योगेश कुमार गोयल:
जनचेतना का जागरण पर्व होली परस्पर मेल-जोल बढ़ाने और आपसी वैर-भाव भुलाने की प्रेरणा देता है। रंगों के इस पर्व के प्रति युवा वर्ग व बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी अपार उत्साह देखा जाता है। वैसे तो यह देश में होलिका दहन व रंगों के त्योहार के रूप में ही जाना जाता है लेकिन भारत के विभिन्न भागों में इस पर्व को मनाने के अलग-अलग और बड़े विचित्र तौर-तरीके देखने को मिलते हैं।
उत्तर प्रदेश में ब्रज की बरसाने की ‘लट्ठमार होली’ अपने आप में अनोखी और विश्व प्रसिद्ध है, जिसका आनंद लेने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। यहां होली खेलने के लिए रंगों के स्थान पर लाठियों व लोहे तथा चमड़े की ढालों का प्रयोग किया जाता है। महिलाएं लाठियों से पुरूषों को पीटने का प्रयास करती हैं जबकि पुरूष ढालों की आड़ में स्वयं को लाठियों के प्रहार से बचाते हैं। लट्ठमार होली के आयोजन ब्रज मंडल में करीब डेढ़ माह तक चलते हैं लेकिन विशेष आयोजन के रूप में खेली जाने वाली लट्ठमार होली के लिए विभिन्न दिन एवं स्थान निश्चित हैं। ब्रज मंडल में नंदगांव, बरसाना, मथुरा, गोकुल, लोहबन तथा बल्देव की लट्ठमार होली विशेष रूप से प्रसिद्ध व दर्शनीय है। लट्ठमार होली के लिए लोग कई दिन पहले ही तैयारियां शुरू कर देते हैं। बरसाने की होली में नंदगांव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं जबकि नंदगांव की होली में पुरूष बरसाने के होते हैं और महिलाएं नंदगांव की। होली खेलने वाले हुरियारों के हाथों में अपनी सुरक्षा के लिए चमड़े की ढाल होती है, जबकि रंग-बिरंगे लहंगे और ओढ़नियों से सजी गोरियों के हाथों में लाठियां होती हैं। हुरियारों के झुंड में 3-4 वर्ष के बच्चों से लेकर 70 साल के वृद्ध भी दिखाई देते हैं। जब हुरियारे और गोरियां आमने-सामने होते हैं तो लाठियों और ढालों का मन मचलने लगता है। गोरियां लाठियां भांजती हैं और हुरियारे नाचते-गाते ढाल द्वारा बचाव करते हैं। इस दौरान आकाश रंग-बिरंगे गुलाल के बादलों से आच्छादित हो जाता है और बड़ा ही मनोहारी दृश्य उपस्थित होता है।
रणबांकुरों की धरती राजस्थान में तो होली का अलग-अलग जगह अलग-अलग तरीके से आयोजन होता है। जयपुर के आसपास के कुछ क्षेत्रों में होलिका दहन के साथ पतंग जलाने की भी प्रथा है। गौरतलब है कि यहां पतंग उड़ाने का आयोजन मकर संक्रांति से शुरू होता है जो होली तक पूरे शबाब पर होता है लेकिन होलिका दहन से पूर्व विभिन्न चौराहों पर होलिका को लोग अपने-अपने घरों से लाई रंग-बिरंगी पतंगों से सजाते हैं और होलिका दहन के साथ पतंगों को भी अग्नि को समर्पित कर इस दिन से पतंग उड़ाना बंद कर देते हैं। राजस्थान में कुछ स्थानों पर खूनी होली भी खेली जाती है, जहां ‘दुलहैंडी’ के दिन एक-दूसरे को गुलाल लगाने के बजाय खून का तिलक लगाने की प्रथा है। राज्य के कुछ हिस्सों में लोग एक-दूसरे को तबतक छोटे-छोटे कंकड़ मारते हैं, जबतक उनके शरीर के किसी हिस्से से खून न निकल आए। इसके बाद खून से तिलक लगाकर होली खेली जाती है। बांसवाड़ा क्षेत्र की पत्थरमार होली तो काफी प्रसिद्ध है। महिलाएं पुरूषों पर पत्थर फेंकती हैं और पुरूष बचने की कोशिश करते हैं। इस दौरान काफी लोगों को चोटें भी लगती हैं लेकिन फिर भी इस आयोजन के प्रति लोगों का उत्साह देखते बनता है।
