सांसों की कीमत तुम क्या जानो बाबू…

 

 

सांसों की कीमत तुम क्या जानो बाबू…
देव कुण्डल:
इंदौर में कोरोना पीड़ित मरीजों की सांसें टूटने की एक बड़ी वजह यह भी है कि सांसों की जोड़ने वाली प्राणवायु यानी ऑक्सीजन कम पड़ रही है। भिलाई से दो टैंकर ऑक्सीजन इंदौर पहुंची तो एक बार फिर आपदा में उत्सव का अनुसरण देखने को मिला। कभी कुंभ, कभी चुनाव तो कभी ताली-थाली…! यह सब महामारी से लड़ने या उसे रोकने के लिए प्रचार के सिवाय कुछ नहीं है। ऑक्सीजन के टैंकर 700 किमी का सफर तय कर जल्दी पहुंचे इसलिए बिना रूके चलाए गए। ड्रायवर ने रोजा भी टैंकर में ही खोला। अधिकारियों ने प्रचारित कराया कि हर घंटे टैंकर की लोकेशन ले रहे हैं। आगे-पीछे सुरक्षा कर्मचारी चल रही हैं। मरीजों को ऑक्सीजन मिलने में विलंब न इसलिए टोल पर भी कहीं नहीं रूके ताकि एक-एक सेकंड बचाया जा सके। लेकिन यह बेहद दु:खद है कि जैसे ही टैंकर इंदौर पहुंचा उसे गुब्बारों और हार-फूल से सजाया गया। नेता और अधिकारियों ने टैंकर के साथ फोटो खिंचाने में घंटाभर बर्बाद कर दिया। आमदा के समय क्या फोटोबाजी में वक्त जाया करना जरूरी था? मरीज के लिए ऑक्सीजन का महत्व क्या है यह तुम क्या समझोगे बाबू? सांसों की डोर टूटने के लिए एक पल ही काफी होता है। अस्पतालों में जब मरीज ऑक्सीजन के लिए तड़फ रहे हों तो क्या दिखावा करना या श्रेय लेना लाजिमी है? अभी समय ऐसा है कि किसी नए अस्पताल या नई एम्बुलेंस का शुभारंभ भी बिना किसी औपचारिता के करना चाहिए। ऐसे गंभीर हालात में टैंकर को सजाकर फोटो खिंचाना अमानवीय सा है। उम्मीद है शासन-प्रशासन के अंग अब ऐसी गलती नहीं दोहराएंगे।

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