-अशोक वाजपेयी:
इधर एक नया भारत बनाने का दावा बहुत क्रूर और नृशंस ढंग से कुछ शक्तियां करने लगी हैं. उनका दावा यह भी है कि एक एकनिष्ठ, ग़ैर-समावेशी भारत, जिसमें बहुसंख्यक पूरे नागरिक होंगे और अल्पसंख्यक दोयम दर्ज़े के नागरिक, असली भारत-विचार है. इस सिलसिले में ‘भारत-विचार के बचाव में’ विषय पर ‘अनहद’ द्वारा हाल ही में आयोजित परिसंवाद प्रासंगिक था. उसमें हुई चर्चा में मुझ लेखक के अलावा इतिहासकार, अर्थशास्त्री और पत्रकार शामिल थे.
मुझे लगा कि भारत-विचार को जो ठोकरें, चोटें, घाव और हमले इधर एक दशक में लगे हैं उन्हें हिसाब में लेना ज़रूरी है. इस पर सोचना भी ज़रूरी है कि क्या भारत-विचार, जिसके केंद्र में समावेशी भारत है, सिर्फ़ कल्पना या अवधारणा भर है, महान विचार या कल्पना जबकि भारत का यथार्थ, सामाजिक यथार्थ, व्यवहार आदि उससे हमेशा काफ़ी दूर रहे हैं? क्या यह विचार आधुनिकता से उपजा है और इसकी भारतीय परंपरा में कोई उपस्थिति या सक्रियता नहीं रही है?
जो समावेशिता इस विचार के केंद्र में है उसका निषेध संसार में हर कहीं हो रहा है. अगर आर्थिक दर में वृद्धि, नागरिकों को बढ़ती हुई सुख-सुविधाएं, यातायात में अपार सुगमता, आत्मनिर्भरता, विश्व प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास आदि, बिना समावेशिता के संभव लग रहे हैं तो समावेशी भारत, भारत-विचार की किसको दरकार है?
इस समय भारतीय समाज में कई भीषण और गहरी दरारें पड़ चुकी हैं- जो पहले से थीं उन्हें और चौड़ा किया जा रहा है. सड़कें भर चौड़ी नहीं हुई हैं, सामाजिक दरारें भी चौड़ी की जा रही हैं, की गई हैं. इस समय हिंसा-हत्या-बलात्कार-बुलडोजिंग-लिंचिंग-एनकाउंटर, बिना दंड के बरसों जेल की सज़ा आदि सामाजिक कर्म के उचित और लोकप्रिय प्रकार बन गए हैं. बहुत तरह की हिंसा को अगर क़ानूनी नहीं, तो व्यापक सामाजिक मान्यता मिल गई है.
झूठ-घृणा-भेदभाव-अत्याचार-अन्याय नई सक्षम टेक्नोलॉजी के द्वारा इतनी तेज़ी से व्यापक किए जा रहे हैं कि वे लगभग सचाई बनते जा रहे हैं.
इस राजनीति ने असहमति, प्रश्नांकन, विरोध-प्रतिरोध, वाद-विवाद आदि को लगभग द्रोह क़रार दिया है. लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पूरी निर्लज्जता से दुरुपयोग, लोकतंत्र की कटौती करने व उसके बुनियादी मूल्यों और मर्यादाओं को दरकिनार करने के लिए किया जा रहा है. परंपरा, इतिहास की दुर्व्याख्याएं, विस्मृति फैलाने, जातीय स्मृति अपदस्थ करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है.
भारत-विचार क्या है इस पर कुछ कहने के पहले यह सोचना ज़रूरी है कि यह विचार बना और विकसित कैसे हुआ है. इसका प्रबल और अकाट्य साक्ष्य है कि इस विचार को वेद-पुराण-उपनिषदों-महाकाव्यों की परंपरा से आरंभ हुआ माना जा सकता है. भारतीय दर्शनों, हिंदू-बौद्ध-जैन-इस्लाम-सिख-ईसाइयत आदि धर्मों में सन्निहित तत्वचिंतन और विवेक, अन्य सभ्यताओं से भारत के संवाद, भक्ति काव्य, गांधार स्थापत्य, मिनिएचर कला, ख़याल गायकी आदि कलारूपों, आधुनिकता और स्वतंत्रता-संग्राम, भारतीय स्वतंत्रता, लोकतंत्र और संविधान ने इस विचार के रूपायन में अपनी भूमिका निभाई है. भारत-विचार भारतीय सभ्यता की उपलब्धि और सत्व है.
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत-विचार के मुख्य तत्व ये हैं: बहुलता और समावेशिता, असहमति-प्रश्नवाचकता-संवाद की जगह, अन्यता का निषेध, आदान-प्रदान-खुलापन-ग्रहणशीलता, सर्वधर्मसम भाव, सामाजिक गरिमा और व्यक्ति की गरिमा के द्वंद्व का समाहार और अंततः सबके लिए स्वतंत्रता-समता और न्याय.
