कुंभ शब्द की व्याप्ति
शाब्दिक दृष्टि से कुंभ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है –
*कुं पृथ्वीं भावयति पोषयति विविधयागानुष्ठानैरिति कुम्भ:।*
कुंभ वह महापर्व है, जिसमें विविध यज्ञों के अनुष्ठान से पृथ्वी का पोषण होता है।
*कुम् कुत्सितम् उम्भति दूरयति लोकहिताय।*
कुंभ पर्व लोक-कल्याण के लिए अपनी पावनता से धरती पर विद्यमान कुत्सित ( अमंगल ) भावों का जो निराकरण कर देता है।
*कुं पृथ्वीं उम्भते अनुगृह्यते उत्तमोत्तम महात्मसंगमै: यस्मिन् स कुम्भ:।*
पृथ्वी ( धरती ) के उपकार के लिए महात्माओं के संगम का स्थान कुंभ है।
*कुंभ क्या है ?*
कुंभ व्यष्टि से समष्टि की अनुभूति है। यह व्यक्ति का समूह में परिवर्तित हो जाने का प्रयास है अर्थात् “अहम् ( मैं ) “से” वयम् ( हम )” हो जाने की अभिलाषा ही कुंभ है।
अंश का अंशी से अद्वैत हो जाना ही कुंभ है।
“तत्त्वमसि” की प्रत्यक्ष अनुभूति ही कुंभ है।
जीव का ब्रह्म से “अभेद दर्शनं ज्ञानं” की प्रतीति ही कुंभ है।
ऋग्वेद के सूक्त में कुम्भ शब्द ‘घट’ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
अथर्ववेद की कालसूत्र में कुम्भ को विश्व ब्रह्मांडरूप कहकर काल के ऊपर स्थापित बताया गया है।
महाभारत में कुंभ शब्द शुद्धात्मा और विष्णु के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियों में ११वीं राशि कुंभ है, जिसके स्वामी शनि हैं।
“कुंभ: कुंभधरो” कुंभ राशि का स्वरूप – एक मनुष्य घट ( घड़ा ) लेकर लोगों को पानी पिलाने के लिए जाता हुआ-सा दिखाई देता है।
यह हम सभी जानते हैं कि कलश या घट को कुंभ कहा जाता है। सनातन धर्म के कर्मकांड में कुंभ या कलश लोकमंगल का पर्याय है।
शास्त्रों में वर्णित है –
*कलशस्य मुखे विष्णु: कण्ठे रूद्र: समाश्रित:।*
*मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्थिता:।।*
*कुक्षो तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।*
*ऋग्वेदो यजुर्वेदो सामवेदोऽप्यथर्वण:।।*
*अग्नेश्च सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रित:।*
अर्थात् प्रत्येक कुंभ या कलश के मुख में भगवान विष्णु, कंठ में रुद्र अथवा शिव, मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में समस्त देवियां मातृकाओं के रूप में स्थित हैं।
इसकी कोख में समस्त सागरों की जलराशि प्रतीकात्मक रूप में सन्निहित है, जिसमें मिली हुई है सप्तद्वीपा वसुंधरा की उदरम्भरा उर्वराशक्ति।
अग्नि की तरह तेजोमय ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद – सभी तो इस कलश में समाश्रित हैं।
इसलिए प्रत्येक मंगल अनुष्ठान को प्रारंभ करने से पूर्व कलश की प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्यतः की जाती है।