अलसी तिलहन फसलों में दूसरी महत्वपूर्ण फसल है. अलसी का सम्पूर्ण पौधा आर्थिक महत्व का होता है. इसके तने से लिनेन नामक बहुमूल्य रेषा प्राप्त होता है और बीज का उपयोग तेल प्राप्त करने के साथ-साथ औषधीय रूप में किया जाता है. आयुर्वेद में अलसी को दैनिक भोजन माना जाता है. अलसी के कुल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिषत खाद्य तेल के रूप में तथा शेष 80 प्रतिषत उद्योगों में प्रयोग होता है. अलसी का बीज ओमेगा-3 वसीय अम्ल 50 से 60 प्रतिषत पाया जाता है. साथ ही इसमें अल्फा लिनोलिनिक अम्ल, लिग्नेज, प्रोटीन व खाद्य रेषा आदि. ओमेगा-3 वसीय अम्ल मधुमेह गठिया, मोटापा, उच्च रक्तचाप, कैंसर, मानसिक तनाव (डिप्रेषन), दमा आदि बीमारियों में लाभदायक होता है.
#आवाज_एक_पहल
आज के भागदौड़ भरी जिंदगी में हम सब स्वस्थ रहना चाहते हैं, सेहतमंद रहना चाहते हैं और हमारी इच्छा को पूरा करने में अलसी(तिसी) बहुत हद तक सहायता कर सकता है।
अलसी के छोटे- छोटे बीजों में आपकी सेहत के बड़े-बड़े राज छुपे हुए हैं। अगर आप नहीं जानते, तो जरूर पढ़िए और जानिए अलसी के यह बेहतरीन फायदे –
1 भूरे-काले रंग के यह छोटे छोटे बीज, हृदय रोगों से आपकी रक्षा करते हैं। इसमें उपस्थित घुलनशील फाइबर्स, प्राकृतिक रूप से आपके शरीर में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने का काम करता है। इससे हृदय की धमनियों में जमा कोलेस्ट्रॉल घटने लगता है, और रक्त प्रवाह बेहतर होता है, नतीजतन हार्ट अटैक की संभावना नहीं के बराबर होती है ।
2 अलसी में ओमेगा-3 भरपूर मात्रा में पाया जाता है जो रक्त प्रवाह को बेहतर कर, खून के जमने या थक्का बनने से रोकता है, जो हार्ट-अटैक का कारण बनता है। यह रक्त में मौजूद कोलेस्ट्रॉल को कम करने में भी सहायक है।
3 यह शरीर के अतिरिक्त वसा को भी कम करती है, जिसे आपका वजन कम होने में सहायता मिलती है।
4 अलसी में मौजूद एंटी-ऑक्सीडेंट्स और फाइटोकैमिकल्स, बढ़ती उम्र के लक्षणों को कम करती है, जिससे त्वचा पर झुर्रियां नहीं होती और कसाव बना रहता है। इससे त्वचा स्वस्थ व चमकदार बनती है।
5 अलसी में अल्फा लाइनोइक एसिड पाया जाता है, जो ऑथ्राईटिस, अस्थमा, डाइबिटीज और कैंसर से लड़ने में मदद करता है। खास तौर से कोलोन कैंसर से लड़ने में यह सहायक होता है।
6 सीमित मात्रा में अलसी का सेवन, खून में शर्करा के स्तर को नियंत्रित करता है। इससे शरीर के आंतरिक भाग स्वस्थ रहते हैं, और बेहतर कार्य करते हैं।
7 इसमें उपस्थित लाइगन नामक तत्व, आंतों में सक्रिय होकर, ऐसे तत्व का निर्माण करता है, जो फीमेल हार्मोन्स के संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
8 अलसी के तेल की मालिश से शरीर के अंग स्वस्थ होते हैं, और बेहतर तरीके से कार्य करते हैं। इस तेल की मसाज से चेहरे की त्वचा कांतिमय हो जाती है।
9 शाकाहारी लोगों के लिए अलसी, ओमेगा-3 का बेहतर विकल्प है, क्योंकि अब तक मछली को ओमेगा-3 का अच्छा स्त्रोत माना जाता था,जिसका सेवन नॉन-वेजिटेरियन लोग ही कर पाते हैं।
10 प्रतिदिन सुबह शाम एक चम्मच अलसी का सेवन आपको पूरी तरह से स्वस्थ रखने में सहायक होता है, इसे पीसकर पानी के साथ भी लिया जा सकता है । अलसी को नियमित दिनचर्या में शामिल कर आप कई तरह की बीमारियों से अपनी रक्षा कर सकते हैं, साथ ही आपको डॉक्टर के पास जाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी
