छठ पूजा सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। प्रायः हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे गये हैं। धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है।
छठ पूजा सूर्य और उनकी पत्नी उषा को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन की देवतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद और कुछ शुभकामनाएं देने का अनुरोध किया जाए। छठ में कोई मूर्तिपूजा शामिल नहीं है। यह त्यौहार नेपाली और भारतीय लोगों द्वारा अपने डायस्पोरा के साथ मनाया जाता है।
छठ पर्व छठ, षष्ठी का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली मनाने के बाद मनाये जाने वाले इस चार दिवसीय व्रत की सबसे कठिन और महत्त्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को यह व्रत मनाये जाने के कारण इसका नामकरण छठ व्रत पड़ा।
भारत में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है।
पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।
छठ व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।
लेकिन इसका सबसे ज्यादा महत्व महाभारत काल से जोड़ कर देखा जाता है। आइए जानते हैं आखिर इस छठ पर्व का उदगम कैसे हुआ और क्या है इसके पीछे की धार्मिक मान्यता।
द्रोपदी के व्रत से मिला था पांडवों को खोया हुआ राज्य
धार्मिक मान्यता के अनुसार छठ पर्व के व्रत की शुरुआत को महाभारत काल से जोड़ कर देखा जाता है। एक बार जब पांडव जुआ खेलते समय अपना सारा राज्य हार गए थे। उस समय द्रोपदी ने सूर्य उपासना के साथ ही साथ व्रत का अनुष्ठान किया था। जिसके बाद पांडवों को उनका हारा हुआ राजपाठ वापिस मिल गया। तब से छठ पर्व का व्रत इतना महत्वपूर्ण हो गया और इस कारण महिलाएं अपने कुल की रक्षा और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए छठ पर्व पर कुल 36 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं।
कर्ण की उपासना से भी छठ पर्व को जोड़ कर देखा जाता है।
महाभारत काल के वीर योद्धा कर्ण से भी छठ पर्व की मान्यता को जोड़ कर देखा जाता है। माना जाता है कि कर्ण सूर्य देव के परम उपासक थे। वह हर सुबह सूर्य देव को पानी में घंटो खड़े रहकर अर्घ्य दिया करते थे और उनका ध्यान करते थे। सूर्य देव कर्ण की उपासना से इतना प्रसन्न हुए कि उन पर अपनी विशेष कृपा बरसा दी और उनके आशीर्वाद से वह एक महान योद्धा बने।
छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं ?
यह पर्व चार दिनों का है। भैयादूज के तीसरे दिन से यह आरम्भ होता है।
पहले दिन सेन्धा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है। व्रति दिनभर अन्न-जल त्याग कर शाम करीब ७ बजे से खीर बनाकर, पूजा करने के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं।
अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित होता है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहाँ भक्तिगीत गाये जाते हैं।अंत में लोगो को पूजा का प्रसाद दिया जाता हैं।
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रति के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है।
खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ,जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रति एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है; इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले जैसा दृश्य बन जाता है।
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रति वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है।
सभी व्रति तथा श्रद्धालु घर वापस आते हैं, व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं।
छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिन्दू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है।
सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।
भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गयी है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है।
सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारम्भ हो गयी, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है।
उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। इसने कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाये गये।
पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी गयी। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। सम्भवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गयी, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।
पौराणिक और लोक कथाएँ !
छठ पूजा की परम्परा और उसके महत्त्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं।
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
*एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी,* तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परन्तु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे।
उसी वक्त ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूँ। हे! राजन् आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी पूजा के प्रति प्रेरित करें। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।
छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है।
इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है।
इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबन्धन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता।
इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।