कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया है.
पार्टी के लिए हर तरफ़ से निराशा भरने वाली ख़बरों के बीच ये जान फूँकने वाली ख़बर से कम नहीं है.
बीजेपी हार गई है लेकिन उसे इस हार से उबरना इतना मुश्किल नहीं होगा.
लेकिन कांग्रेस यहाँ हार जाती तो 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का मुक़ाबला पूरे दमखम के साथ शायद ही कर पाती.
कर्नाटक में कांग्रेस का बहुमत हासिल करना उस ट्रेंड का भी दोहराव है जिसमें 1985 के बाद यहाँ कोई भी सरकार दोबारा चुनकर नहीं आई है.
भारतीय जनता पार्टी के लिए 2008 का कर्नाटक विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक था. यह पहली बार था, जब बीजेपी ने दक्षिण भारत के एक राज्य में अपनी सरकार बनाई थी.
224 सदस्यों वाली कर्नाटक विधानसभा में बीजेपी को 2008 के चुनाव में 110 सीटें मिली थीं.
बीजेपी बहुमत से ज़्यादा पीछे नहीं थी, लेकिन चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
तब कर्नाटक में बीजेपी की कमान बीएस येदियुरप्पा के पास थी और वही मुख्यमंत्री बने थे.
मुख्यमंत्री बने रहने के लिए येदियुरप्पा को कुछ और विधायकों की ज़रूरत थी और यह काम बेल्लारी के रेड्डी भाइयों ने किया था.
रेड्डी भाइयों ने तब छह निर्दलीय विधायकों को बीजेपी के पाले में किया था और इसके साथ ही येदियुरप्पा के पास सामान्य बहुमत का प्रबंध हो गया था.
बीजेपी के पाले में इन विधायकों को लाने की प्रक्रिया को ‘ऑपरेशन कमल’ नाम दिया गया था.
इसके बाद से ही ‘ऑपरेशन कमल’ काफ़ी चर्चित हुआ था. छह विधायकों में से पाँच को येदियुरप्पा कैबिनेट में मंत्री बनाया गया था.
लेकिन रेड्डी भाइयों से मदद लेकर बीजेपी सरकार बनते ही कठघरे में आ गई थी, क्योंकि इन पर अवैध खनन से पैसा बनाने के गंभीर आरोप थे.
इसी का नतीजा था कि येदियुरप्पा को तीन साल बाद ही कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. इससे पहले बीएस येदियुरप्पा 2007 में सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे.
येदियुरप्पा जेडीएस के समर्थन वापस लेने के कारण विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाए थे और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
कर्नाटक में बीजेपी का परचम लहराने में येदियुरप्पा का सबसे बड़ा योगदान माना जाता हैयेदियुरप्पा ही बीजेपी के खेवनहार
कर्नाटक में अब तक केवल तीन मुख्यमंत्री ही पाँच साल का कार्यकाल पूरा कर पाए हैं और ये तीनों मुख्यमंत्री कांग्रेस के रहे हैं.
ये तीनों मुख्यमंत्री हैं- एस निजलिंगप्पा (1962-1968), डी देवराजा उर्स (1972-1977) और सिद्धारमैया (2013-2018).
अवैध खनन मामले में कर्नाटक लोकायुक्त की रिपोर्ट में येदियुरप्पा का भी नाम था. येदियुरप्पा इस्तीफ़ा नहीं देना चाहते थे, लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं था. 2012 में येदियुरप्पा बीजेपी से अलग हो गए.
कर्नाटक में 2008 से पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी का वोट शेयर 30% से 36% के बीच रहा है जबकि इसी अवधि में प्रदेश में कांग्रेस का वोट शेयर 35 से 38 प्रतिशत के बीच रहा है.
दूसरी तरफ़ जनता दल (सेक्युलर) का वोट शेयर 18 से 20 प्रतिशत के बीच रहा है. तीनों पार्टियों का वोट शेयर देखें, तो जातीय गोलबंदी की अहम भूमिका रही है.
कर्नाटक में बीजेपी का एक बड़ी पार्टी के रूप में उभार 1990 के दशक से शुरू होता है और इस उभार में दो कारकों को ख़ासा अहम माना जाता है.