अलसी तिलहन फसलों में दूसरी महत्वपूर्ण फसल है. विश्व में अलसी के उत्पादन के दृष्टिकोण से हमारे देश का तीसरा स्थान है जबकि प्रथम स्थान पर कनाडा व दूसरे स्थान पर चीन है. वर्तमान समय में लगभग 448.7 हजार हैक्टेयर भूमि पर इसकी खेती की जा रही है एवं कुल उत्पादन 168.7 हजार टन व औसतन पैदावार 378 कि. ग्रा. प्रति हैक्टेयर है. भारत मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ, बिहार, राजस्थान, ओडिशा, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक आदि प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है. अलसी के कुल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत खाद्य तेल के रूप में तथा शेष 80 प्रतिशत तेल औद्योगिक प्रयोग जैसे सूखा तेल, पेन्ट बनाने में, वारनिश, लेमिनेशन, तेल कपड़े, चमडे, छपाई की स्याही, चिपकाने, टैपिलोन साबुन आदि में किया जाता है. इसलिए बीज उत्पादन व रेशा व तेल पर कीटों के पौधे के भाग पर निर्भर करता है.
भूमि और जलवायु
अलसी की फसल के लिए काली भारी एवं दोमट मटियार मिट्टी उपयुक्त होती है. अधिक उपजाऊ मृदाए अच्छी समझी जाती हैं. भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए. अलसी की फसल को ठंडी व शुश्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है. अलसी के उचित अंकुरण हेतु 25 से 30 सेल्सियस तापमान तथा बीज बनाते समय तापमान 15 से 20 सेल्सियस होना चाहिए. परिपक्वन अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है.
खेत की तैयारी
अलसी का अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिए खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिए. अतः खेत को 2 से 3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके. अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है. अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभरा होना अति आवश्यक है.
बुवाई का समय
असिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे़ तथा सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करनी चाहिए उतेरा खेती के लिए धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिए. जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फल मक्खी एवं पाउडरी मिल्ड्यू आदि से बचाया जा सकता है.
बीज एवं बीजोपचार
अलसी की बुवाई 20 से 25 किग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से करनी चाहिए. कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे की दूरी 5 से 7 सेंमी रखनी चाहिए. बीज को भूमि में 2 से 3 सेंमी की गहराई पर बोना चाहिए. बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्रा. मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडर्मा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए.
उर्वरकों की मात्रा
असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी उपज प्राप्ति हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से तथा सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नाइट्रोजन व 75 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें. असिंचित दशा में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में प्रथम सिंचाई के बाद करें. फॉस्फोरस के लिए सुपर फॉस्फेट का प्रयोग अधिक लाभप्रद है. अलसी में भी एजोटोबेक्टर एजोसपाईरिलम और फॉस्फोरस घोलकर जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किए जा सकते हैं. बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किग्रा बीज की दर से अथवा मृदा उपचार हेतु 5 किग्रा हैक्टेयर जैव उर्वरकों की मात्रा को 50 किग्रा भुरभुरे गोबर की खाद के साथ मिलाकर अंतिम जुताई के पहले खेत में बराबर बिखेर देना चाहिए.
