सियाराम पांडेय शांत,
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत पते की बात कही है। आत्मनिर्भर अभियान से भारत की ताकत बढ़ेगी। देश आत्मनिर्भर तभी बनेगा जब लोग लोकल के लिए वोकल हों। उन्होंने गांव और किसानों के उत्थान की बात कही है। आश्वस्त किया है कि गांवों का समग्र विकास ही सरकार का लक्ष्य है। उन्होंने प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत बिहार को 20500 करोड़ की सौगात दी है। यही नहीं, वहां की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए 1700 करोड़ रुपये की अन्य पशुपालन योजनाओं का भी लोकार्पण किया है। यह सब उन्होंने वर्चुअल चुनावी रैली के तहत किया है।
गांवों के समग्र विकास का आश्वासन देने वाले वे पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं। आजादी के बाद से ही गांवों के विकास की बातें की जा रही हैं लेकिन गांवों की माली हालत में आज भी बहुत सुधार नहीं आया। गांव की जिंदगी जितनी कठिन तब थी, उतनी ही अभी भी है। सहूलियतों की जितनी हवा गांवों में आई है, वह शहरों के मुकाबले नाकाफी है। गांवों में रोजगार नहीं है। जो है वह अत्यंत सीमित है। गांवों में परिवार जिस तेजी से बढ़े हैं, उसी तेजी से बंटे भी हैं। यही वजह है कि कृषि जोत घट गई है। इतनी कम जोत में किसानों के लिए अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाना बेहद कठिन है।
केंद्र सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का संकल्प जताया है। उसके इस संकल्प का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह भी सोचा जाना चाहिए कि मौजूदा समय में किसानों की आय क्या है? अगर दो साल में किसानों की आमदनी दोगुनी हो भी गई तो बढ़ती महंगाई के समक्ष उसका मतलब क्या है? सवाल यह है कि किसी भी राजनीतिक दल को चुनाव के दौर में ही गांवों और किसानों की याद क्यों आती है? अगर उन्हें चुनाव बाद भी गांवों की दशा-दिशा का भान रहा होता तो अबतक गांवों की यह दुर्दशा न होती। आजाद भारत में अगर गांव और शहर को एक नजर से देखा गया होता तो आज अलग से गांवों की चिंता करने की जरूरत नहीं होती।
वैसे भी सरकार कुटीर उद्योगों के जरिए किसान और गांव की बेहतरी के सपने देख रही है। भारत में कुटीर उद्योगों का इतिहास बहुत पुराना है। आज जब भारत त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था से आगे नहीं जा पाया है। जब हम ग्रामीण उत्पादों के लिए समुचित विपणन केंद्र तक की व्यवस्था नहीं कर पाए हैं।
देश की अर्थव्यवस्था बाजार और गांव के बीच बंट गई है। भारत में 628221 गांव हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में 107753 गांव हैं। गोवा ऐसा राज्य है जिसमें कुल जमा 411 गांव हैं। इसके बरअक्स देश भर में केवल 4 हजार शहर हैं। जिसमें 40 शहर ही ऐसे हैं जिसमें 40 मिलियन तक की आबादी निवास करती है। 2500 शहर में आबादी का औसत दस हजार से एक लाख के बीच का है। देश की 80 प्रतिशत आबादी गांवों में ही निवास करती है। केवल 20 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती है। शहरों के लिए जितनी व्यवस्था है, क्या उतना ही प्रबंध गांवों के लिए भी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निश्चित रूप से किसानों के हित में ढेर सारे काम हुए हैं। वर्षों से लंबित कई कृषि सिंचाईं योजनाएं पूरी हुई हैं। गांवों की उपेक्षा कर शहरों पर लंबे अरसे तक जो मेहरबानियां की गईं, उसका खामियाजा आज भी इस देश का ग्रामीण तबका भुगत रहा है।
जिस बिहार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20500 करोड़ की प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना की सौगात दी है, उस राज्य में 45100 गांव हैं और इन गांवों की हालत बेहद दयनीय है। यहां से बड़ी तादाद में बेरोजगार विभिन्न राज्यों में रोजी-रोटी की तलाश में जाते हैं। कोरोना काल में बहुत सारे बेरोजगार हुए लोग दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों से लौटे हैं और आज भी बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कोरोना काल में बेरोजगार होकर लौटे लोगों को आर्थिक सहयोग भी प्रदान किया है। उनके क्षेत्र में ही उनके रोजगार का प्रबंध कराया है। मनरेगा योजना के तहत बहुत सारे प्रवासी कामगारों को काम मिला है लेकिन जिस तादाद में विभिन्न राज्यों से मजदूर लौटे हैं, उतने लोगों को गांव में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए जरूरी है कि गांवों में कुटीर उद्योगों का जाल बिछाया जाए। पुश्तैनी कारोबार छोड़ चुके लोगों को उनके धंधे से जोड़ा जाए।
गांव शहरों के लिए संजीवनी का काम करते हैं। गांव और शहर एक-दूसरे के अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे का काम चलने वाला नहीं है। गांव से खरीददार शहर आते हैं तभी शहर की आमदनी बढ़ती है। गांव विकसित होता है तभी शहर का भी विकास होता है। किसानों की आमदनी बढ़ानी हो तो गांव, तहसील और जिला स्तर पर उद्योगों का जाल बिछाया जाना चाहिए।
बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों को गांवों और किसानों के हितों की चिंता सताने लगी है। अगर गांवों का विकास सतत बना रहे तभी गांव समृद्ध और खुशहाल हो सकेंगे। केवल बिहार ही नहीं, देश के हर राज्य में प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना या पशुपालन योजनाओं को आगे बढ़ाने की पहल की जानी चाहिए।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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