बिरसा मुंडा का 150वें जन्म वर्ष : संगठित और स्वाभिमानी समाज के निर्माण का आह्वान

*जनजातीय समुदाय : भ्रांति, गलत विमर्श और RSS का मत*

 

*बिरसा मुंडा का 150वें जन्म वर्ष : संगठित और स्वाभिमानी समाज के निर्माण का आह्वान*

 

डॉ. दीपक राय, भोपाल।

15 नवंबर को पूरे देश में जनजातीय गौरव दिवस मनाया गया है और कई स्थानों पर लगातार कार्यक्रम किए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने तो प्रदेश के सभी राज्यों में उत्सव के रूप में आयोजन किया। इतिहास के पन्ने खंगालने पर ने पर हमें ज्ञात होता है कि भारत के गौरवशाली स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों व योद्धाओं की एक दीर्घ परंपरा रही है और उनका योगदान अविस्मरणीय है। बिरसा मुंडा का इस स्वतंत्रता संग्राम के श्रेष्ठतम नायकों, योद्धाओं में विशेष स्थान है। 15 नवंबर 1875 को उलीहातु (झारखंड) में जन्मे भगवान बिरसा का यह 150 वाँ जन्म वर्ष है। अंग्रेजों और उनके प्रशासन द्वारा जनजातियों पर किए जा रहे अत्याचारों से त्रस्त होकर उनके पिता उलीहातु से बंबा जाकर बस गए। लगभग 10 वर्ष की आयु में उन्हें चाईबासा मिशनरी स्कूल में प्रवेश मिला। मिशनरी स्कूलों में जनजाति छात्रों को उनकी धार्मिक षड्यंत्र का कड़वा अनुभव हुआ जिसका उद्देश्य जनजाति छात्रों को उनकी धार्मिक परंपराओं से दूर कर ईसाई मत में मतांतरित करना था। जबलपुर में 30 अक्टूबर से 1 नवम्बर 2025 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक के बाद सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले का वक्तव्य में इस विषय पर गंभीरता से रेखांकन किया गया है। संघ द्वारा 150वें जन्म वर्ष के अवसर पर यह आह्वान किया गया कि बिरसा मुंडा के जीवन से प्रेरणा लेते हुए संगठित और स्वाभिमानी समाज का निर्माण किया जाए, जिसकी शक्ति का प्रमाण विजयादशमी के विराट आँकड़ों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस वक्तव्य को ध्यान से सुनने पर हमें पता चलता है कि “स्वाधीनता संग्राम के महान जनजातीय नायक भगवान बिरसा मुंडा की अविस्मरणीय विरासत” को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक राष्ट्रव्यापी संगठनात्मक शक्ति। बल्कि विभाजनकारी विचारधारा का सामना करने और सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए एक सुस्पष्ट एकात्मता संकल्प प्रस्तुत करता है।

मतांतरण केवल व्यक्तिगत धार्मिक आस्था को प्रभावित नहीं करता, बल्कि धीरे-धीरे एक संपूर्ण समाज की सांस्कृतिक चेतना और अस्मिता को नष्ट कर देता है। इस षड्यंत्र को गहराई से समझते हुए, केवल 15 वर्ष की आयु में ही बिरसा मुंडा ने समाज जागरण के द्वारा अपनी धार्मिक अस्मिता और सदियों पुरानी परम्पराओं की रक्षा के लिए संघर्ष प्रारंभ कर दिया। उनकी यह पहल दर्शाती है कि जनजातीय समाज में स्वधर्म और संस्कृति के प्रति समर्पण कितना गहरा था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इसी अवधारणा के साथ आगे बढ़ रहा है। बिरसा मुंडा के ‘अबुआ दिशुम-अबुआ राज’ – सांस्कृतिक पुनर्जागरण और बलिदान पर चर्चा करना जरूरी है। बिरसा मुंडा ने मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने समाज में एक व्यापक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लहर पैदा कर दी। उनका नेतृत्व एक ऐसे समय में उभरा जब ब्रिटिश शासन द्वारा प्रशासनिक सुधार के नाम पर जनजातीय जीवन के दो आधार स्तंभों पर हमला किया जा रहा था। पहला, वनों का अधिग्रहण करते हुए जनजातीय समाज से उनकी पैतृक भूमि का स्वामित्व छीनना; और दूसरा, उन पर जबरन श्रम नीतियां लागू करना। इन प्रशासनिक और आर्थिक अत्याचारों के विरोध में बिरसा ने एक व्यापक जन आंदोलन खड़ा किया। उनके आंदोलन का नारा “अबुआ दिशुम-अबुआ राज” (हमारा देश-हमारा राज) था। यह नारा किसी क्षेत्रीय मांग तक सीमित नहीं था, बल्कि यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वशासन की भावना से ओत-प्रोत था। इस प्रेरणा मंत्र ने हजारों युवाओं को “स्वधर्म” और “अस्मिता” की रक्षा के लिए बलिदान देने हेतु प्रेरित किया। जनजातियों के अधिकारों, उनकी आस्थाओं, परंपराओं और स्वधर्म की रक्षा के लिए भगवान बिरसा ने अनेक आंदोलन व सशस्त्र संघर्ष किए। अपने पवित्र जीवन लक्ष्य के लिए संघर्ष करते हुए, वह पकड़े गए और मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में कारागार में दुर्भाग्यपूर्ण और संदेहास्पद परिस्थिति में उनका बलिदान हुआ। समाज के प्रति अपने असाधारण प्रेम और बलिदान के कारण संपूर्ण जनजाति समाज उन्हें देव स्वरूप मानकर धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा कहकर श्रद्धान्वत होता है। भारत सरकार ने संसद भवन परिसर में उनकी प्रतिमा स्थापित कर समुचित सम्मान किया है, और प्रतिवर्ष 15 नवंबर को उनका जन्मदिन “जनजाति गौरव दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