खरपतवार प्रबंधन
खरपतवार प्रबंधन के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात् पहली निराई-गुड़ाई एवं 40 से 45 दिन पश्चात् दूसरी निराई-गुड़ाई करनी चाहिए. अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु एलाक्लोर एक कि.ग्रा संक्रिया तत्व को बुवाई के पश्चात् एवं अंकुरण पूर्व 500 से 600 लिटर पानी में मिलाकर खेत में छिड़काव करें.
जल प्रबंधन
अलसी के अच्छे उत्पादन के लिए विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 से 3 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है प्रथम सिंचाई 4 से 6 पत्ती निकलने पर द्वितीय सिंचाई शाखा फूटते समय एवं तृतीय सिंचाई फूल आते समय चैथी सिंचाई दाने बनते समय करना चाहिए. यदि सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए. सिंचाई के साथ-साथ प्रक्षेत्र में जल निकास का भी उचित प्रबंध होना चाहिए.
अलसी के प्रमुख कीट
कर्तन कीट (एग्राटिस एप्सिलान)
पहचान व जीवन-चक्र
कर्तन कीट का वयस्क व सूंडी ग्रीष्म के अन्त में मादा संभोग के बाद अण्ड़े देते हैं. मादा हल्की भूरी दोमट भूमि में अण्ड़े देना पसंद करती है. मादा एकल या गुच्छे में ठीक जमीन के नीचे सतह या पौषक पौधे के पत्ती के निचले भाग पर देती है. भारत के कुछ भागों में मादा गे्रजी कर्तन वयस्क अण्डे देना पसंद करती है. कर्तन कीट अलसी के पौधे को पूर्णतया या पौधे के जमीन के भाग से काट देता है. इसकी सूंड़ी दिन के समय जमीन में रहती है और रात के समय निकलकर खाती है. जमीन की सतह से पूर्ण विकसित सूंड़ी लगभग 3 से 4 सप्ताह तक खाती है व क्षतिग्रस्त पौधा पूर्णतया नष्ट हो जाता है या कमजोर होने के कारण हवा से या बीमारी से ग्रसित हो जाता है.
प्रबन्धन
– खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति है. की दर से लगाकर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित करके नष्ट किया जा सकता है जिसकी वजह से इसकी संख्या को कम किया जा सकता है.
– खेतों के बीच-बीच में घास फूस के छोटे-छोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात्रि में जब सूंडियां खाने को निकलती है. तो बाद में इन्हीं में छिपेगी जिन्हें घास हटाने पर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.
– प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरी फॉस 20 ई. सी. 1 लिटर प्रति है. या नीम का तेल 3 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें.
– फसल की बुवाई से पूर्व फोरेट (थीमेट) 10 जी. ग्रेन्यूल्स की 20-25 किग्रा. मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें.
अलसी की कली या गालमिज मक्खी
(डाईनूरिया लिनी बारनस)
कली वयस्क पहचान व जीवन-चक्र
अलसी की कली वयस्क छोटा (1-1.5 मिमी. लम्बा) लम्बा शरीर मक्खी नारंगी व लम्बे पैर और पंख के पीछे वाले भाग पर बाल पाए जाते हैं. मादा दिन के समय एकल या गुच्छ़ों में या 3-5 तक कली व फूल के बाह्य दल पर अंडे देती हैं. अंड़ों से एक या दो दिन में फूट कर मैगेट निकलते हैं मैगेट कली में छेद करके अन्दर प्रवेश कर जाते है, और अन्दर से खाते रहते हैं. कली में 3-4 मैगेट विकसित हो जाते हैं. कभी-कभी 10 मैगेट भी एक कली फसल को मैगेट द्वारा कली को खाने से फूल को बीज बनने से रोकते हैं.
प्रबन्धन
– मैगेट परजीवी चालसिड ततैया सिसटैसिस डैसूनेरी मैगेट की मात्रा को कम करने में सहायक होगा.
