किस काम की ऐसी ‘शाही’ अफसरशाही

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शिवराज की ही मौजूदगी में मुख्यसचिव इकबाल सिंह बैंस के नेतृत्व वाली ब्यूरोक्रेसी की भद पीट दी। अफसरों की फौज ‘मातु भिक्षाम देहि’ वाली मुद्रा में सीतारमण से विभिन्न कामों के लिए फंड की गुहार लगा रही थी। जवाब में केंद्रीय मंत्री ने अफसरों को जो फंडे दिए, उससे सभी भौचक्के रह गए।

छह महीने की सेवावृद्धि पा चुके मध्यप्रदेश के मुख्यसचिव इकबाल सिंह बैंस आज खुश हो रहे होंगे या फिर मंगलवार को केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के सामने अपने अफसरों की फजीहत का अफसोस कर रहे होंगे? यह सवाल भी इतना ही बड़ा है कि क्या वास्तव में शिवराज सरकार अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिए गंभीर है? कम से कम सरकारी मशीनरी या अफसरशाही के शाही अंदाज देखकर तो ऐसा नहीं लगता।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो खैर सदैव जनता के बीच अपनी जीवंत मौजूदगी दर्ज कराते हैं। अपनी पार्टी भाजपा के इस विशेष गुण को उन्होंने पूरी कुशलता एवं समर्पण के साथ अंगीकार किया है। मगर मंगलवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शिवराज की ही मौजूदगी में मुख्यसचिव इकबाल सिंह बैंस के नेतृत्व वाली ब्यूरोक्रेसी की भद पीट दी। अफसरों की फौज ‘मातु भिक्षाम देहि’ वाली मुद्रा में सीतारमण से विभिन्न कामों के लिए फंड की गुहार लगा रही थी। जवाब में केंद्रीय मंत्री ने अफसरों को जो फंडे दिए, उससे सभी भौचक्के रह गए।

पता चला कि अफसरों को यह ही नहीं मालूम था कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट में राज्य को भी करोड़ों की राशि मिली है। सीतारमण की बुद्धिमत्ता पर कोई संदेह नहीं है, इसलिए जब उन्होंने अफसरों को सन्देश दिया कि वह कम से कम मुख्यमंत्री तक सही बात पहुंचाया करें, तो यह यकीन करने का मन होने लगता है कि इस कम्युनिकेशन में कुछ तो बड़ा लोचा चल रहा है। बहुधा और बड़ी संख्या में अफसर केवल अवसर की ताक में रहते हैं। इस वर्ग में बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो ‘राग दरबारी’ के हेडमास्टर की तरह योजना बनाकर उनके लिए पैसा जुगाड़ने में महारत रखते हैं। इस तरफ उनका ध्यान कम ही जाता है कि जो मिला है, उसका कितना उपयोग हो पाया है। चिकने कागजों पर बने वार्षिक प्रतिवेदन तो अक्सर चिकनी-चुपड़ी बातों वाले भ्रमजाल की तरह ही होते हैं। ‘कार्य प्रगति पर है’ और ‘क्रियान्वयन की गति संतोषजनक है’ जैसे लच्छेदार जुमले अब इस कदर एक्सपोज हो चुके हैं कि ऐसी अधिकांश रिपोर्ट पर लोगों का यकीन ही उठ चुका है।

जो अफसर केंद्रीय मंत्री की खरी-खोटी के जवाब में एक भी तर्क पेश नहीं कर सके, क्या उनके भरोसे सरकार यह मानकर चल रही है कि अगले विधानसभा चुनाव में उसे जीत मिल जाएगी? इसी तरह की आत्मरति वाली अफसरशाही ने दिग्विजय सिंह को सत्ता से बाहर कर दिया था। इन अधिकारियों पर अंकुश लगाना उन प्रमुख कारणों में से एक रहा, जिसके चलते शिवराज लगातार दो बार अपनी पार्टी को चुनाव जीताने में सफल रहे थे। तो फिर अब क्या हो रहा है? दिग्विजय के शासनकाल में अफसरों का एक समूह गिरोह बद्ध तरीके से एक राजनीतिक दल के लिए रास्ता साफ करने का आरोपी कहा गया था। क्या ऐसा फिर हो रहा है?

बहरहाल, शिवराज सरकार के लिए यह संतोष का विषय हो सकता है कि उसे ऐसे हालात की जानकारी समय रहते हो गयी। उम्मीद की जा सकती है कि अब केंद्रीय सहायता के लिए अफसर हाथ फैलाने की बजाय वह कागज आगे बढ़ाएंगे, जो वास्तव में इस मदद को पाने के हिसाब से तैयार किए जाएंगे। शिवराज सरकार को इस दिशा में अब और असरकारी तरीके से आगे बढ़ना होगा। यह ठीक-ठीक तय करना होगा कि उसकी आंख-नाक-कान माने जाने वाला अधिकारियों का यह तंत्र सुप्तावस्था वाली अवस्था में क्यों दिख रहा है? सोते हुए को जगाना आसान है, लेकिन जागते हुए भी सोने का स्वांग रचने वाले के लिए ऐसा करना आसान नहीं होता। यह भी ध्यान रखना होगा कि आज तक किसी अपराध के लिए हथियार को सजा नहीं हुई है। हुकूमतें बदल जाती हैं, लेकिन अफसरों के रूप में हुकुमदार बचे रहते हैं। इस पर शिवराज को ही ध्यान देना है।

 

 

लेखक प्रकाश भटनागर( वरिष्ठ पत्रकार)

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