बिरसा मुंडा के जीवन का संदेश—धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक परम्परा, स्वाभिमान और जनजातीय समाज की अस्मिता की रक्षा—आज भी अत्यंत प्रासंगिक है। वर्तमान काल में पनप रही विभाजनकारी विचारधारा और जनजाति समुदाय को लेकर खड़ा किए जा रहे भ्रांत और गलत विमर्श पर चिंता व्यक्त की गई है। ऐसे समय में, बिरसा मुंडा की धार्मिक और साहसिक पराक्रम की गाथाएं इन वैचारिक भ्रांतियों को दूर करने का कार्य करती हैं, जिससे समाज में स्वबोध, आत्मविश्वास और एकात्मता दृढ़ होती है। आपको बता दें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती के अवसर पर स्वयंसेवकों सहित संपूर्ण समाज को स्पष्ट आवाहन् किया है कि वे बिरसा मुंडा के जीवन-कर्तृत्व और विचारों को अपनाते हुए “स्व बोध” से युक्त संगठित और स्वाभिमानी समाज के निर्माण में महती भूमिका का निर्वहन करें। यह भी याद रखना होगा कि यह आह्वान उस संगठनात्मक शक्ति पर आधारित है, जो संगठन भारत के कोने-कोने में स्थापित कर चुका है।

संगठनात्मक शक्ति का प्रमाण हमें राष्ट्रव्यापी एकात्मता का संकल्प के रूप में दिखता है, जिसका प्रमाण विजयादशमी कार्यक्रमों की उपस्थिति के विराट आँकड़ों में मिलता है। ये आँकड़े दर्शाते हैं कि संघ का संदेश और कार्य भारत के भौगोलिक और सामाजिक हर कोने तक पहुँच चुका है। इस दौरान देशभर में आयोजित कार्यक्रमों में 32,45,141 स्वयंसेवक गणवेश में उपस्थित रहे। यह संख्या संगठन के अनुशासन, प्रतिबद्धता और विशाल मानव संसाधन को दर्शाती है। विजयादशमी के उपलक्ष्य में देश में 25,000 स्थानों पर पथ संचलन हुए, जिनमें 25,45,800 स्वयंसेवक गणवेश में सहभागी हुए। सार्वजनिक रूप से आयोजित ये पथ संचलन न केवल संगठन की शक्ति, बल्कि सामाजिक स्वीकार्यता और देश के प्रति उनके संकल्प को प्रदर्शित करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि देश का कोई भी भौगोलिक क्षेत्र अछूता नहीं रहा; कार्यक्रम अंडमान, लद्दाख, अरुणाचल, मेघालय व नागालैंड जैसे अत्यंत दूरस्थ और सीमावर्ती क्षेत्रों में भी आयोजित किए गए। यह भौगोलिक विस्तार राष्ट्रीय एकात्मता के संघ के मूल सिद्धांत को सिद्ध करता है, जो क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद एक संगठित और स्वाभिमानी समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है।

ये आँकड़े दर्शाते हैं कि संघ, जनजातीय गौरव के संरक्षण, सामाजिक एकात्मता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के माध्यम से, समर्थ राष्ट्र के निर्माण के अपने शताब्दी संकल्प की दिशा में निरंतर और प्रभावी रूप से कार्यरत है।