इसी प्रकार पिछले तीन सौ सालों से बीकानेर में मनाई जा रही ‘डोलचीमार होली’ भी अपनी तरह का अनोखा आयोजन है, जिसमें मुख्य रूप से हर्ष और व्यास जाति के लोग ही भाग लेते हैं लेकिन अब अन्य जातियों के लोग भी इसमें पूरे उत्साह से सम्मिलित होते हैं। फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को खेली जाने वाली इस होली का आयोजन बीकानेर के हर्षों के चौक में होता है, जहां पानी के बड़े-बड़े कड़ाह भरकर रखे जाते हैं। हर्ष और व्यास जाति के लोग स्नेही प्रतिद्वंद्वी के रूप में एक-दूसरे के साथ अपना जोड़ा बनाते हैं और इन दोनों जातियों के साथ आमने-सामने के वर्ग में अन्य जातियों के लोग भी सम्मिलित होते हैं। खेल के दौरान करीब 750 मिली क्षमता पानी वाली चमड़े की बनी डोलचियों का उपयोग होता है। इन डोलचियों से प्रतिद्वंद्वी एक-दूसरे पर पानी का इतना तेज प्रहार करते हैं कि देखकर रौंगटे खड़े हो जाएं।
बिहार में कुछ स्थानों पर रात के समय होली जलाने की प्रथा है। लोग होलिका दहन के समय इसके चारों ओर एकत्रित होते हैं और गेहूं व चने की बालें भूनकर खाते हैं। प्रदेश के कुछ हिस्सों में युवक अपने-अपने गांव की सीमा के बाहर मशाल जलाकर रास्ता रोशन करते हैं। इस संबंध में मान्यता है कि ऐसा करके वे अपने गांव से दुर्भाग्य और संकटों को दूर भगा रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में होली का आयोजन तीन दिन तक चलता है, जिसे ‘डोलीजागा’ नाम से जाना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के मंदिरों के आसपास कागज, कपड़े व बांस से मनुष्य की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं और छोटी-छोटी पर्णकुटियों का भी निर्माण किया जाता है। शाम के समय मनुष्य की प्रतिमाओं के समक्ष वैदिक रीति से यज्ञ किए जाते हैं और यज्ञ कुंड में मनुष्य की प्रतिमाएं जला दी जाती हैं। उसके बाद लोग हाथों में भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमाएं लेकर यज्ञ कुंड की सात बार परिक्रमा करते हैं। अगले दिन प्रातः भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को एक झूले पर सजाया जाता है और पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ उसे झूला झुलाता है। इस दौरान वहां उपस्थित लोग भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति पर अबीर-गुलाल उड़ाते हैं। विधिवत पूजा अर्चना के बाद पुरोहित उस अबीर-गुलाल को उठाकर उसी से वहां उपस्थित लोगों के मस्तक पर टीका लगता है। इसके बाद दिनभर लोग रंगों से आपस में होली खेलते हैं।
जिस प्रकार पश्चिम बंगाल में मनुष्य की प्रतिमा जलाई जाती है, उसी प्रकार उड़ीसा में होली के अवसर पर जीवित भेड़ को जलाने की प्रथा रही है किन्तु अब इस प्रथा के स्वरूप में परिवर्तन आया है। बहुत से स्थानों पर भेड़ को प्रज्जवलित ज्वाला के पास ले जाकर रस्म अदायगी कर छोड़ दिया जाता है जबकि उड़ीसा के कुछ स्थानों पर लोग कागज और कपड़े से भेड़ की आकृति बनाकर जलाते हैं। उड़ीसा में होली का त्योहार ‘तिग्या’ के नाम से जाना जाता है और इस अवसर पर देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के विशाल जुलूस निकालने की परम्परा भी देखी जाती है।
