क्या राजनीति पारस पत्थर होती है?

 

राजनीति का पारस
क्या राजनीति पारस पत्थर होती है? प्रश्न इसलिए उठता है कि जिस व्यक्ति को हम झोला लटकाए घूमते देखा करते थे, वो राजनीति में आते ही स्कार्पियो, सफारी या एंडेवर में दिखने लगता है। जिस दुकान से घर नहीं चल पाता था, अचानक बंगला बन जाता है। जो खेत साल भर खाने का अनाज नहीं दे पाते, राजनीति में प्रवेश करते ही वो सोना उगलने लगते हैं। कई लोगों के खेत तो हीरे भी उगलते हैं, लेकिन ऐसा तब होता है, जब उनकी गाड़ी में लाल बत्ती लग जाती है।
कुल मिलाकर देखा जा रहा है कि राजनीति में प्रवेश करते ही कुछ अपवादों को छोडक़र, लोगों के रंग-ढंग ही बदल जाते हैं। संपत्ति में हर साल बेइंतहा इज़ाफ़ा होने लगता है। चुनाव लडऩे वाले हर पाँच साल में वे अपनी संपत्ति का ब्योरा तो चुनाव आयोग को देते हैं, लेकिन आयोग संपत्ति के इन आँकड़ों को सार्वजनिक करने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता। वहां यह नहीं बताना होता कि इतनी सम्पत्ति कैसे आई? राजनीति में आने के बाद दिन दूनी, रात चौगुनी सम्पत्ति में वृद्धि कैसे हुई?
जब वोट चाहिए होते हैं, चुनाव जीतना होता है, तो बड़े-बडे वादे करते हैं। बंजर ज़मीन पर फसल लगवा देंगे। पेड़ लगवा कर उनकी डालियों पर फूल महका देंगे। पहाड़ों को कऱीने से सजा देंगे। उन पर चाँद लटका देंगे। सबके सिरों पर नीला आकाश फैला देंगे। सितारों को रोशन करेंगे, हवाओं को गति देंगे। फुदकते पत्थरों तक को पंख लगवा देंगे। और तो और, सडक़ पर डोलती परछाइयों को जि़ंदगी दे देंगे। और जाने क्या- क्या। जीतने के बाद या सत्ता में आने के बाद उनकी संपत्ति तो बढ़ती दिखाई देने लगती है, बाकी जैसे का तैसा ही रह जाता है।
होना तो यह चाहिए कि आय से ज़्यादा संपत्ति जिसकी भी बढ़े, उसे चुनाव लडऩे ही नहीं दिया जाए। अयोग्य ठहरा दिया जाए। दूसरी तरफ संपत्ति घोषित करने में भी गई तरह की गलतियाँ रहती हैं। रिश्तेदारों, जान- पहचान वालों के नाम फैक्ट्रियां, भवन, धंधे होते हैं, किसी एजेंसी को इसका पता भी लगाना चाहिए। ऊपर से खुद ही प्रस्ताव ला-लाकर अपनी तनख़्वाह खुद ही बढ़ा लेते हैं। साथ में भत्ते भी। अपने चुनाव क्षेत्र में जाने का भी इन्हें भत्ता मिलता है। और बाकी जो बेरोजगार थे, वो रोजगार तलाशते रहते हैं। जिनकी आय कम थी, वो बढ़ाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं। आम आदमी की हालत जानने में इनकी कोई रुचि नहीं होती। हां, कुछ लोगों को छोड़, बाकी के लिए तो यह बताने की जरूरत भी नहीं होती कि अचानक कहां से खजाना मिल गया।
परिचितों को कुछ दिन तक आश्वासन दिया जाता रहता है कि बस थोड़ा और इंतजार करो, सबके दिन बदल जाएंगे। लेकिन अधिकांश सुनहरे सपनों में खोकर ही जिंदगी गुजार देते हैं। उनके हिस्से में इंतजार, या फिर रिश्तों में बढ़ती दूरियां ही आती हैं। पहचान भी लेते हैं तो उतनी ही बात होती है, जिसमें उनकी समृद्धि का का मुद्दा न आ सके। सब जानते हैं कि जो व्यक्ति साइकिल भी नहीं ले सकता था, अचानक चार पहिए की गाड़ी कैसे आती है? लेकिन मजाल है नेताजी अपने कुर्ते पर कोई दाग दिखने दें। कुछ पार्टी नेता तो तीन-तीन मकान, दो-तीन गाडिय़ां समेटने के बाद भी कहते दिखते हैं, भाईसाहब, हम तो बहुत ईमानदारी से चल रहे हैं। अब ये तो दिखावा है, मजबूरी है। हमारी पार्टी में ऐसा कुछ नहीं होता, जैसा दूसरी जगह होता है।
अब दिखता तो सब है। जानते सब हैं। कुछ ही बिरले या उन्हें दुर्भाग्यशाली भी कह सकते हैं, जो राजनीति में आकर भी कुछ खास नहीं कर पाते। बाकी को पारस पत्थर मिल जाता है। बस लोहे में लगाओ, सोना बनाओ। एक एकड़ खेत में वैसे पांच क्विंटल अनाज होता हो, पर राजनीति में आते ही उसी खेत में पचास क्विंटल तक पैदावार होने लगती है। हां, बिजनेस भी खूब फलने-फूलने लगते हैं। आयात-निर्यात का बिजनेस भी करोड़ों दिलाने लगता है। क्या आयात होता है और क्या निर्यात? ये मत पूछो। यह भी मत पूछो कि भाई साहब फैक्ट्री कहां हैं? ये मत पूछो कि बिजनेस में अचानक उछाल आया कैसे? यह कमाल वही जान पाते हैं, जो राजनीति में आ जाते हैं। राजनीति के दांव पेंच सीख जाते हैं। यही तो असल राजनीति है। हम राज करें, आप नीति के चक्रव्यूह में उलझ की जीने के लिए संघर्ष करते रहो।
इसलिए न तो मुद्दों की बात करो। न संघर्ष की बात करो। न जनहित की बात करो। कुछ पाना है तो राजनीति करो। हां, दांव-पेंच सीखकर। पारस की पहचान नहीं, तो कुछ नहीं मिलेगा। और हां, अब तैयार हो जाओ। आपके ही बीच में से उठकर जिन्हें पारस मिला है, उनके लिए कुछ करने का मौका आ गया है। उनके खेतों में सौ गुना फसल फिर पांच साल के लिए पैदा करना है। उनकी सम्पत्ति में हजार गुना वृद्धि का चुनावी मौसम आ गया है।
-संजय सक्सेना

Shares