कोरोनाः नए सिरे से परिभाषित होंगी मानवीय संवेदनाएं

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा:
कोरोना महामारी ने सबकुछ बदल कर रख दिया है। यहां तक कि हमारी पुरानी कहावतें भी कोरोना के इस दौर में बेमानी हो गई हैं। अकेले आए थे, अकेले जाओगे। क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे- कोराना महामारी के इस दौर में यह कहावतें अपने अर्थ खो चुकी हैं। अब तो इसका स्थान लेने वाली कहावत यह हो गई है कि जो-जो संपर्क में आएंगे, वे सब जाएंगे। देखा जाए तो इस महामारी ने बहुत कुछ बदलकर रख दिया है। क्या अमीर-क्या गरीब, सबको घर की चारदीवारी में कैद करके रख दिया। हमारे यहां भले ही मार्च से सबकुछ थमा हो पर कोरोना का असर सबसे पहले चीन और उसके बाद यूरोपीय देशों और अब सारी दुनिया को इसने अपनी आगोश में ले लिया है। कोरोना महामारी ने परस्पर संबंधों को भी प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है। 2020 की शुरुआत ही कुछ इस तरह हुई कि साल के पहले पांच माह कोरोना की भेंट चढ़ चुके हैं। निकट भविष्य में भी स्थितियों में अधिक बदलाव होता नहीं दिखाई दे रहा है।
भले ही लॉकडाउन को नए तरीके से लगाया जा रहा हो पर यह साफ हो गया है कि आने वाले कई सालों तक स्थितियां बदली ही रहेंगी। बदलती परिस्थितियों में सामाजिकता को नए सिरे से परिभाषित करना होगा क्योंकि कोरोना का असर जल्द जाने वाला नहीं है। सोशल डिस्टेंस अब महत्वपूर्ण हो गया है। परस्पर संपर्क पर जिस तरह जोर दिया जाता रहा है, वह अब बदल गया है। अब परस्पर दूरी ही पहली आवश्यकता हो गई है। मिलते ही हाथ मिलाना, गले लगाना, पीठ थपथपाना, सिर चूमना आदि गुजरे जमाने की बात होने जा रही है। देखा जाए तो समाज शास्त्रियोें को सामाजिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। हालांकि शहरीकरण और एकल परिवारों के चलते पहले ही काफी कुछ बदल चुका है।
स्थितियां यहां तक पहुंच चुकी है कि पारिवारिक रिश्ते भी कहीं खोने लगे हैं। शादी-विवाह, पार्टी-जलसा, घूमने-घुमाने पर तो कुछ समय के लिए ब्रेक ही लग गया है। भले ही अब पर्यटन स्थलों या होटलों को खोलने का निर्णय किया जा रहा हो पर आम आदमी कम से कम साल छह महीने तो आने-जाने की रिस्क लेने की स्थिति में नहीं होगा। यह भी साफ है कि सरकार भी किसी तरह की रिस्क लेने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जिस तरह से इस महामारी ने अपने आपको विस्तारित किया है और जिस तरह से समूची मानवता को हिलाकर रख दिया है, उससे लगता नहीं है कि साल-छह महीने में कोई बदलाव आएगा। अब तो यहां तक लगने लगा है कि जो शादी समारोह रिश्तों की शान होते थे वे भी प्रभावित हो गए हैं। अंतिम यात्रा में जाना जहां धर्म समझा जाता रहा है, वहां अब केवल 20 व्यक्ति ही अंतिम यात्रा में शामिल हो सकेंगे। घर-परिवार में होने वाले समारोह अब बीते जमाने की बात होने जा रहे हैं। रिश्तों-नातों को भी नए सिरे से परिभाषित करना होगा।
सामूहिक समारोह साल दो साल के लिए तो बीते जमाने की बात होने जा रहे हैं। मानवीय संवेदनाएं चारदीवारी में सिमट के रहने वाली है। कोरोना पॉजिटिव होने की जानकारी मात्र व्यक्ति को अलग-थलग करके छोड़ देती है। कोरोना के चलते मानवीय संवेदनाएं खत्म से होने की स्थिति में आ गई है। कोरोना पॉजिटिव के दुर्भाग्यवश निधन हो जाने की स्थिति में अंतिम संस्कार के संस्कार करना भी असंभव हो गया है। देखा जाए तो तीज-त्योहारों को मनाने का तरीका भी नए सिरे से खोजना होगा।
हालांकि स्थतियां सामान्य होंगी पर जो हालात दिखाई दे रहे हैं उससे साल दो साल तो सामान्य हालात होना मुश्किल भरा लगने लगा है। क्योंकि कोरोना की दहशत कई सालों तक बनी रहेगी। क्योंकि कोरोना से बचाव का एकमात्र रास्ता आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंस रह गया है। संपर्क रहित स्थिति ही बचाव का एकमात्र रास्ता है। ऐसे में समाज विज्ञानियों और चिकित्सा विज्ञानियों को कोई हल खोजना होगा जिससे व्यक्ति की सामाजिकता बनी रह सके। हालांकि अभी तो एकमात्र विकल्प स्टे होम-स्टे सेफ ही रह गया है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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