सामाजिक भेदभाव की ओर बढ़ता कोरोना
शशांक राज:
देश में तेजी से फैलते कोरोना वायरस के संक्रमण ने मानवीय रिश्तों के सामाजिक तानेबाने की नई परिभाषा गढ़ दी है। सोशल मीडिया और टेलीविजन ने देशभर में ऐसा महौल बनाया है कि लोग कोरोना वायरस जैसी बीमारी से लड़ने के बजाए आपस में ही लड़ने लगे हैं। कोरोना संक्रमितों के प्रति पनपी एक नई दृष्टि ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार किया है। इसलिए भारत सरकार के उस विज्ञापन को हमेशा जेहन में रखें जिसमें यह बताया गया है कि हमें बीमारी से लड़ना है बीमार से कतई नहीं।
कोरोना का खौफ कुछ इस कदर है कि घर के सामने एंबुलेंस रुकते ही सैकड़ों लोग सवालों की तरह घूरने लगते हैं। पूरा मोहल्ला उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर देता है और दूसरे मुहल्ले के लोग उस मुहल्ले से तौबा कर लेते हैं। कोरोना वायरस के फैलाव से मामला यहां तक पहुंच गया है कि लंबे अरसे से सुख-दुख में भागीदार रहने वाले पड़ोसी तो दूर, रिश्ते-नातेदार भी अब एक-दूसरे को संदेह की निगाहों से देख रहे हैं। हद तो यह हो गई है कि अब कोरोना संक्रमित पिता की मौत की स्थिति में बेटे अंतिम संस्कार करने से भी बच रहे हैं। समाज विज्ञानियों का कहना है कि कोरोना पर तो देर-सबेर अंकुश लग जाएगा लेकिन इस वजह से बदले सामाजिक रिश्ते शायद ही पहले की स्थिति में लौट पाए।
पिछले कुछ दिन पहले झारखंड की राजधानी रांची जिले में कोरोना संक्रमित व्यक्ति की मौत के बाद जो तमाशा हुआ वह किसी भी सभ्य समाज के लिए उचित नहीं कहा जा सकता है। मौत के बाद मृत शरीर को दो गज जमीन के लिए तरसना पड़ा। हालांकि बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रोटोकॉल के अनुसार दूसरे कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार किया गया। दूसरे प्रदेशों से भी ऐसी सूचना आ रही है कि बेटा भी पिता को मुखाग्नि देने से इनकार कर रहा है। कई जगहों पर सरकारी कर्मियों के द्वारा ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार किया गया है। यह स्थिति पूरे देश की है। कल तक जो व्यक्ति मोहल्ले या इलाके में सबके दुख-सुख में भागीदार था, उसके मरते ही लोगों की निगाहें बदल जाती हैं। कई इलाकों में लोग ऐसे शवों के अंतिम संस्कार पर भी आपत्ति जता चुके हैं। इस मुद्दे पर कई जगह पुलिसवालों के साथ हिंसक झड़पें तक हो चुकी हैं। अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कोरोना जैसे लक्षण वाले दूसरे मरीजों को भी भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। दिल, गुर्दे और किडनी की गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीजों के लिए तो स्थिति और गंभीर हो गई है। बीमारी की गंभीरता कुछ इस कदर है कि गर्भवती महिलाओं का संस्थागत प्रसव प्रक्रिया पूरी करने में भी सरकारी और निजी अस्पताल हाथ खड़े कर रहे हैं। रांची में चार से पांच ऐसे मामले आ चुके हैं। कोरोना के खिलाफ सामाजिक जिम्मेदारी निभा रहे पत्रकारों को भी हाल ही में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। प्रसव वेदना से तड़पती दो पत्रकारों की पत्नियों को भी मातृत्व सुख से वंचित होना पड़ा है। आम नागरिकों के साथ भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं।
रांची जिले में ही कई ऐसे मोहल्ले हैं जहां लोग कोरोना संक्रमण की चपेट में आए हैं। यहां तक कि कुछ नर्स और स्वास्थ्यकर्मी भी इसके संक्रमण से ग्रसित हो गए हैं। जिसके बाद से ऐसी खबरें आई थीं कि डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों से भी लोग सामाजिक दूरी बनाने लगे हैं। ऐसी सूचनाएं भी मिल रही है कि जिन लोगों की रिपोर्ट निगेटिव निकली उनका भी लोग सामाजिक बहिष्कार कर रहे हैं। मदद की बात तो दूर, लोग तरह- तरह की अफवाहें फैला रहे हैं। इस तरह की घटनाएं किसी एक जगह की नहीं है बल्कि देश के कोने-कोने से रोजाना अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए ढेर सारी कहानियां सामने आ रही हैं।
समाजविज्ञानियों का कहना है कि कोरोना पर किसी स्पष्ट जानकारी के अभाव और सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों ने स्थिति को दूभर बना दिया है। कोरोना हमारे आपसी रिश्तों के लिए काल बनकर आया है। यह कहना ज्यादा सही होगा कि सामाजिक रिश्तों के अलावा हमारे खून के रिश्तों पर भी कोरोना संक्रमण का गहरा असर देखने को मिल रहा है। अब हालत यह है कि पड़ोसी तो दूर, करीबी रिश्तेदार भी सवालिया निगाहों से देखने लगे हैं।
यह महामारी रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रही है। इसमें आम लोगों का कोई दोष नहीं है। सबको अपनी जान प्यारी होती है। तो क्या रिश्तों में आने वाला यह बदलाव इसी तरह चलता रहेगा ? इस सवाल का जवाब तो अभी मुश्किल है लेकिन एक बात तय है कि रिश्तों में एकबार दूरी बढ़ने के बाद उनका पहले जैसी स्थिति में लौटना बेहद मुश्किल होगा। कोरोना के संक्रमण काल में एक-दूसरे से शारीरिक दूरी तो जरूरी है लेकिन मन, विचार और कर्म से एक-दूसरे के नजदीक रहना है। हां, इसका दूसरा पहलू भी है। कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव के लिए जारी देशव्यापी लॉकडाउन ने कम से कम संसाधन में जीना सिखाया है। गरीब और जरूरतमंदों की सहायता के लिए लोग और संस्थाएं आगे आ रही हैं। उनकी संवेदनाएं बढ़ी हैं। यह सुखद है।
(लेखक रांची विश्वविद्यालय के सीनेट सदस्य हैं तथा एबीवीपी के राष्ट्रीय व केंद्रीय कार्यसमिति सदस्य रह चुके हैं।)