कृषि प्रधान राज्य हरियाणा में होली के इन्द्रधनुषी रंगों की छटा देखते ही बनती है। होली के दिन महिलाएं व्रत रखती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पारम्परिक लोकगीत गाते हुए समूहों में होलिका दहन के लिए जाती हैं और पूजा अर्चना करती हैं तथा होलिका दहन के पश्चात् व्रत खोलती हैं। यहां होली की आग में गेहूं तथा चने की बालें भूनकर खाना शुभ माना जाता है। अगले दिन ‘दुलहैंडी’ के दिन स्त्री-पुरूष, बच्चे सभी गली-गली में होली के रंगों में मस्त दिखाई देते हैं। हर गली में पानी से बड़े-बड़े टब अथवा ड्रम भरकर रखे जाते हैं। आमतौर पर गांवों में कुंवारी लड़कियां इन टबों में पानी भरती हैं, जिन्हें इसके लिए ‘नेग’ के रूप में कुछ राशि दी जाती है। पुरूष महिलाओं पर पानी डालते हैं और महिलाएं उनपर कोड़े बरसाती हैं। कोड़े की जगह अब कहीं-कहीं लाठियों ने ले ली है। शाम को गांवों में कबड्डी व कुश्ती प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं। महिलाएं शाम के समय अपने लोक देवता की पूजा के लिए मंदिरों में जाती हैं और प्रसाद बांटती हैं।
पंजाब में भी हरियाणा की ही भांति होली पर खूब धूमधाम और मस्ती देखी जाती है। लोग रंग और गुलाल से होली खेलकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं। महिलाएं होली के दिन अपने घर के दरवाजे पर ‘स्वास्तिक’ चिन्ह बनाती हैं। शाम को जगह-जगह कुश्ती के दंगल और शारीरिक सौष्ठव के आयोजन होते हैं।
मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी इलाकों में होली के अवसर पर ‘गोल बधेड़ो’ नामक उत्सव का आयोजन होता है, जिसमें ताड़ के वृक्ष पर नारियल व गुड़ की एक पोटली लटका दी जाती है और लड़कियां हाथ में झाड़ू लेकर लड़कों को वृक्ष पर चढ़ने से रोकती हैं। जो लड़का इसके बाद भी पेड़ पर चढ़कर पोटली उतारकर लाने में सफल हो जाता है, उसे वहां उपस्थित लड़कियों में से किसी भी एक लड़की को पत्नी के रूप में चुनने का अधिकार होता है। यहां की भील जनजाति में भी लोग एक सप्ताह तक ऐसा ही एक उत्सव मनाते हैं, जिसे ‘भगोरिया’ के नाम से जाना जाता है। इस दौरान यहां भील युवक-युवतियों का एक हाट लगता है और हाट में किसी भील युवक को अगर कोई लड़की पसंद आ जाती है तो वह उसके गालों पर गुलाल लगाकर अपने दिल की भावना व्यक्त कर देता है। अब अगर उस लड़की को भी वह लड़का पसंद है तो वह भी उसके गालों पर गुलाल लगा देती है। उसके बाद दोनों की शादी कर दी जाती है।
गुजरात में होली का पर्व ‘हुलासनी’ के नाम से मनाया जाता है। होलिका का पुतला बनाकर उसका जुलूस निकाला जाता है और होलिका के पुतले को केन्द्रित कर लोग तरह-तरह के हंसी-मजाक भी करते हैं। उसके बाद पुतले को जला दिया जाता है और होलिका दहन के बाद बची राख से कुंवारी लड़कियां ‘अम्बा’ देवी की प्रतिमाएं बनाकर गुलाब तथा अन्य रंग-बिरंगे फूलों से उसकी पूजा अर्चना करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से लड़कियों को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है।
हिमाचल प्रदेश में होलिका दहन के पश्चात् बची राख को ‘जादू की शक्ति’ माना जाता है और यह सोचकर इसे खेत-खलिहानों में डाला जाता है कि इससे यहां किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आएगी और फसल अच्छी होगी। होली खेलते समय महिलाएं पुरूषों पर लाठियों से प्रहार करती हैं और पुरूष स्वयं को ढालों इत्यादि से बचाते हैं।
महाराष्ट्र में होली का त्यौहार ‘शिमगा’ नाम से मनाया जाता है। यहां इस दिन घरों में झाड़ू का पूजन करना शुभ माना गया है। पूजन के पश्चात झाड़ू को जला दिया जाता है। प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में होली खेलते समय पुरूष ही रंगों का इस्तेमाल करते हैं।
दक्षिण भारत के राज्यों में मान्यता है कि भगवान शिव ने इसी दिन कामदेव को अपने गुस्से से भस्म कर दिया था इसलिए यहां होली का पर्व कामदेव की स्मृति में ‘कामदहन पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)