबी, असमानता, हिंसा, पर्यापरण-क्षरण जिन नये जीवन-मूल्यों से उपजी समाधानात्मक जीवन दृष्टि की अपेक्षा रखते हैं, वह कैसे उपजे? इस नयी सदी के नये शिक्षक की नयी भूमिका क्या हो? वह कैसे सम्पन्न हो? इन सब सवालों के संधान की दिशा में समाज-विज्ञानों की तत्कालिक पहल से ही आगे बढ़ा जा सकेगा। समाज वैज्ञानिक डिवी की यह मान्यता कि ’’शिक्षा और उससे जुड़ी समस्याओं की अवधारणा सामाजिक विज्ञानों में प्रमुखता से उभरनी जरूरी है और उनकी समाधानात्मक सैद्धांतिकी का निरुपण भी उन्हीं में होना जरूरी है। अन्यथा की स्थिति में शिक्षा के सतत् संकट बने रहेंगे और शैक्षिक जगत की अपर्याप्तताएं कभी मुक्कमल ढंग से समझी ही नहीं जा सकेंगी।’’ इसी दिशा में समाजशास्त्री सैरासन दृढ़ आग्रह के साथ कहते हैं कि शिक्षा व्यवस्था को विशेषज्ञ हिस्सों में न देखकर समग्रता के साथ एक ऐसे ढांचे के रूप में देखा जाय, जिसके विभिन्न भाग परस्पर अंतर्सबंधित हैं। शिक्षा ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण की समग्र सामग्री है।

समय की मांग गंभीर अनुसंधानों, नये परिष्कारों और नवाचारों के साथ नयी विश्व दृष्टि लिए नये भारत की दिशा में नयी भूमिकाओं के वरण की है। जिसमें शिक्षक को समाज का नेतृत्व करना ही होगा। समाज को नए संकटों से उभारने के लिए शिक्षक को नवाचार का नायक बनना होगा। नयी धारणाओं-अवधारणाओं के बीच समाज को नव-जीवन मूल्यों से समायोजन सिखाना होगा। जो कोरोना काल में पहले से भी ज्यादा जरूरी हो गए हैं। विकास की दिशा में नये दबावों के साथ बढ़ना ही होगा। वैश्वीकरण ने दुनियावी संपर्क बढ़ा दिये हैं, व्यक्तियों, वस्तुओं और विचारों के विभिन्न पक्षों में समरूपता ला दी है। खासतौर से उपभोग के स्तर पर। सभी समाज वैश्विक उत्पादों के साथ-साथ नये मूल्यों, विचारों, मानकों और नयी नैतिकताओं तथा नयी सामूहिकताओं से भी नयी समाजार्थिक संरचनाओं का वरण कर रहे हैं। इस बदलती दुनिया के साथ सह-अस्तित्व, समायोजन और सहकार की संस्कृति विकसित करना शैक्षिक परिक्षेत्रों का अहम दायित्व है।

शिक्षा प्रणाली कक्ष-शिक्षण से ऑनलाइन शिक्षा में प्रवेश कर गई है। शिक्षक नए माहौल में नव-संस्कृति के विकास में नायक की भूमिका में अपने गुरुत्तर दायित्व का निर्वहन करे। तभी नया भारत विश्व-शक्ति के सपने को साकार कर विश्व-गुरु की भूमिका में आकार ले सकेगा। भारतीय शिक्षक अपने सनातन सिंहासन गुरु-गोविन्द दोऊ खड़े….. पर अपने प्रथम स्थान के साथ उसी दायित्व-बोध और विश्वास से भरा विराजमान रहेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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