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- प्रकाश भटनागर :-
आखिरकार घुटने पेट की तरफ मुड़ ही गए। वह भी इस एंगल में कि उनकी पेट से आगे की दिशा भी साफ देखी जा सकती है। कोई अंतरिक्ष एजेंसी जब प्रक्षेपण की प्रक्रिया करती है तो उसके लिए काउंटडाउन काफी घंटे पहले से शुरू कर दिया जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया को सबसे ज्यादा तवज्जो काउंट डाउन समाप्त होने के नजदीक आते क्षणों में ही दी जाती है। मुनव्वर राणा के कट्टरपंथी इरादों की मिसाइल का काउंटडाउन तो काफी पहले ही शुरू हो चुका था। उनकी कुछ रचनाओं में मजहबी कट्टरपंथ की बू साफ महसूस होती थी। फिर अगला चरण तब आया, जब शायर साहब की दोनों बेटियां सीएए और एनसीआर के खिलाफ सड़क पर उतर आईं
राणा की बेटियों, उरूसा और फौजिया को भी लोकतंत्र में अपनी बात रखने का हक है। मगर वह दो व्यवस्थाओं के खिलाफ उन लोगों के समर्थन में सामने आईं, जो देश में गृह युद्ध छेड़ने पर आमादा थे। वही लोग और संगठन, जिनकी करतूत को सुप्रीम कोर्ट ने विभाजन के बाद वाले दंगों की तरह आंका है। अब उनकी दोनों बेटियां बाकायदा कांग्रेस की मेंबर हैं। उरूसा को पार्टी की उत्तरप्रदेश इकाई में महिला विंग का उपाध्यक्ष भी बनाया गया है। जब ये दो प्रक्षेपण सफलतापूर्वक हो गए तो राणा को अगली लॉन्चिंग के लिए सही मौके का इंतजार था।
फ्रांस में तीन निर्दोषों की निर्मम हत्या ने इस प्रतीक्षा का काउंटडाउन भी पूरा कर दिया। राणा ने इन हत्याओं को सही ठहराया। बल्कि अरमान जताने के अंदाज में यह भी कह गए कि हत्यारे की जगह वह होते तो भी ऐसा ही करते। यदि आप गलत हैं और उसी गलत को ब्रह्मसत्य मानकर उस पर कायम रहना चाहते हैं तो फिर आपको राणा परिवार के जैसा होना पड़ता है। आपके परिवार ने देश के टुकड़े-टुकड़े करने पर आमादा भीड़ का समर्थन किया। उसे पूरी तरह सही ठहराया। और जब लगा कि देश-विरोधी एक रवैये से किसी पद को हासिल किया जा सकता है तो फिर आतंकवाद का समर्थन करने से हो सकता है कि और भी अधिक लाभ मिल जाए।
राणा ने जो कुछ कहा, उसे केवल उनके विचार मानने की भूल न करें। वह उनकी ऐसा और होने की ख्वाहिश होने का प्रतीक है। वह एक प्रयोग है, जिसके जरिए ये थाह ली जाती है कि देश में इस तरह की बात कहने के बावजूद पूरे ठप्पे से सुरक्षित रहने के आसार कहीं कम तो नहीं हुए हैं। धिक्कार है ऐसे शख्स पर जो अपनी शायरी में मां का जिक्र करके टसुए बहाता है और फ्रांस के नीस में तीन बच्चों की मां के कत्ल को जायज ठहराता है। हत्या तो हत्या ही होती है, किसी भी सूरत में उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
लेकिन जब मामला एजेंडे वाला हो तो कोई धुरंधर भी खुद के चेहरे पर पड़ी शराफत की नकाब को हटने से रोक नहीं पाता है। राणा भी बेनकाब हो गए हैं। इस इत्मीनान और बेशर्मी के साथ कि उन्हें समर्थन और संरक्षण देने वाले वर्णसंकर भारतीयों की बहुत बड़ी फौज के चलते कोई भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। राहत इंदौरी ने अपनी लोकप्रियता का लाभ लेकर मजहबी कट्टरपंथ को खूब पनपाया। उनके इन्तेकाल के बाद अब उनकी गादी पर राणा आसीन हो गए दिख रहे हैं। आलथी-पालथी मारकर। घुटने मोड़ कर। वो घुटने जो उस पेट की तरफ मुड़े हैं, जहां कालिख में सनी कट्टरता छिपी है। इसी पेट के ऊपर है वो सीना, जिसमें खास किस्म के मंसूबों की धड़कन गुंजायमान है। उसी सीने से कुछ ऊपर है वह दिमाग, जहां कट्टरता के जाल फैले हुए हैं। तरस आता है मां के उस तसव्वुर पर, जो ऐसे दिलो-दिमाग के बीच सिर्फ इसलिए जिन्दा है कि उसे राणा की तमाम कृतियों में नमूदार होकर इस शख्स को जज्बाती होने का सर्टिफिकेट देना है।