सियाराम पांडेय ‘शांत’:-
आयुर्वेद दुनिया की सबसे प्राचीन चिकित्सा विधा है। भारत में योग और आयुर्वेद के जरिये असाध्य रोगियों के भी ठीक होने के प्रमाण मिलते हैं। एलोपैथिक, होम्योपैथिक और यूनानी चिकित्सा पद्धति का विकास तो बहुत बाद में हुआ। आयुर्वेद के महिमा का हिंदू धर्मग्रंथों में प्रमुखता से गुणगान हुआ है।
यह सच है कि भारत की सदियों की गुलामी ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का बहुत नुकसान किया है। अवैध खनन और पर्वतीय क्षेत्रों में मानव की बढ़ती आवाजाही ने भी जड़ी-बूटियों के विनाश में बड़ी भूमिका निभाई। महर्षि सुश्रुत के गुरु ने एकबार अपने शिष्यों को ऐसा पौधा ढूंढ़कर लाने को कहा जिसका कोई औषधीय गुण न हो। महर्षि सुश्रुत लौटे तो गुरुजी ने उनसे पूछा कि तुम कोई पौधा नहीं लाए। सुश्रुत का जवाब था कि हमें एक भी ऐसा पौधा नहीं मिला, जिसका अपना कोई औषधीय गुण न हो। आयुर्वेद ग्रंथों की मानें तो जहां बीमारी का जन्म होता है, उसकी औषधि का जन्म भी वहीं आसपास होता है। सांप और नेवले के युद्ध में घायल नेवला वहीं आसपास की घास में मुंह रगड़ता और फिर सांप से लड़ने आ जाता है। इसका मतलब स्पष्ट है कि सांप के काटे की औषधि घासों में ही है लेकिन उस जड़ी की पहचान न होने की वजह से हम सर्पदंश के शिकार लोगों की जान नहीं बचा पाते। आदिवासी समाज के लोग बहुत कम अस्पताल जाते हैं और जड़ी- बूटियों के सहारे प्राय: ठीक हो जाते हैं।
भारतीय धर्मग्रंथों पर विचार करें तो दुनिया को जो पहला स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान मिला, वह आयुर्वेद ही था। भगवान शिव को पहला सर्जन कहा गया है। उन्होंने पहला अंग प्रत्यारोपण किया था। गणेश जी के सिर पर हाथी का मस्तक लगाया था। प्राचीनकाल में युद्धों में घायल होने वाले सैनिकों के कटे-फटे स्थानों पर वैद्य एक खास किस्म की जड़ी-बूटी का लेप लगा देते थे और सैनिक दूसरे दिन युद्ध के लिए तैयार हो जाते थे। लक्ष्मण को संजीवनी बूटी पिलाकर उन्हें संज्ञावान करने का जिक्र रामायण आदि ग्रंथों और महापुराणों में मिलता है। जड़ी-बूटियां तो ऐसी-ऐसी हैं जो बूढ़े को भी जवान बना दे। कफ-पित्त और वात जैसे त्रिदोषों का नाश कर व्यक्ति को आरोग्यवान बना दे। च्यवन ऋषि का युवा होना, उनकी आंखों में रोशनी का लौटना सिर्फ दंतकथा भर नहीं है। आयुर्वेद काल में लोगों की प्राणरक्षा गिलोय, अश्वगंधा,नारियल पानी, हल्दी-दूध आदि के माध्यम से हो रही है।
गनीमत है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने न केवल आयुर्वेद का महत्व समझा है, बल्कि उसे आगे बढ़ाने की दिशा में भी वह कार्यरत है। आयुष मंत्रालय का गठन और हर जिले में कम से कम एक आयुर्वेद चिकित्सालय की स्थापना का उसका प्रयास श्लाघनीय भी है और आज की जरूरत भी। इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि राज्यसभा में आयुर्वेद शिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान विधेयक, 2020 ध्वनिमत से पारित हो गया। लोकसभा में यह विधेयक पहले ही पारित हो चुका है। इस विधेयक में जामनगर स्थित गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय परिसर में तीन आयुर्वेदिक संस्थानों स्नातकोत्तर आयुर्वेद शिक्षण और अनुसंधान संस्थान, गुलाबकुंवेरबा आयुर्वेद महाविद्यालय और आयुर्वेद औषधि विज्ञान संस्थान के विलय का विधेयक में प्रस्ताव किया गया है। कुछ लोगों, खासकर राजनीतिक दलों को इस बात का ऐतराज भी हो सकता है कि गुजरात के आयुर्वेद संस्थान को ही राष्ट्रीय महत्व का क्यों माना गया। देश में अन्य राज्यों में भी तो आयुर्वेद से जुड़े संस्थान हैं और वे अपने स्तर पर उत्कृष्ट कार्य भी कर रहे हैं। ऐसा करना क्या उनकी उपेक्षा नहीं है। ऐसे लोगों को यह बताना जरूरी होगा कि शुरुआत तो एक से ही होती है। संख्या तो उसके बाद ही