पहला कारण यह कि कर्नाटक के प्रभुत्वशाली समुदाय लिंगायत-वीरशैव का समर्थन बीजेपी को मिला है. प्रदेश में बीजेपी के दिग्गज नेता येदियुरप्पा भी इसी समुदाय से हैं.
हिन्दुत्व की राजनीति
दूसरा कारण यह बताया जाता है कि बीजेपी कर्नाटक में हिन्दुत्व की राजनीति को मज़बूत करने में कामयाब रही है.
इसके अलावा बीजेपी को एक और प्रभुत्व वाली जाति वोक्कालिगा से भी बिखरा हुआ समर्थन मिलता रहा है.
कर्नाटक के मध्य वर्ग के साथ अनुसूचित जाति और जनतातियों में भी बीजेपी एक हद तक पैठ बनाने में कामयाब रही है.
लेकिन कर्नाटक में पिछले तीन विधानसभा चुनाव को देखें, तो यह स्पष्ट होता है कि बीजेपी जाति और मजहब के समीकरण में भी स्पष्ट बहुमत हासिल करने में नाकाम रही है.
कर्नाटक में बीजेपी ने 2008 और 2019 में दो बार सरकार बनाई, लेकिन किसी भी चुनाव में उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिला.
2008 में बीजेपी को सबसे ज़्यादा 110 सीटें मिली थीं और 2018 में 105 सीटें. 2018 में कांग्रेस को 78 और जनता दल सेक्युलर को 37 सीटें मिली थीं.
दोनों बार बीजेपी प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर तो उभरी, लेकिन बहुमत से भी दूर रही.
2013 के विधानसभा चुनाव में तो बीजेपी मुँह के बल गिर गई थी. तब बीएस येदियुरप्पा बीजेपी छोड़ अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे थे.
बीजेपी 2013 में 40 सीटों पर सिमट कर रह गई थी.
बीजेपी ने 2008 और 2019 में सरकार बनाने के लिए दूसरी पार्टियों या जिन निर्दलीय विधायकों को अपने पाले में किया, वे अलग-अलग जातियों से थे.
ये जातियाँ थीं- ब्राह्मण, लिंगायत-वीरशैव और इनकी उपजातियाँ, वोक्कालिगा, कुरुबास, छोटी पिछड़ी जातियाँ और अनुसूचित जनजाति.
लिंगायतों का समर्थन
ये सभी विधायक उन इलाक़ों से थे, जहाँ बीजेपी के लिए जीत मुश्किल रही है.
इन सभी विधायकों का इलाक़े में सामाजिक आधार था और इनके पास बीजेपी को उन इलाक़ों में लोकप्रिय बनाने की क्षमता थी.
कांग्रेस और जेडीएस से जो विधायक इस्तीफ़ा देकर बीजेपी में आए थे, वे बीजेपी के टिकट से फिर से चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे.
कहा जाता है कि यह बीजेपी की रणनीति का हिस्सा था कि अलग-अलग जाति के विधायकों को तोड़ो और उनके ज़रिए उन इलाक़ों में पहुँचो, जहाँ अपने दम पर पहुँचना मुश्किल है.
बीजेपी नहीं चाहती थी कि वह केवल लिंगायतों के वोट पर निर्भर रहे.
2018 में कांग्रेस और जेडीएस ने साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन 14 महीने के भीतर ही सरकार गिर गई.
बीजेपी और येदियुरप्पा पर विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त के आरोप लगे.
2008 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे ज़्यादा बढ़त मुंबई कर्नाटक इलाक़े में मिली थी.
इस इलाक़े में प्रभुत्वशाली लिंगायत समुदाय संख्या के लिहाज से काफ़ी मज़बूत है.
1994 में बीजेपी को कर्नाटक विधानसभा में जब 40 सीटें मिली थीं, तो इस इलाक़े में उसे महज़ चार सीटों पर ही सफलता मिली थी.