– आवश्यकतानुसार कीटनाशी रसायन साइपरमेथ्रिन 25 प्रतिशत की 350 मि.लि. मात्रा या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. की 1 मि.लि. मात्रा या डाइमेथोएट 30 ई. सी. या मेटासिसटाक्स 25 इ. सी. 1.25-2.0 मि.लि. प्रति लिटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
– कार्बारिल 10 प्रतिशत डी0 पी0 25 किलो0 प्रति हैक्टेयर की दर से बुरकाव करें.
लीफ माइनर या पर्णसूरंगक कीट
(फाइटोमाइजा होर्टीकोला)
पहचान एवं जीवन चक्र:
लीफ माइनर अलसी का बहुभक्षी कीट है. भारत में वयस्क मक्खी चमकीले गहरे रंग की होती है. लीफ माइनर अलसी की फसल की 25 प्रतिशत पत्तियों को क्षति पहुंचाता है. इसका प्रकोप अधिकतर फरवरी व मार्च में होता है. लीफ माइनर के मैगेट पत्ती के निचले व ऊपर के बीच को खाती है और पत्ती की शिराओं पर सुरंग बना लेते है.
प्रबंधन :
– प्रकोप होने पर 5 प्रतिशत एन.एस.के.ई. का छिड़काव करें.
– अधिक प्रकोप होने पर थायोमीथोक्सोम 25 डब्लू. पी. 100 जी. या क्लोथिनीडीन 50 प्रतिशत डब्लू. डी.जी. 20-24 ग्राम. 500 लिटर पानी में या डाईमैथोएट 30 ई. सी. का 1.0-1.5 लिटर या मेटासिसटाक्स का 1.5 -2.0 लिटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
फल भेदक कीट (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा)
पहचान एवं जीवन चक्रः
इस कीट का वयस्क मध्यम आकार का पीले-भूरे रंग का होता है. इस कीट की मादा अलसी की पत्तियों, वाहयदल पुंज की निचली सतह पर हल्के पीले रंग के खरबूजे की तरह धारियों वाले एक-एक करके अण्डे देती हैं. एक मादा अपने जीवन काल में लगभग 500-1000 तक अण्डे देती हैं. ये अण्डे 3 से 10 दिनों के अन्दर फूट जाते है और इनसे चमकीले हरे रंग की सूड़िया निकलती हैं. इसकी सूंडी चढ़ने वाली सूंडी से अलग होती है नवजात सूंडी फूल, कली और एक समय के लिए कैप्सूल में घुस जाती है और कैप्सूल का अन्दर का न्यूट्रिएंट खा जाती है. सूंड़ी कैप्सूल से बाहर निकलकर पत्ती खाती है और फिर दूसरे कैप्सूल में घुस जाती है.
प्रबन्धन:
– खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति है. की दर से लगाए.
– खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने हेतु 10 ठिकाने प्रति है. के अनुसार लगाए.
– सूंड़ी की प्रथमावस्था दिखाई देते ही 250 एल. ई. का एच. ए. एन. पी. वी. को एक किलोग्राम गुड़ तथा 0.1 प्रतिशत टीपोल के घोल का प्रति है. की दर से 10-12 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें.
– इसके अतिरिक्त 1 किग्रा. बी. टी. का प्रति है. प्रयोग करें.
– तदोपरान्त 5 प्रतिशत एन.स.के.ई. का छिड़काव करें.
– प्रकोप बढ़ने पर क्विनोलफास 25 ई.सी. या क्लोरपायरी फॉस 20 ई. सी. का 2 मिमी. प्रति लि. या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. की 1 मिमी. प्रति लि. की दर से छिड़काव करें.
– स्पाइनोसैड 45 एस.सी. व थायोमेक्जाम 70 डब्ल्यू एस. सी. की 1 मिमी. प्रति लि. का प्रयोग करें.
