नये संसद-भवन ने सांसदों पर विजन की कमी व कामचोर का कलंक लगाया !

 

भारत यानि इंडिया और इंडिया यानि भारत के अंग्रेजों से आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर देश अमृतकाल बना रहा हैं | इसी अमृतकाल में नये संसद-भवन का निर्माण पुरा हुआ और 19 सितम्बर, 2023 से उसमें कामकाज की शुरूआत हो गई | पुराने संसद-भवन जिसे अब संविधान-सदन के नाम से अलंकृत किया गया उससे नये संसद-भवन में प्रवेश के समय ऐतिहासिक समय के दौरान कीर्ति, यश, गौरव का जो अमृत बरसा उसे ग्रहण करने में सभी सांसदों ने सेल्फी, फोटो सेशन, वीडियो निर्माण व लाईव टेलिकास्ट में रती भर की भी कौताई नहीं बरती | इसके पश्चात् भी आम लोगों के खून-पसीने की कमाई और अब मुंह के निवाले (आटा, दाल, चावल इत्यादि-इत्यादि) पर लगे सरकारी टैक्स के पैसे से बनी इस भव्य व आलीशान संसद-भवन ने सभी सांसदों पर विजन की कमी व कामचोर का कलंक लगा दिया हैं |

महामहिम राष्ट्रपति से सबसे पहले 5 दिवस के विशेष-सत्र की मांग करके अनुमति ली गई ताकि समय का चक्र आगे निकल गया तो अति आवश्यक काम जो रखे हैं वो अधुरे न रह जाये व लोकतंत्र बर्बाद होने से बचने के साथ देश व देशवासी पर आने वाली बड़ी आपत्ति से बच जाये | पुराने संसद-भवन में कार्यवाही के दौरान प्रति घंटे करीबन 1.50 करोड़ रूपये खर्च होते थे | यह खर्च अब कई गुना बढ़ गया क्योंकि नये संसद-भवन का आकार, साज-सजावट व भौतिक सुख-सुविधाओं का दायरा भी बढा़ | यदि यह सामान्य पूर्व निर्धारित सत्र होता तो कोई और बात होती परन्तु यह विशेष सत्र था तब भी 5 दिन ईमानदारी, मेहनताने व अपने निर्वाचन क्षेत्र से सीमित लोगों को वहां सरकारी खर्च पर ले जाने की सुविधा के अवज में काम करने की बजाय सभी चार दिन में चले गये और संसद को अगले अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया |

एक दिन पहले ही संसद को स्थगित करने का अर्थ हुआ कि सांसदों के पास करने को कोई काम नहीं था व एक भी कानून लम्बित नहीं रखा हैं | कार्यपालिका यानि तथाकथित सरकार ने दोनों सदनों के सभापतियों को लम्बित काम की सूची नहीं दी या दोनों अध्यक्षों ने इन्हें दबाकर अपने निजी काम को पुरा करने के लिए संसद को एक दिन पहले ही स्थगित कर दिया | व्यवस्था तो दो – तीन बार पहले स्थगित करने पर भी माहौल न बन पाये तब पुरे दिन के लिए स्थगित करने की हैं | लोकसभा के अध्यक्ष के आसन के पास तो अब न्याय दिलाने का राजदंड सेंगोल रखा था तब भी उसके डर से वो सांसदों को रोक नहीं पाये क्या? राजदंड पर विध्यमान नंदी का इसमें कोई दोष नहीं हैं क्योंकि उसका शिवशक्ति केन्द्र अब पृथ्वी से निकलकर चन्द्रमा पर चला गया |

महामहिम राष्ट्रपति से 5 दिन की विशेष अनुमति मांगी तब कौनसे काम को करना हैं उसकी सूचि दी होगी | किसी काम को करने में कितना समय लगता हैं इतनी भी 5 दिवस की दूरदर्शिता कार्यपालिका के पास नहीं हैं | राष्ट्रपति को जाने दो, हमने तो पहले प्रमाण देकर बताया था कि दस्तावेज राष्ट्रपति को दिखाये ही नहीं जाते हैं, राष्ट्रपति-भवन में बैठा अंजान व्यक्ति ही उनके नाम, पद व मोहर का इस्तेमाल करके सबको गुलाम बनाकर रख रखा हैं |

