सियाराम पांडेय ‘शांत’:
मंदिरों को लूटने का जो काम महमूद गजनवी ने किया था, वही काम देश के कुछ राज्यों की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकारें भी कर रही हैं। उनकी नजर बड़े हिंदू मंदिरों की संपत्ति पर है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कोरोनाकाल में उपजे आर्थिक हालात से निपटने के लिए केंद्र सरकार को मंदिरों का सोना लेने की जो सलाह दी है, उसका कमोबेश लब्बोलुआब यही है। उनका कहना है कि भारत के धार्मिक ट्रस्टों के पास 76 लाख करोड़ का सोना है, भारत सरकार को तुरंत उसका इस्तेमाल करना चाहिए। सरकार गोल्ड बॉन्ड्स के जरिए कम ब्याज पर यह सोना उनसे उधार ले सकती है। यह और बात है कि पृथ्वीराज चह्वाण के इस टि्वीट पर जहां कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने चुप्पी साध रखी है, वहीं अकेली भाजपा ही है जिसने उनकी इस राय का यह कहते हुए विरोध किया है कि क्या पृथ्वीराज चव्हाण अकेले कैथेड्रल चर्च की जमीन जिसकी अनुमानित कीमत 7 हजार करोड़ से अधिक है, वक्फ बोर्ड जिसकी अनुमानित सम्पत्ति 60 लाख करोड़ है, उसका भी इस्तेमाल करने की भी बात करेंगे? भाजपा ने कांग्रेस से यह भी पूछा है कि क्या मंदिरों का सोना लेना कांग्रेस की अपनी निश्चित अवधारणा है। भाजपा के इन सवालों पर कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष दलों ने चुप्पी साध रखी है।
इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदू मंदिर आपातकाल में देश के पीड़ित लोगों की बढ़-चढ़कर मदद करते रहे हैं। केरल की बाढ़ में सिद्धि विनायक मंदिर ने एक करोड़ रुपये, सबरीमला मंदिर ने दस करोड़ रुपये, तिरुपति मंदिर ने पांच करोड़, वैष्णो देवी मंदिर ने एक करोड़, कोल्लूर मूकाम्बिका मंदिर ने सवा करोड़, पंढरपुर देवस्थान ने 25 लाख और शिरडी साई मंदिर ने एक करोड़ की सहायता राशि सरकार को दी थी। मंदिरों पर धर्मनिरपेक्ष दलों की सरकारों की ज्यादती का नमूना देखना हो तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी के उस निर्णय को देखिए जिसमें तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट की तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और उत्तराखंड के ऋषिकेश में स्थित 50 अचल संपत्तियों को नीलाम कर 125 करोड़ जुटाने का प्रस्ताव है। वे चाहते तो चर्च और मस्जिदों की संपत्ति नीलाम करके भी ऐसा कर सकते थे लेकिन उनकी नजर हमेशा हिंदू मंदिरों और मठों की प्रॉपर्टी पर ही रही।
भारतीय राजनीति और कूटनीति के आचार्य चाणक्य ने कहा था कि किसी धर्म को समाप्त करना हो तो उसके आश्रय स्थल मठ-मंदिर और शिक्षा व्यवस्था को समाप्त कर दो। संभवत: इसी रीति पर अमल करते हुए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने शिक्षा तंत्र को मैकाले तंत्र के हाथों में दे दिया और कानून बनाकर हिन्दू मठ-मंदिरों को अपने अधीन कर लिया। भारत में तकरीबन नौ लाख मंदिर हैं जिनमें से चार लाख मंदिर सरकार के अधीन हैं। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती की मानें तो अंग्रेजों को जब यह लगा कि भारत में आस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि धर्म के लिए किसी भी हद तक जाकर हिंदू समाज संघर्ष करेगा तो उन्होंने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई। कुछ नए प्रकार के कानून ब्रिटिश पार्लियामेंट से पास कराकर उसकी आड़ में भारतीय मंदिरों की सम्पत्ति पर येन-केन-प्रकारेण कब्जा करने की कोशिश की। मद्रास हिन्दू टेम्पल एक्ट 1843 में लेकर आए। इस कानून की आड़ में मंदिरों पर कब्जा कर उसकी सम्पत्तियों को लंदन भेजा गया लेकिन 1857 के विद्रोह से उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। बिना किसी धार्मिक छेड़छाड़ के सामाजिक गतिविधियों पर नियंत्रण करने के लिए वे 1860 में सोसायटी एक्ट, पुलिस एक्ट, ट्रस्ट एक्ट लेकर आए परन्तु समाज के प्रबल प्रतिरोध के समक्ष उन्हें मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद 1923 में वे मद्रास हिन्दू टेम्पल एण्ड रिलीजियस प्लेस अमेंडमेंट एक्ट ले आए, इसकी आड़ में तब कई प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों का धन हड़पा गया। फिर 1920 से लेकर 1947 तक भारत की लाखों हेक्टयेर भूमि चर्चों को चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम पर लीज कर दी गई।
अंग्रेजों की राह पर आगे बढ़ते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मद्रास हिन्दू टेम्पल एक्ट की जगह ‘द हिन्दू रिलीजियस एण्ड चेरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट 1951 भारतीय संसद में बगैर चुनाव हुए ही पास कर दिया, जबकि भारत में पहला चुनाव 1952 में हुआ था। इससे तत्कालीन कांग्रेस सरकार को हिन्दू मठ-मंदिरों को अपने कब्जे में लेने और उसकी परिसम्पत्तियों से सरकारी मौज-मस्ती का अवसर मिल गया। उस समय भारत में मंदिरों के पास अपनी जमीन होती थी जिसपर कृषि कर्म द्वारा हुई आय और मंदिर के चढ़ावे का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्पर्क और संस्कार के कार्यों के लिए किया जाता था। प्रत्येक मंदिर के साथ एक विद्यालय, चिकित्सालय जुड़े होते थे। गांव में सम्पन्न होने वाले संस्कारों के लिए मंदिर का बड़ा परिसर एवं उसकी ठाकुरबाड़ी का उपयोग होता था।
संविधान के अनुच्छेद 29-30 के अंतर्गत अल्पसंख्यकों के प्राप्त अधिकारों के जरिए जिस समाज ने धार्मिक रूप से अपनी सक्रियता दिखाई ,उसे अल्पसंख्यक का दर्जा देकर हिन्दू समाज से अलग करने के प्रयास हुए। सिक्खों को अल्पसंख्यक का दर्जा देना इसका प्रमाण है। चंडीगढ़ हाइकोर्ट ने तो यहां तक कहा कि पंजाब में सिक्ख अल्पसंख्यक कैसे हो सकता है तो सुप्रीम कोर्ट के जरिए चंडीगढ़ हाइकोर्ट के आदेश को रोक दिया गया। जैन समाज के मंदिरों का प्रश्न जब खड़ा हुआ तो उन्हें भी अल्पसंख्यक का दर्जा देकर हिन्दू समाज से अलग कर दिया गया। कर्नाटक में लिंगायतों को अल्पसंख्यक का दर्जा देने और हिंदुओं को कमजोर करने का महापाप भी कांग्रेस ने किया। हालांकि सामाजिक जागरुकता के कारण इस प्रयास में इन्हें मुंह की खानी पड़ी।
हिंदू धर्म दान एक्ट 1951 के जरिए कांग्रेस ने राज्यों को अधिकार दे दिया कि बिना कोई कारण बताए वे किसी भी मंदिर को सरकार के अधीन कर सकते हैं। इस एक्ट के बनने के बाद से आंध्र प्रदेश सरकार ने लगभग 34 हजार मंदिरों को अपने अधीन ले लिया था। मध्य प्रदेश में 76 हजार मंदिर राज्य सरकार के अधीन हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु ने भी मंदिरों को अपने अधीन कर लिया था। इसी के साथ शुरू हुआ था मंदिरों के चढ़ावे में भ्रष्टाचार का खेल। तिरुपति बालाजी मंदिर की सालाना कमाई लगभग 3500 करोड़ रुपये है। मंदिर में रोज बैंक से दो गाड़ियां आती हैं और मंदिर को मिले चढ़ावे की रकम को ले जाती है। इतना फंड मिलने के बाद भी तिरुपति मंदिर को सिर्फ सात प्रतिशत फंड मंदिर के रखरखाव के लिए वापस मिलता है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस.