-सुरेश हिंदुस्थानी :
दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए हुए मतदान के बाद हालांकि यह तय लगने लगा था कि आम आदमी पार्टी (आप) की फिर सरकार बनेगी। लेकिन चुनाव परिणामों ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जो छप्पर फाड़ बहुमत दिया है, उसकी उम्मीद आप के अलावा किसी को भी नहीं थी। यहां तक कि चैनलों ने जो सर्वे दिखाया, उसमें भी आप को इतनी सफलता की आशा नहीं थी। आप नेता अरविंद केजरीवाल के प्रति दिल्ली की जनता का यह अपार जनसमर्थन यही प्रदर्शित करता है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जड़ें बहुत गहरे तक समा चुकी हैं। केजरीवाल ने अपनी राजनीति को हर हृदय में विद्यमान कर दिया है।
भारत में प्रायः कहा जाता है कि जो जितनी जल्दी ऊपर उठता है, वह उतनी ही गति से नीचे की ओर भी जाता है, लेकिन केजरीवाल के बारे में उक्त पंक्ति एकदम फिट नहीं बैठ रही। हालांकि केजरीवाल की पार्टी को पिछले चुनाव की तुलना में इस बार पांच सीट कम मिली हैं। बावजूद इसके उनकी पार्टी को बड़ी जीत मिली है।
आप की इस अप्रत्याशित जीत में मुफ्त की योजनाओं का बहुत बड़ा आधार है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने बिजली फ्री, शिक्षा फ्री और पानी फ्री देकर उसे वोटों में परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त की। इससे यह भी संदेश जा रहा है भविष्य की राजनीति में इस प्रकार की फ्री की राजनीति सत्ता बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है।
निश्चित रूप से यही कहा जा सकता है कि मुफ्त की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल कहीं न कहीं देश में बेरोजगारी को बढ़ाने का ही कार्य करेंगे। वास्तव में होना यह चाहिए कि आम जनता के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया जाए, उसे रोजगार प्रदान किया जाए, जिससे जनता को अपने व्यय खुद वहन करने की शक्ति मिले। मुफ्त सुविधाएं प्रदान करना एक प्रकार से समाज को निकम्मा बनाने की राह की निर्मिति करने वाला ही कहा जाएगा। सरकार कोई भी हो उसे आम जनता के जीवन स्तर उठाने का प्रयास करना चाहिए।
विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद अब इस बात में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं होनी चाहिए कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का जादू बरकरार है। मुद्दे चाहे कोई भी रहे हों, जनता ने आम आदमी पार्टी के मुद्दों पर अपना व्यापक समर्थन दिया है।
वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए यह चुनाव एक चुनौती भी है और स्पष्ट रूप से एक गंभीर चेतावनी भी है। चेतावनी इस बात की है कि भाजपा राज्यों में प्रादेशिक नेतृत्व खड़ा करने में विफल साबित हुई है। भले ही वह राष्ट्रीय नेतृत्व के हिसाब से बहुत मजबूत होगी, लेकिन दिल्ली में उसका नेतृत्व कोई कमाल नहीं कर सका। अब भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का विषय हो सकता है कि वह अपने प्रादेशिक नेतृत्व को कैसा स्वरूप प्रदान करना चाहता है।
इसी प्रकार हम कांग्रेस की बात करें तो दिल्ली में उसका आधार ही समाप्त होता जा रहा है। लोकसभा में दिल्ली की सभी सीटें हारने वाली कांग्रेस विधानसभा में भी अपनी हार में पूरी तरह से संतुष्ट नजर आ रही है। उसे अपनी हार का गम नहीं है। वह अरविंद केजरीवाल की जीत को ऐसे देख रही है, जैसे उसने खुद विजय प्राप्त कर ली हो। दिल्ली के बारे में कांग्रेस की राजनीति को देखकर यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी पार्टी का समर्थन किया, क्योंकि यह संभव ही नहीं है कि जिस कांग्रेस ने तीन बार बहुमत की सरकार बनाई, वह पिछले दो चुनावों में शून्य में समाहित हो जाए। कांग्रेस की करारी हार के बाद हालांकि बगावती स्वर भी उठ रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेकर अपने पद से इस्तीफा भी दे दिया है, लेकिन यह परिणाम कांग्रेस के लिए भी गहन चिंता का विषय है। एक प्रकार से कहा जाए तो अब दिल्ली कांग्रेस मुक्त ही है। हालांकि भाजपा ने पिछली बार से पांच सीटों की वृद्धि की है, जो व्यापक सफलता नहीं तो कुछ सुधार तो कहा जा सकता है। कांग्रेस भी दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम को भाजपा की पराजय के रूप में देखकर प्रसन्न हो रही है। उसे अपने गिरेबान में भी झांककर देखना चाहिए कि वह कितने पानी में है।
राजनीति में जय-पराजय का कोई स्थायित्व नहीं होता। जो दल आज पराजय का सामना कर रहा है, कल उसकी विजय भी हो सकती है। यह बात भी सही है कि पराजय एक सबक लेकर आती है। जीत कभी-कभी अहंकारी बना देती है, लेकिन पराजय बहुत कुछ सिखा देती है। दिल्ली में भाजपा पराजय से कुछ सीखेगी या नहीं, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस को अपनी पराजय का भान नहीं हो रहा। भाजपा को अब यह जान लेना चाहिए कि मोदी और अमित शाह के नाम के सहारे राज्यों के चुनाव नहीं जीते जा सकते, अब उसे राज्यों में नए अध्याय का प्रारंभ करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)