भविष्य को निर्माण करने की दूरदर्शिता व विजन की बात आती हैं तो नये संसद-भवन ने मूर्तरूप में आने के साथ ही यह साबित करके बताया की वर्तमान में संवैधानिक कुर्सीयों पर बैठे सभी लोग व काम कर रहा हैं अफसरशाही इस मामले में फिसड्डी हैं। इनकी इस कमी के कारण सरकारी खजाने का पैसा सड़कों के गड्ढों में भरे पानी की तरह बह जाता हैं | किसी भवन के लिए दो ही कार्यक्रम होने की सरकारी प्रक्रिया का प्रावधान हैं पहला भूमि-पूजन या आधारशिला रखने का व दुसरा उद्घाटन या राष्ट्र व उसकी प्रजा को समर्पण करने का |

इन दोनों कार्यक्रमों के बाद स्मरण आया कि ध्वजारोहण तो हुआ नहीं और फिर अलग से कार्यक्रम रखना पड़ा | इसके आगे ध्वजारोहण प्रधानमंत्री से कराने का निश्चित करा फिर समझ में आया कि राष्ट्रपति के बिना तो राष्ट्र को समर्पित नहीं हो सकता इसलिए इसे भी बदलना पड़ा | राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया नहीं या तिनों सशस्त्र सेनाओं की प्रमुख व भारत-सरकार की मुखिया के पास तिरंगे के लिए अब तक जान न्यौछावर करने वाले लाखों-करोडों सपूत व सपूतियों, देश के 140 करोड़ नागरिकों एवं राष्ट्र निर्माण के लिए ईमानदारी से मेहनत कर कानून के मार्ग पर चल जीवन त्यागने वाले सभी वीर-वीरांगनाओं से बढकर कोई अन्य कार्य रहा होगा अन्यथा कामयाबी की गडगड़ाहट उनके 400 कमरे वाले आलीशान भवन/सदन में नहीं पहुंची अन्यथा वो कार्यक्रम का समय बदलाकर भी स्वयं आ जाती | इसी मजबूरी को देखते हुए संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति से ध्वजारोहण के कर्तव्य का निर्वाह कराया गया |

राष्ट्र की मर्यादाओं को भविष्य में बनाये रखने के इस विजन के अल्पज्ञान का परिणाम यह निकला की संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति व उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सभी 15 न्यायाधीशों के अभाव में मूल संविधान की अलग प्रति छपवाकर, असली संविधान व उसमें जुडें सभी संसोधनों को संविधान-सदन में छोड़कर जाना पड़ा | इसके बाद तो मूल संविधान के ज्ञान न होने का भानूमति वाला भांडा तब फूट गया जब आसन के माध्यम से प्रधानमंत्री पद पर जनता की नौकरी कर रहे व्यक्ति के जन्मदिन की बात आई | प्रधानमंत्री के संवैधानिक पद का जन्मदिन तो संविधान के अनुसार 26 जनवरी हैं इस पर बैठने वाले जनसेवक आते-जाते रहते हैं और सिर्फ राष्ट्रपति को ही संविधान ने व्यक्तिगत जीवन से मुक्त कर रखा हैं इस कारण उन पर कोई मामला दर्ज नहीं होता व न्यायपालिका में विचाराधीन हो तब भी बंद हो जाता हैं |

नये संसद-भवन की सजावट, सुविधाएं, खान-पीन, भव्यता, सुरक्षा आदि उत्तम कोटि की हैं | इसको “लोकतंत्र” में संविधान के अनुसार देश की असली मालिक आम जनता जो अपनी सरकार बनाती हैं उसके नजरिये से विज्ञान के सैद्धांतिक, नैतिक, मानवीय व मौलिक अधिकारों के अनुरूप व्याखित करे तो मालिक ने नये “संसद-भवन” के रूप में अपने नौकरों/कर्मचारियों/सेवकों को अपने व बच्चों का पेट काट अच्छे रहन-सहन, खाने-पीने, नई आधुनिक सुविधाओं से सुज्जित कार्यस्थल दिया हैं व हर माह पहले से निर्धारित उच्चतम मेहनताना/पगार तो हैं ही वो भी बुढ़ापे में सहारे के लिए उच्चतम स्तर की पेंशन के साथ इस उम्मीद में की ये उनके लिए अच्छा काम करके दु:ख, तकलीफ, पीड़ा, परेशानी को समय पर दूर करेंगे लेकिन यह सभी तो एक दिन पहले ही नये संसद-भवन में काम करने से पहले ही गौत मारकर चले गये |

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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