10 जून 2023 मध्यप्रदेश के लिए ऐतिहासिक दिन निरूपित किया गया है।हो भी क्यों न!आज मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अपनी लाडली बहना योजना के तहत प्रदेश की करीब एक करोड़ 20 लाख महिलाओं को एक हजार रूपये जेब खर्च के लिए देने वाले हैं।अब हर महीने इन महिलाओं को यह राशि मिलेगी।आज प्रदेश भर में राज्य सरकार की ओर से बड़े बड़े विज्ञापन भी छपवाए गए हैं।इनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कह रहे हैं – मैंने भाई होने के नाते मेरी बहनों को संबल देने का फर्ज निभाया है।बहनों को सशक्त बनाने का आज एक बड़ा संकल्प पूरा हुआ।
सरकार और सत्तारूढ़ दल बीजेपी ने एक हजार रूपये पाने वाली महिलाओं से यह भी कहा है कि वे इस खुशी में अपने घर के बाहर एक दीपक जरूर जलाएं।होगा भी ऐसा ही।करीब सवा करोड़ घरों के आगे दीपक जलेंगे।आप यह भी कह सकते हैं कि एमपी आषाढ़ के महीने में दिवाली मना रहा है।
लेकिन आज एक घर ऐसा भी होगा जिसमें मातम पसरा होगा।इस घर की जवान बेटी ने सरकार के ऐलान पर भरोसा किया था।लेकिन उसका भरोसा कायम नही रह पाया।इसके चलते वह हंसी की पात्र बनी!इसे वह बर्दाश्त नहीं कर पाई। और अपनी जान देकर खुद को रोज रोज होने वाले अपमान से “मुक्त” कर लिया।
आजकल मीडिया बहुत जल्दी में रहता है।इसलिए वह कुछ घंटे में ही बड़ी बड़ी बातें भूल जाता है।और शायद आपको भी याद नहीं होगा?याद भी क्यों हो!आपको उससे क्या लेना देना था?
चलिए मैं आपको बताता हूं!एक सीधी साधी देहाती लड़की थी।नाम था दीप्ति मंडलोई!उम्र थी 19 साल। खरगोन जिले के गोगावां की रहने वाली थी।मध्यम वर्गीय परिवार से थी।पढ़ने में अच्छी थी।इंजीनियर बनना चाहती थी। 12 वीं में अच्छे नंबर आए थे इसलिए उसे इंदौर के एक नामी इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिल गया।
यहीं से शुरू हुई उसकी नई जंग!वह हिंदी माध्यम से पढ़ी थी।अंग्रेजी से उसका वास्ता कम ही रहा था।लेकिन “मामा” ने कुछ महीने पहले ही यह ऐलान किया था कि मध्यप्रदेश में मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी माध्यम से भी होगी इसलिए उसे यह विश्वास था कि अंग्रेजी की कमजोरी उसके आड़े नही आयेगी।वह अपनी मातृभाषा में ही पढ़कर अपना लक्ष्य हासिल कर लेगी।
दीप्ति के बारे में आगे बात करने से पहले सरकार की घोषणा के बारे में जान लेते हैं।मध्यप्रदेश सरकार ने पिछले साल यह ऐलान किया था कि वह अंग्रेजी न समझने वाले छात्रों के लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी माध्यम से भी कराएगी।6 जून 2022 को इस बारे में आदेश निकला।यह भी तय हुआ कि पहले कुछ कालेजों में ही हिंदी माध्यम से पढ़ाई कराई जाएगी।साथ हिंदी वाले छात्रों के लिए 150 सीटें तय की गईं।
उस समय सरकार की ओर से इसका बढ़ चढ़ कर प्रचार किया गया।मामा ने तब कहा था – अपने भांजे भांजियों के लिए वह हिंदी माध्यम से पढ़ाई की व्यवस्था कर रहे हैं।तब यह भी कहा गया था कि सरकार इंजीनियरिंग की किताबों का हिंदी अनुवाद भी करा रही है।विभिन्न विषयों की 20 किताबों का अनुवाद कराने का दावा भी सरकार की ओर से किया गया था।सरकार ने यह घोषणा जून के पहले सप्ताह में की थी।बाद में एक नवंबर 2022 से सत्र शुरू हुआ था।
अक्टूबर 2022 से हिंदी माध्यम से मेडिकल की पढ़ाई भी शुरू करायी गई।उसके लिए भी किताबों का हिंदी अनुवाद कराया गया।सरकार ने खूब अपनी पीठ थपथपाई।खूब चर्चा भी हुई।
प्रदेश के एकमात्र तकनीकी विश्वविद्यालय – राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के सूत्रों के मुताबिक हिंदी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पहली साल 6 कालेज तय किए गए थे।कुल 150 सीटें आरक्षित की गईं थीं।
अब दीप्ति मंडलोई की बात! दीप्ति हिंदी माध्यम से पढ़ी थी।लेकिन इंदौर के कालेज में उसे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ना पड़ा।नतीजा यह हुआ कि वह 8 में से 5 विषयों में फेल हो गई।इस वजह से वह तनाव में थी।लेकिन किसी का ध्यान उसकी ओर नही गया।खासतौर पर कालेज प्रशासन ने दीप्ति जैसे छात्रों के बारे में कुछ नही सोचा।