‘धोखे’ की लहर
लेकिन जब बीजेपी की कमान येदियुरप्पा के पास आई, तो 2004 में मुंबई कर्नाटक इलाक़े में उसे 24 सीटों पर जीत मिली और 2008 में 34 सीटों पर.
कहा जाता है कि 2008 में बीजेपी को सबसे ज़्यादा सीटें इसलिए मिलीं, क्योंकि येदियुरप्पा इस भावना को फैलाने में कामयाब रहे थे कि एचडी कुमारस्वामी (वोक्कालिगा समुदाय) ने उनके साथ धोखा किया है.
कर्नाटक में लिंगायतों की आबादी क़रीब 17 फ़ीसदी और वोक्कालिगा 12 फ़ीसदी हैं. पारंपरिक रूप में लिंगायत बीजेपी का समर्थन करते रहे हैं और वोक्कालिगा कांग्रेस का.
2007 में कुमारस्वामी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने से इनकार कर दिया था, जबकि बीजेपी से सत्ता साझेदारी को लेकर समझौता हुआ था.
कुमारस्वामी के इस रुख़ का इस्तेमाल येदियुरप्पा ने लिंगायतों के वोट को लामबंद करने में बख़ूबी किया था और 2008 में बीजेपी ने पहली बार अपनी सरकार बनाई थी.
2012 में जब येदियुरप्पा ने बीजेपी छोड़ी और अपनी पार्टी बनाई तब भी उन्होंने इस इलाक़े में यही कैंपेन चलाया था कि बीजेपी ने उनकी पीठ में छुरा भोंका है, इसलिए लोग सबक़ सिखाएँ.
2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए चुनावी नतीजा बेहद ख़राब रहा था. इस इलाक़े में बीजेपी को महज़ 13 सीटों पर जीत मिली थी. 2018 के विधानसभा चुनाव की तुलना में 23 सीटों का नुक़सान हुआ था. बीजेपी के वोट शेयर में भी 8.5 फ़ीसदी की गिरावट आई थी.
हालाँकि येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पार्टी को भी महज़ दो सीटों पर ही जीत मिली थी, लेकिन वोट शेयर 10.3 फ़ीसदी रहा था.
कहा गया कि लिंगायतों ने बीजेपी के विकल्प के रूप में केजेपी के बदले कांग्रेस को देखा.
कर्नाटक में दक्षिण कन्नड़ और उडुपी ज़िले को हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहा जाता है. दक्षिण कन्नड़ की आठ सीटों और उडुपी की पाँच सीटों पर बीजेपी का वोट शेयर 1989 से ही बढ़ता रहा है.
2008 में तो बीजेपी को इन दो ज़िलों की 13 में से 10 सीटों पर जीत मिली थी.
लिंगायत और बीजेपी
कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे देवराज उर्स के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जो सोशल इंजीनियरिंग की थी, उसी का नतीजा था कि लिंगायत बीजेपी की ओर झुकने लगे थे.
देवराज उर्स ने ग़ैर लिंगायत और ग़ैर वोक्कालिगा जातीय समीकरण का गेम खेला था.
देवराज उर्स ने प्रदेश में भूमि सुधार भी किया था और इससे ऊँची जातियों की प्रभुत्व को चुनौती मिली थी.
देवराज उर्स की इस सोशल इंजीनियरिंग से कांग्रेस को काफ़ी मज़बूती मिली थी.
कहा जाता है कि देवराज उर्स के कारण ही कर्नाटक में ऊँची जातियों ने कांग्रेस से दूरी बना ली थी.
जब प्रदेश में जनता पार्टी की कमान रामकृष्ण हेगड़े के पास आई, तो कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरी और लिंगायतों का रुझान जनता पार्टी की ओर बढ़ा था.
रामकृष्ण हेगड़े ख़ुद ब्राह्मण थे, लेकिन उनके नेतृत्व में जनता पार्टी और फिर जनता दल को लिंगायतों का समर्थन मिलता रहा.
ऐसा नहीं है कि लिंगायत शुरू से ही बीजेपी के साथ रहे हैं. 1983 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 110 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे लेकिन जीत महज़ 18 सीटों पर मिली थी.
