इस विपक्ष को राहुकाल से कौन बचाए….

इस विपक्ष को राहुकाल से कौन बचाए….

प्रकाश भटनागर:

बिहार विधानसभा चुनाव में लोगों ने वोट चोरी के आरोपों को नकारते हुए एक तरह से विपक्ष के वोट ही लूट लिए। राहुल गांधी के बहुत ही क्रांतिकारी तेवरों ने महागठबंधन की लूटिया भी डूबा दी है। कांग्रेस बिहार में उससे भी नीचे पहुंच गई जहां वो 2022 में उत्तरप्रदेश में पहुंची थी। उत्तरप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस की हिस्सेदारी दो सीटों की है। बिहार विधानसभा में भी उसकी हिस्सेदारी केवल एक सीट पर ही सिमटती दिख रही है। तेजस्वी की नैया तो डूब ही गई। अब बारी अखिलेश यादव की है…… राहू काल से सावधान होने की।

बिहार में नतीजों के लिहाज से जो हुआ, वो अप्रत्याशित नहीं है। लेकिन आंकड़ों की दृष्टि से जो हुआ, वो कम से कम विपक्षी महागठबंधन के लिए आंख खोल देने वाला मामला है। एक बार फिर साफ हो गया है कि राहुल गांधी का हाथ थामने वाले का नतीजा हाथ मलते रह जाने के अलावा और कुछ भी नहीं हो सकता है। उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव ने इस प्रलयकारी भूल की धूल का जो स्वाद चखा, आज वही तेजस्वी यादव के मुंह का जायका बिगाड़ने वाला मामला भी साबित हुआ है।

कांग्रेस तो खैर इससे भी कोई सबक लेने से रही, लेकिन कम से कम इंडी गठबंधन को तो यह सोचना होगा कि कांग्रेस के फेर में राहुल जैसे बेताल को ढोने में और कितना धीरज रखा जाना चाहिए? लोकसभा चुनाव की मामूली बढ़त को अपनी जीत मान लेने वाली कांग्रेस और राहुल के नेतृत्व में एनडीए विरोधी विपक्ष को अधिकांश जगह हार का सामना ही करना पड़ रहा है।

बाकी जो इस गलती से बच गए, वो आगे बढ़ते जा रहे हैं और भाजपा से टकराने में भी कामयाब हंै। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में डीएमके जैसे दलों की कामयाबी चंद ऐसी समझदारी के उदाहरण हैं, जिनमें राहुल को ‘उनकी हद’ में रखने के विपक्ष को अच्छे नतीजे मिले हैं। कांग्रेस अब देश के केवल उन राज्यों में ही जैसे भी रहे, दूसरे नंबर की पार्टी रह सकती हैं, जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा के साथ है।

बाकी, जहां भी क्षेत्रीय दलों का असर है, वहां पंजे की स्थिति शर्मनाक तरीके से खरपतवार वाली हो चुकी है। और इस स्थिति का पूरा-पूरा श्रेय सोनिया गांधी के पुत्र-मोह तथा राहुल गांधी की आत्मरति को जाता है। फिर कांग्रेस के वो खेवनहार तो पार्टी की लुटिया डुबोने के बहुत बड़े कारक हैं ही, जो आज भी गांधी-नेहरू परिवार की चाटुकारिता के नाम पर पार्टी का बंटाधार करने के यज्ञ में नियमित रूप से आहुति डालते जा रहे हैं। ऐसे लोगों के वर्तमान कांग्रेस की दशा और दिशा में सुधार होने की दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन कम से कम भाजपा या एनडीए विरोधी गठबंधन के शेष दलों से तो इस समझदारी की उम्मीद की ही जा सकती है कि वो इस राहुकाल से बचने के लिए अब पूरी तरह सक्रिय हो जाएं।

बिहार चुनाव ने एक बात और स्पष्ट कर दी है। परिवारवादी पार्टियों का हाल भविष्य में क्या होना है, बिहार के चुनाव परिणाम इसका एक बड़ा उदाहरण है। यह सिर्फ लालू की राजद का ही हाल नहीं है, तमाम क्षेत्रीय पार्टियों सहित कांग्रेस भी परिवारों की जागीर है। इसे अब जनता बहुत अच्छे से समझ रही है। नीतिश अगर बीस साल से मुख्यमंत्री हंै तो इसका कारण यही है कि उन्होंने कभी जदयू को अपनी निजी जागीर बनाने की कोशिश नहीं की है। उन्होंने दलबदल भी किए हंै तो या तो कभी अपनी पार्टी को बचाने के लिए या फिर कभी सरकार को सही दिशा में चलाते रहने के लिए। इस बार बिहार की जनता ने ऐसा कोई मौका ही नहीं छोड़ा है जिसमें उसकी चुनी सरकार के साथ कोई छेड़छाड़ हो सके।