उधर दीप्ति लगातार तनाव में रही।वह हॉस्टल में रहती थी।किससे अपनी बात कहती?मां बाप को क्या बताती?इसी तनाव में उसने अपनी व्यथा दो पन्नों पर लिखी और 1 जून 2023 को अपने हॉस्टल के कमरे में ही फांसी पर लटक गई।
उसके सुसाइड नोट में सब कुछ लिखा हुआ है।अंग्रेजी न आने की वजह से उसकी हंसी उड़ाई जाती थी।इसी वजह से वह 5 विषयों में फेल हुई।
खबर यह भी आई कि दीप्ति की मौत के दो दिन बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इंजीनियरिंग कालेज में प्रदर्शन किया।परिषद ने सवाल उठाया कि कालेज प्रशासन ने ऐसे छात्रों पर ध्यान क्यों नही दिया।क्यों उनके लिए अलग से व्यवस्था नही की गई।उधर कालेज प्रशासन ने जांच का ऐलान करके पल्ला झाड़ लिया।
सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इंदौर पुलिस ने आत्महत्या करने वाली छात्रा के सुसाइड नोट को दबा दिया।उसे सार्वजनिक ही नही होने दिया।बताया गया है कि कालेज प्रबंधन नही चाहता है कि दीप्ति जो दो पन्ने में लिख गई है वह आम लोग जानें।उसने “ऊपरी दबाव” डाल कर सुसाइड नोट को दफन करा दिया।
और फिर… दीप्ति कौन किसी बड़े आदमी की बेटी थी जिसके लिए मीडिया आगे की खोजबीन करता।या फिर पुलिस सच सामने लाने की कोशिश करती।छोटी जगह से आई एक लड़की मर गई तो मर गई!क्या फर्क पढ़ता है? फर्क तो उन मां बाप को पड़ा होगा जिनकी जवान बेटी सिर्फ भाषा की कमजोरी की वजह से दुनियां से असमय ही चली गई।
एक बार फिर हिंदी और राज्य सरकार की बात!एमपी की बीजेपी सरकार ने पिछले सालों में हिंदी के नाम पर बहुत कुछ किया है।2011 में सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नाम पर हिंदी विश्वविद्यालय स्थापित करने का ऐलान किया था।6 जून 2013 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने इस विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी थी।उसी साल अगस्त के महीने से विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू हुई।इस विश्वविद्यालय में तकनीकी,चिकित्सा के साथ साथ कला और वाणिज्य से जुड़े विषयों की शिक्षा हिंदी माध्यम से दी जानी थी।दस साल बाद भी यह विश्वविद्यालय अपनी पहचान नहीं बना पाया है। हां शिक्षा के अलावा कई इतर कारणों से यह चर्चा में रहता आया है।
मेडिकल और इंजीनियरिंग की हिंदी माध्यम से पढ़ाई भी गति नही पकड़ पाई है।सरकारी सूत्रों के मुताबिक इजीनियरिंग में हिदी के लिए 150 सीटें तय हुई थीं।लेकिन 5 प्रतिशत छात्र भी नही आए।उधर हिंदी में पढ़ाने के लिए शिक्षक भी नही हैं।जो किताबें अनुवाद करके छपवाई गईं थीं उनमें बहुत खामियां हैं।इसलिए सरकार की घोषणा सिर्फ घोषणा भर रह गई।किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।अब तो इंजीनियरिंग से भी छात्रों का मोहभंग सा हो गया है।इसी के चलते प्रदेश के कई कालेजों पर ताला पड़ चुका है।
ऐसा ही हाल हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई का है।मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित मेडिकल यूनिवर्सिटी के पास यह आंकड़ा ही नही है कि कितने छात्र हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं।जबलपुर स्थित यह यूनिवर्सिटी भी अपने घपलों की वजह से ज्यादा चर्चा में है।
लेकिन सरकार को इससे क्या लेना देना!वह डंके की चोट पर कह रही है कि हिंदी के लिए वह कितना कुछ कर रही है।विश्व हिंदी सम्मेलन भी भोपाल में करा चुकी है।करोड़ों का खर्च हिंदी पर हो रहा है।
अब एक दीप्ति ने हिंदी ही जानने की वजह से अपनी जान दे भी दी तो क्या फर्क पड़ता है?
सरकार तो उत्सव मना रही है।इवेंट कर रही है।आषाढ़ में दिवाली मनवा रही है।करोड़ों महिलाओं को “खुश” कर रही है।ऐसे में एक लड़की के मरने से क्या फर्क पड़ता है। मुख्यमंत्री ने तो अपना “फर्ज” हिंदी में पढ़ाई की घोषणा करके निभा ही दिया है!
अब तो आप मानेंगे कि अपना एमपी गज्जब है!है कि नहीं!फर्ज पूरा हो गया अब कोई मरे या जिए!
साभार:अरुण दीक्षित