भोपाल/ जबलपुर:

 

स्कूलों का नया शिक्षण सत्र शुरू हो चुका है और अब गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूलों ने अभिभावकों से फीस की मांग शुरू कर दी है और वह भी पूरी फीस.

जबकि हालात पहले से ज्यादा खराब है और इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले साल में भी बच्चों पर बाहर निकलने की पाबंदी रहेगी और ऐसे में शिक्षण व्यवस्था आनलाईन ही रहेंगी.

मध्यप्रदेश सरकार दूसरी लहर खत्म होने के बाद ही अस्पतालों की रेट लिस्ट तय कर पाई और वो भी हाईकोर्ट के आदेश पर.

क्या जनहित के विषय और राहत सरकार को स्वत: लागू करने में दिक्कत होती है?

क्या जन हितैषी मुद्दों के लिए कोर्ट का ही रूख करना पड़ेगा?

क्या सरकार में बैठे अधिकारी और नेता को जमीनी स्तर पर हो रही परेशानियां नहीं दिखती?

क्यों सही समय और उचित समयावधि में सरकार निर्णय नहीं ले पाती?

स्वास्थ्य खर्च पर निर्णय सही समय पर नहीं होने से प्रदेश की जनता अस्पताल और दवाईयों के खर्च में पहले से ही पिस चुकी है और अब बारी शिक्षा क्षेत्र की है, जहाँ पर सरकार अब भी मौन है.

पिछले साल से ज्यादा खराब हालात के बावजूद सरकार ने स्कूलों को कोई भी निर्देश नहीं दिए है.

जहाँ पिछले वर्ष सिर्फ ट्यूशन फीस ही स्कूलों द्वारा ली गई थी, इस वर्ष स्पष्ट निर्देश के अभाव में पूरी फीस मांगी जा रही हैं.

क्या जिला शिक्षा अधिकारी को ये सब नहीं दिख रहा?

क्यों नहीं वह सरकार से निर्देश लेकर सही समय पर घोषणा कर अभिभावकों को राहत प्रदान करते?

इस साल परेशानियां ज्यादा है तो सरकार को स्वमेव ही स्कूलों को सिर्फ ट्यूशन फीस लेने के निर्देश देने चाहिए.

मानवता के नाते टैक्स छूट वाली संस्थायों द्वारा संचालित स्कूलों को जितनी छूट संभव हो प्रदान करनी चाहिए.

लेकिन जिस देश में स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मानवता के क्षेत्र मुनाफाखोरी के अड्डे बन गए हैं, वहाँ अपने मन से कोई राहत नहीं देता. बहाना बनाया जाता है, सरकार घोषणा करें तो देंगे.

सरकार ऐसी कि उसे ज्वलंत और जन हितैषी मुद्दों को लागू करने के लिए कोर्ट का आदेश चाहिए तो फिर कहाँ है लोकतंत्र?

देर से दी गई राहत, राहत नहीं मजाक है और इसीलिए शिक्षण क्षेत्र में सरकार को तुरंत फीस पर राहत की घोषणा करनी चाहिए ताकि स्कूल बहाने न बनाएं.।

*लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर

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