आर. रेड्डी ने तिरुपति की सात पहाड़ियों में से पांच को सरकार को देने का आदेश दिया था। इन पहाड़ियों पर चर्च का निर्माण किया जाना था। मंदिरों के दान के धन में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि कर्नाटक के दो लाख मंदिरों में लगभग 50 हजार मंदिर रखरखाव के अभाव में बंद हो गए है। मंदिरों को अपने अधीन करने की एक ही वजह है, चढ़ावे की राशि पर कब्जा करना लेकिन मस्जिदों और चर्चों के साथ वह ऐसा नहीं करती। 1951 के इस कानून के कारण हिन्दू समाज के सभी प्रतिष्ठित मंदिर सरकारी ट्रस्टों के अधीन हैं। उत्तर प्रदेश में अयोध्या, मथुरा, काशी सभी सरकार द्वारा ही निर्मित ट्रस्ट हैं। काशी विश्वनाथ के अधिग्रहण की कहानी कम रोचक नहीं है। तत्कालीन कांग्रेस नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी का विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार से विवाद भी इसके मूल में रहा है। काशी विश्वनाथ की तरह ही भारत के प्रत्येक प्रसिद्ध मंदिरों का इतिहास जिसके अधिग्रहण के पीछे 1951 के कानून के साथ कोई न कोई षड्यंत्र जुड़ा हुआ है।
मंदिरों में रखा सोना आपातकाल में देश के काम आ सकता है कि नहीं, यह अपने आप में अहम सवाल है लेकिन यह भी एक बड़ा प्रश्न यह है कि यह सोना हिन्दू समाज की सम्पत्ति है न कि सरकार की। जिन लोगों को मठ-मंदिरों में पड़ा धन दिख रहा है, क्या उन्हें इस देश में चैरिटी के नाम पर आने वाले लाखों-करोड़ों के चंदे नहीं दिखे। ओड़िसा सरकार ने अप्रैल, 2020 में जगन्नाथ मंदिर की 70 हजार एकड़ जमीन बेचने की इच्छा जताई है। ऐसा कर सरकार अपने कुप्रबंधनजन्य नुकसान की भरपाई करना चाहती है। तमिलनाडु सरकार ने 47 मंदिरों को मुख्यमंत्री राहत कोष में 10 करोड़ रुपए देने का आदेश दिया है। इसके विपरीत राज्य सरकार ने 16 अप्रैल को रमजान के महीने में प्रदेश की 2,895 मस्जिदों को 5,450 टन मुफ्त चावल वितरित करने आदेश दिया था, ताकि रोजेदारों को परेशानी न हो। इससे तमिलनाडु सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का पता चलता है। भाजपा के वरिष्ठ सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कहा था कि देश के 4 लाख मंदिर सरकार के नियंत्रण में हैं, जबकि एक भी मस्जिद और चर्च सरकार के अधीन नही हैं।
सितंबर 2013 में भारतीय रिजर्व बैंक ने देशभर के मंदिर ट्रस्टों से उनके पास जमा सोने का ब्यौरा मांगा था। उस समय भी हिंदू संगठनों और मंदिरों के ट्रस्टों ने इसपर आपत्ति जताई थी। इस बार भी जब पृथ्वीराज चव्हाण ने ट्वीट किया तब भी उसका विरोध हो रहा है। कांग्रेस नेताओं को समझना होगा कि मंदिर को दिए गए दान से लोगों की भावनाएं जुड़ी होती हैं, ट्रस्ट भक्तों के विश्वास को नहीं तोड़ सकते। हिन्दू मंदिरों की संपत्ति पर नजर रखने वाले कभी अन्य धर्मों के पूजा स्थलों पर भी नजर डाल पाते, उनकी संपत्ति का भी देशहित में इस्तेमाल कर पाते।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)