बढ़ती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन ने पहले ही इस तरह की दुष्चिंताओं पर यह कहकर रोशनी डाल दी है कि यह सब आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत किया गया है। सरकार ने चिकित्सकीय पौधों को उगाने, उनके संरक्षण और किसानों को सहयोग देने के लिए 40 हजार करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। उनकी मानें तो जामनगर संस्थान का चयन मनमानीपूर्ण तरीके से नहीं किया गया बल्कि उद्देश्यात्मक तरीके से इसे चुना गया। यह संस्थान 1956 में बना था और इस लिहाज से देखा जाए तो यह देश के सबसे पुराने संस्थानों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ भी यह संस्थान लंबे समय से समन्वय बनाए हुए है। विगत दो दशक में इस संस्थान ने करीब 65 देशों के विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया है। विभिन्न देशों के साथ 30 समझौते भी किए हैं। प्रस्तावित संस्थान में एक समिति होगी जिसमें गुजरात सरकार के आयुष मंत्री, आयुष सचिव और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सचिव, लोकसभा के दो सांसद तथा राज्यसभा के एक सांसद शामिल होंगे।
विचारणीय है कि समिति में किसी आयुर्वेद विशेषज्ञ को महत्व क्यों नहीं दिया गया है। क्योंकि इस समिति में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो जड़ी-बूटियों की पहचान रखता हो। उनके गुण-दोष या औषधीय प्रयोग को जानता हो। अच्छा होता कि सरकार या उसके द्वारा गठित समित आदिवासियों, गांव के बुजुर्गों से इस बावत पूछताछ करती तो उससे प्राकृतिक औषधियों के संरक्षण-संवर्धन में मदद मिलती। सरकार को यह भी देखना होगा कि जंगलों की अंधाधुंध कटान,अवैध खनन और क्रशर मशीनों के चलते भी औषधीय पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। केवल भारी-भरकम राशि दे देने, समिति बना देने या किसी संस्थान को राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर देने, उनके विलय पर संसद की मुहर लगा देने भर से काम नहीं चलेगा। आयुर्वेदिक औषधियों का जिक्र संस्कृत में हैं और वह इतना गूढ़ है, अलंकारिक है कि उसे समूझा पाना सामान्य वैद्य के वश का काम नहीं है। इस वेद के आयुर्वेद मनीषियों ने आयुर्वेदिक औषधियों को अलंकारिक और गूढ़ भाषा में इसलिए लिखा ताकि औषधियां गलत हाथों में न पड़ें और उनका दुरुपयोग न हो। सरकार को इस दिशा में विचार करना चाहिए। गांव-देहात में जड़ी-बूटियों के सहारे लोगों को ठीक करने वाले लोगों की पहचान करनी चाहिए और उनके अनुभवों का लाभ लेते हुए जड़ी-बूटियों का संरक्षण और उनका उचित प्रयोग सुनिश्चित करना चाहिए।
गौरतलब है कि देश भर में राष्ट्रीय महत्व के 103 संस्थान हैं और आयुर्वेद के क्षेत्र में अब तक ऐसा कोई संस्थान नहीं था। यह देश का सबसे प्राचीन संस्थान है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसके महत्व को माना है। हाल ही में 65 देशों के छात्र इस संस्थान का दौरा करने आये थे। यह सही है कि देश में आयुर्वेद के कई अच्छे संस्थान हैं और सरकार इन सबको भी आगे बढ़ाने के कदम उठायेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा है कि यह शुरुआत है और भविष्य में अन्य संस्थानों को भी राष्ट्रीय महत्व का दर्जा दिया जायेगा। यह अच्छी बात है। ऐसा करके ही सरकार अपनी परंपरागत चिकित्सा पद्धति को आगे बढ़ा सकेगी। जनोपयोगी बना सकेगी। सभी राज्यों के सांसद चाहते हैं कि आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को उसका गौरवशाली अतीत मिले । सरकार को उनकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए क्योंकि देश में आयुर्वेद को बढ़ावा दिया जाना ही देश के हित में है। योग और आयुर्वेद ही इस देश को या यूं कहें कि पूरी दुनिया को स्वस्थ रख पाने में सक्षम हैं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)