सेमीलूपर (प्लूसिया ओरिचेल्सिया)
पहचान एवं जीवन चक्र:
इस कीट की सूंड़ी पीठ को ऊपर उठाकर अर्थात् अर्धलूप बनाती हुई चलती है इसलिए इसे सेमीलूपर कहा जाता है. यह पत्तियों को कुतर कर खाती है. एक मादा अपने जीवन काल में 400-500 तक अण्डे देती है. अण्डो से 6-7 दिन में सूंड़ियां निकलती है. अलसी की फसल को सूंडी की अन्तिम अवस्था फूल, कली व पत्ती को खाती है. चढ़ने वाली सूंडी कर्तन कीट से हमेशा भूमि से ऊपर से पौधे के प्रत्येक भाग को काटती है. सेमीलूपर जो भारत के विभिन्न भागो में पाई जाती हैं यह फल, सब्जी की फसल को अलसी की फसल को भी खाती हैं.
प्रबन्धन :
– खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति है. की दर से लगाएं.
– खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने हेतु 10 ठिकाने प्रति है. के अनुसार लगाएं.
– प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरी फॉस 20 ई. सी. 1 लिटर प्रति है. या नीम का तेल 3 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें.
बिहारी बालदार सूंडी (स्पाइलोसोपा ओबलिक्वा)
मादा पत्तियों की निचली सतह पर समूह में अण्डे पीलापन लिए हुए सफेद रंग के होते हैं. एक मादा अपने जीवन काल में 800-1000 अण्डे देती है. अण्डे 3-5 दिन में फूट जाते हैं अण्डों से निकली छोटी सूंडियां प्रारम्भ में एक स्थान पर झुण्ड में चिपकी रहती हैं. फिर एक-दो दिन अलग-अलग बिखर जाती हैं. पूर्ण विकसित सूंडी गहरे नारंगी या काले रंग की होती हैं जिसके शरीर पर चारों तरफ घने बाल होते हैं. पौधे की पत्तियों निचली सतह सूंडी लोरोफिल खा जाती है. पौधे की पत्तीयां जाल सी दिखाई देती हैं.
प्रबंधन:
– प्रथमावस्था सूंडी दिखाई देते ही एस. ओ. एन. पी. वी. की 250 एल. ई. या 3ग1012 पी. ओ. बी. प्रति है. की दर से 7-8 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें.
– फसल में फालिडाल धूल 2 प्रतिशत का 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए.
– स्पाइनोसैड 45 एस. सी. इण्डोक्साकार्ब 14.5 एस. सी. व थायोमेक्जाम 70 डब्ल्यू एस. सी. की 1 मिमी. प्रति लि. का प्रयोग करें.
अलसी के रोग
गेरुआ रस्ट
यह रोग मेलाम्पेसोरा लाईनाई नामक कवक के कारण होता है. रोग का प्राकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फोट पत्तियों के दोनों ओर बनते हैं. धीरे-धीरे ये पौधे के सभी भागों में फैल जाते हैं. इसका फलस्वरुप उपज एवं बीज में तेल की मात्रा में काफी कमी आ जाती है.
नियंत्रणः
– 15 से 20 किलोग्राम गंधक का भुरकाव करें अथवा 2 किलोग्राम डाईथेन जेड -78 को 500 से 700 लिटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें.
– रोग नियंत्रण हेतु फरवरी में घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत या मैकोजेब का छिड़काव करें.
– रोगरोधी किस्में आर-552 टी-397 जे एल एस-9 को लगाए तथा जंगली अलसी के पौधों को खेत के आसपास हों तो नष्ट करें.
उकठा विल्टः
यह अलसी का प्रमुख हानिकारक मृदा जनित रोग है. इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है. रोगग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते है. इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पड़े फसल अवशेषों द्वारा होता है. इसके रोग जनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में रहते हैं तथा अनुकूल वातावरण में पौधों पर संक्रमण करते है.
प्रबन्धनः
– इसके नियन्त्रण का सबसे अच्छा उपाय रोगरोधी किस्मों को बोना चाहिए.