1985 और 1989 में बीजेपी ने 116 और 118 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन जीत महज़ दो और चार सीटों पर मिली थी.
बाद में जनता दल टूट गया था और देवगौड़ा मुख्यमंत्री बन गए थे.
हेगड़े की हमदर्दी
हेगड़े जिन्हें लिंगायतों के हमदर्द के रूप में देखा जाता था, उन्हें देवगौड़ा ने अपनी पार्टी से निकाल दिया था.
रामकृष्ण हेगड़े की लोकशक्ति पार्टी ने प्रदेश में बीजेपी के साथ गठबंधन किया और इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को मिला.
हेगड़े के साथ लिंगायत थे और इसका फ़ायदा बीजेपी को भी मिला. 1999 में बीजेपी ने 144 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और 44 सीटों पर जीत मिली थी. इस दौरान येदियुरप्पा दूसरी बार कर्नाटक बीजेपी के अध्यक्ष बने थे.
2004 में बीजेपी ने कर्नाटक में सभी 224 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और रिकॉर्ड 79 सीटों पर जीत मिली थी.
इन 79 विधायकों में लगभग सभी नए चेहरे थे और उत्तरी कर्नाटक के लिंगायत थे.
2008 में जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने, तो लिंगायत पूरी तरह से उनके पीछे लामबंद हो गए थे.
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि कर्नाटक बीजेपी में येदियुरप्पा से बड़ा कोई नेता नहीं हुआ और इतने अलोकप्रिय होने के बावजूद पार्टी में उनसे बड़ा नेता कोई नहीं है.
नीरजा चौधरी कहती हैं, ”नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी येदियुरप्पा की ताक़त का अंदाज़ा है. 2013 में येदियुरप्पा जब अपनी अलग पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव में उतरे, तो बीजेपी 40 सीटों पर सिमट गई थी. 2014 में जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम उम्मीदवार बनाया, तो येदियुरप्पा को फिर से पार्टी में लाया गया. येदियुरप्पा के आने का बीजेपी को 2014 के आम चुनाव में फ़ायदा भी मिला.”
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कर्नाटक की कुल 28 सीटों में से 17 सीटों पर जीत मिली थी.
हालाँकि 2009 की तुलना में उसे दो सीटें कम मिली थीं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कर्नाटक में 25 सीटों पर जीत मिली थी.
नीरजा चौधरी कहती हैं, ”बीजेपी के साथ कर्नाटक में समस्या है कि येदियुरप्पा के अलावा उनके पास कोई और नेता नहीं है. बीजेपी की मज़बूती लिंगायत हैं और लिंगायत समुदाय का समर्थन येदियुरप्पा के कारण रहा है. येदियुरप्पा की घटती लोकप्रियता के कारण लिंगायतों की वफ़ादारी बीजेपी के साथ स्थायी नहीं रह सकती. लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से ये अंदाज़ा लगाना कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी की हार होगी, यह कहना जल्दबाज़ी है. देश भर में ऐसा होता है कि विधानसभा और लोकसभा के नतीजे अलग-अलग आते हैं. ऐसा कर्नाटक में भी 2014 और 2019 में देखा जा सकता है.”
कर्नाटक को बीजेपी के लिए दक्षिण भारत का गेटवे कहा जाता था, लेकिन पार्टी यहाँ से आगे नहीं बढ़ पाई. आख़िर ऐसा क्यों हुआ?
नीरजा चौधरी कहती हैं, ”बीजेपी के पास कर्नाटक में येदियुरप्पा जैसा कोई नेता दक्षिण भारत के बाक़ी राज्यों में नहीं है. दक्षिण भारत में मोदी जनता से अनुवादक के भरोसे संपर्क साधते हैं. हिंदुत्व की राजनीति का ज़ोर भी दक्षिण भारत में उत्तर भारत की तरह नहीं रहा है और यहाँ की क्षेत्रीय पार्टियाँ ज़्यादा मज़बूत हैं. ऐसे में बीजेपी के लिए कर्नाटक दक्षिण भारत का दरवाज़ा बनकर भी बाकी राज्यों के लिए नहीं खुल पाया.”sabhar,BBC