इधर जो हो रहा है उससे ज़ाहिर है कि बहुलता को बहुसंख्यकता से अपदस्थ करने की योजना, असहमति-प्रश्नांकन-संवाद को अपराध और द्रोह बनाकर दंडित करने की व्यापक कोशिश; हर दिन नए दूसरे बनाने की चाल; सिर्फ़ टेक्नोलॉजी स्वागत और खुलेपन का, ज्ञान का अनादर, हिंदुत्व का प्रभुत्व और अन्य धर्मों को दोयम दर्ज़ा देने का अभियान; निजी गरिमा का दैनिक हनन, स्वतंत्रता-समता-न्याय में हर दिन कटौती आदि हो रहे हैं. यह भी ज़ाहिर है कि इन दो विचारों के बीच संघर्ष लंबा चलेगा और उसे चुनावों तक महदूद अवधि के अंतर्गत देखा-समझा नहीं जा सकता.
इस वैचारिक संघर्ष के लिए हमें एक नई संग्राम-भाषा की भी दरकार है और इस संदर्भ में हम गांधी जी की अहिंसक संग्राम-भाषा का अपने समय के लिए पुनराविष्कार कर सकते हैं.
हर स्तर पर, निजी-सामाजिक-संस्थागत स्तरों पर, कई बार अकेले पड़ते हुए भी, हमें हिंसा-हत्या-बलात्कार-घृणा-झूठ की राजनीति और सामाजिक व्यवहार से भौतिक-बौद्धिक-सर्जनात्मक अहसयोग करना चाहिए. झूठों के घटाटोप में, झूठों को और घृणा को फैलाने में सत्ता-धर्म-मीडिया-बाज़ार के अभूतपूर्व और सरासर अनैतिक गठबंधन के रहते हमें सच पर इसरार, सत्याग्रह करना चाहिए इस यक़ीन के साथ कि सच या और उसका साथ कभी अकारथ नहीं जा सकते. हमें सविनय अवज्ञा का सहारा लेना चाहिए.
हमें ऐसे सभी सार्वजनिक प्रयत्नों, अभियानों, क़ानूनी षड्यंत्रों आदि से अपने को न सिर्फ़ अलग रहना चाहिए बल्कि उनका निजी और संगठित विरोध कर सकना चाहिए जो भारत-विचार को खंडित करते हैं फिर वह उत्तर प्रदेश में बुलडोज़र-एनकाउंटर की व्यापकता हो, पाठ्यपुस्तकों में ऐतिहासिक तथ्यों को हटाना हो, ज्ञान का अपमान और उपहास हो.
फिर गांधी जी को याद करें, तो यह स्पष्ट है कि हम एक भयग्रस्त समाज होते जा रहे हैं: बिना निर्भयता के हम भारत-विचार का बचाव नहीं कर सकते. हमारी परंपरा, सभ्यता और जातीय विवेक हमें निर्भयता का पाठ सिखाते रहे हैं. समय आ गया है कि हम निर्भय होकर प्रतिरोध करें. क्षत-विक्षत होकर भी भारत-विचार है और उसकी अपराजेयता में हमारा विश्वास सघन आत्मालोचन के बावजूद क़तई घटना नहीं चाहिए.
मुकुल संगीत
दशकों बाद उनके गायन की एक सभा होने जा रही थी. विशेष प्रसंग यह भी है कि इन दिनों उनके गुरु-पिता कुमार गंधर्व की जन्मशती है और हम सभी को यह उत्सुकता थी कि इस बीच उनके बेटे मुकुल शिवपुत्र ने किस तरह का अपना संगीत विकसित किया है. कुछ मित्रों से, जिनमें फ़िल्मकार कुमार शहानी शामिल हैं, यह इधर सुना था कि मुकुल बहुत असाधारण गायक के रूप में सक्रिय हैं. सो, विवान सुंदरम की बड़ी शोकसभा से लगभग भागकर कमानी सभागार गए जहां यह गायन-सभा आयोजित थी. लगभग एक घंटा देर से शुरू हुई. लगभग ठसाठस भरे सभागार में प्रतीक्षा के अलावा बेचैनी और आशंका भी थी.
मुकुल शिवपुत्र ने अंततः जो गाया उसमें उनकी असाधारणता पूरी तरह से प्रगट हुई पर किसी बीहड़ या विचित्र ढंग से नहीं. वह मधुर लालित्य और उत्कट खोज के अनोखे संमिश्रण में विन्यस्त हुई. संगीत में लालित्य का अविरल प्रवाह था पर जैसे उसमें अंतःसलिल बेचैनी भी थी. जब-तब यह भी लगा कि गायक स्वयं अपने किए या गाए पर कुछ विस्मय से भर रहा है. इस भाव ने संगीत की मोहकता और बढ़ा दी.
अगर यह यात्रा चलती रही और परिपक्वता की ओर अग्रसर रही तो इसमें संदेह नहीं कि कुमार गंधर्व की परंपरा में अनुगमन या अनुकरण नहीं, विस्तार होगा और एक तरह का अद्वितीय मुकुल संगीत हम पहचान पाएंगे. मुकुल ने अपनी अंतिम प्रस्तुति में जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध गीत ‘बीती विभावरी, जाग री’ भी पूरा पिरोया पर उससे कोई नई अर्धाभा नहीं आई.(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)
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