– फसलों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही आइप्रोडियोन की 0.2 प्रतिशत अथवा मैंकोजेब की 2.25 प्रतिशत अथवा कार्बेन्डाजिम 12 प्रतिशत मैंकोजेब 63 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा का पर्णिल छिड़काव करना चाहिए.
अल्टरनेरिया अंगमारी:
इस रोग से अलसी के पौधे का समस्त वायुवीय भाग प्रभावित होता है परंतु सर्वाधिक संक्रमण पुष्प एवं मुख्य अंगों पर दिखाई देता है. फलों की पंखुड़ियों के निचले हिस्सों में गहरे रंग के लम्बवत धब्बे दिखाई देते है. अनुकूल वातावरण में धब्बे बढ़कर फूल निकलने से पहले ही सूख जाते है. इस प्रकार रोगी फूलों में दाने नहीं बनते हैं.
प्रबन्धन:
– मिट्टी में रोग जनकों के निवेश को कम करने के लिए 2 से 3 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिए.
– अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से लेकर नवम्बर के प्रथम सप्ताह के मध्य तक बुवाई कर देनी चाहिए.
– बीजों को बुवाई से पहले कार्बेन्डाजिम या थार्योफ्लेट मिथाइल की 3 ग्राम मात्रा से प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.
– फसलों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही आइप्रोडियाँन की 0.2 प्रतिशत अथवा मेंकोजेब की 2.25 प्रतिशत अथवा कार्बेन्डाजिम 12 प्रतिशत मेंकोजेब 63 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा का पर्णिल छिड़काव करना चाहिए.
पाउडरी मिल्ड्यू:
यह कवकजन्य रोग है. इसके कारण पौधों की नई शाखाओं के सिरों पर भूरा या सफेल आटे जैसा पाउडर दिखाई देता है और बाद में पत्तियों एवं फलों पर फफूँद का आक्रमण हो जाता है रोगों पौधो की पत्तियां गिरने लगती है जिससे दाने सिकुड़ जाते हैं.
प्रबन्धन:
– इस रोग का प्रथम लक्षण देखते ही फसल पर 2.5 किलोग्राम घुलनशील गंधक प्रति हैक्टेयर की दर से 650 लिटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए. पानी की मात्रा छिड़काव करने वाले यन्त्र के आधार पर कम अधिक किया जा सकता है.
– चूर्णिल आसिता रोग के प्रबंधन से सल्फेक्स अथवा कार्बेन्डाजिम एक ग्राम प्रति लिटर पानी में जलीय घोल का पर्णिय छिड़काव लाभप्रद अथवा प्रतिरोधी प्रजातियाँ का चयन कर उगाया चाहिए.
कटाई-गड़ाई एवं भण्डारण:
जब फसल की पत्तियां सूखने लगें कैप्सूल भूरे रंग के हो जाए और बीज चमकदार बन जाएं तब फसल की कटाई करनी चाहिए. बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आर्द्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिए सर्वोत्तम है.
रेषा निम्न प्रकार से निकाला जा सकता है.
हाथ से रेषा निकालने की विधि:
अच्छी तरह सूखे सड़े तने की लकड़ी को मुंगरी से पीटिए कूटिए. इस प्रकार तने की लकड़ी टूटकर भूसा हो जाएगी जिसे झाड़कर व साफ कर रेशा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है.
यांत्रिक विधि मषीन से रेषा निकालने की विधि:
सूखे सड़े तने के छोटे-छोटे बंडल मशीन के ग्राही सतह पर रखकर मशीन चलाते हैं. मशीन से बाहर हुए दबे पिसे तने को हिलाकर एवं साफ कर रेशा प्राप्त कर लेते हैं. यदि तने की पिसी लकड़ी एक बार में पूरी तरह रेशे से अलग न हो तो पुनः उसे मशीन में लगाकर तने की लकड़ी को पूरी तरह से अलग कर लें.
उपज :
अलसी की उपज सामान्तया 20-25 किवंटल प्रति हेक्टयर होता हैं।