प्रमोद भार्गव,
शारदेय नवरात्रों में एकबार फिर हम स्त्री शक्ति के नौ रूपों की पूजा कर रहे हैं। नवरात्र में जो नव उपसर्ग हैं, वे नौ की संख्या के साथ-साथ नूतनता के भी प्रतीक हैं। इस अर्थ में वे परिवर्तन के सूचक हैं। ये रूप-शक्ति, स्त्रीत्व और समृद्धि के प्रतीक भी हैं। इन स्वरूपों की पूजा करते हुए स्त्री रूपी इन देवियों के भव्य रूप हमारी चेतना में उपस्थित रहते हैं। इन्हें शक्ति रूप इसलिए कहा जाता है, क्योंकि जब सृष्टि के सृजन काल में देव पुरूष, दानवों से पराजित हुए, तो उन्हें राक्षसों पर विजय के लिए दुर्गा से अनुनय करना पड़ा। एक अकेली दुर्गा ने विभिन्न रूपों में अवतरित होकर अनेक रक्षसों का नाश कर सृष्टि के सृजन को व्यवस्थित रूप देकर गति प्रदान की। प्रतीक रूप में ये रूप अंततः मनुष्य की ही विभिन्न मनोदशाओं के परिष्कार से जुड़े हैं। इन मनोदशाओं को राक्षसी प्रवृत्ति कह सकते हैं, जो मनुष्य की नकारात्मक विकृतियों के भी प्रतीक हैं। इन रूपों के महत्व को जानते हैं।
नवदुर्गा में शैल पुत्री प्रथम दुर्गा मानी जाती हैं। इनके हाथों में त्रिशूल और कमल पुष्प सुशोभित हैं। इनका वाहन वृषभ है। शैल पुत्री अपने पूर्वजन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या थीं और इनका नाम सती रखा गया। पिता की इच्छा के विरुद्ध सती ने भगवान शिव से विवाह किया। दक्ष ने एकबार महायज्ञ का आयोजन किया। किंतु इसमें शिव व सती को आमंत्रित नहीं किया। इसे सती ने शिव का अपमान माना और बिना बुलाए ही यज्ञस्थल पर पहुंच गईं। वहां उन्होंने अपने पिता को शिव को आमंत्रित करने के लिए बाध्य किया। किंतु प्रजापति ने शिव का उपहास उड़ाया और उन्हें बुलाने से इनकार कर दिया। तब सती ने क्रोधित होकर यज्ञ-कुंड में कूदकर अपने प्राणों की आहुति दे दी। शिव को जब सती के प्राण त्यागने का समाचार मिला तो उन्होंने अपने गणों को भेजकर यज्ञ का विध्वंस करा दिया। बाद में शिव सती के जले शव को कंधे पर लेकर भटकते रहे। पुराणों में उल्लेखित है कि इस दौरान सती के अंग बारह स्थानों पर गिरे, जिन्हें बारह ज्योतिर्लिगों की मान्यता प्राप्त है। अगले जन्म में यही सती शैल राज हिमालय के घर में पैदा हुईं और शैलपुत्री कहलाईं। इन्हें ही पार्वती कहा जाता है।
दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी का है, श्वेत वस्त्रधारी ब्रह्मचारिणी के एक हाथ में जपमाला और दूसरे में कमण्डल है। ब्रह्मचारिणी का जन्म पर्वतराज हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से हुआ था। पहले इनका नाम शुभ लक्षणों को देखते हुए पार्वती रखा गया। बाद में नारद मुनि ने हिमालय को बताया कि यही पार्वती पूर्व जन्म में सती थीं। इस रहस्य को जानने के बाद पार्वती में शिव को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो गई। इसके लिए देवी ने कठिन तपस्या की। इससे उनका शरीर कृशकाया में बदल गया। तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। तब ब्रह्मा ने उनके समक्ष उपस्थित होकर मनचाहा वर मांगने की प्रार्थना की। पार्वती ने शिव को मांगा। ब्रह्मा ने पार्वती को अशीर्वाद तो दिया ही, उनकी काया को भी सुंदर रूप में बदल दिया। यहीं ब्रह्मा ने तप का आचरण करने के कारण ब्रह्मचारिणाी का नाम दिया।
नवरात्रों के तीसरे दिन दुर्गा के शरीर से नई शक्ति के रूप में चंद्रघंटा की वंदना की जाती है। सिंह पर सवार ये देवी निडरता के साथ सौम्यता के गुणों से भी भरपूर हैं। इनके आभामंडल से अदृश्य शक्ति का विकिरण होता रहता है। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण है। इनके दस हाथ हैं, जिनमें खड्ग, अस्त्र-शस्त्र, बाण आदि विभूषित हैं। देवासुर संग्राम में इनके घंटे की भयानक ध्वानि से सैंकड़ों दैत्य मारे गए थे। इनकी मुद्रा हमेशा युद्ध के लिए तत्पर दिखाई देती है।
दुर्गा का चौथा स्वरूप कूष्मांडा देवी का है। इनका निवास सूर्यलोक में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और आभा सूर्य के समान सदैव प्रकाशित रहती है। सृष्टि के संपूर्ण प्राणियों में इन्हीं देवी का आलोक प्रदीप्त है। जब ब्रह्माण्ड का अस्तित्व नहीं था और चारों और अंधेरा था, तब इन देवी ने अपनी मंदमुस्कान द्वारा अंड अर्थात ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की। इसी कारण इन्हें कूष्मांडा कहा गया। सिंह पर सवार कूष्मांडा अष्ट भुजाधारी हैं। इनके हाथों में कमण्डल, धनुष-बाण, कमल-पुष्प, अमृत-कलश, चक्र गदा और सभी प्रकार की सिद्धियां व जपमाला सुशोभित हैं।
दुर्गा का पांचवां रूप स्कंदमाता का है। इनके पुत्र कार्तिकेय का एक नाम स्कंद है, इसलिए इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। सिंह पर सवार इन देवी की चार भुजाएं हैं। इनके दो हाथों में कमलपुष्प हैं एक हाथ वरदान की मुद्रा में है और दूसरा हाथ पुत्र स्कंद को गोद में लिए है। इस कारण ये पद्मासना देवी भी कहलाती हैं।
इनके बाद छठे दिन देवी कात्यायनी की पूजा की जाती है। कात्य नामक ऋषि की वंशावली में एक प्रसिद्ध ऋषि कात्यायन हुए हैं। ये दुर्गा के भक्त थे। इस भक्ति से प्रसन्न होकर दुर्गा ने कात्यायन को कोई वर मांगने को कहा। तब महर्षि ने दुर्गा से अपने घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का आग्रह किया। दुर्गा ने यही वरदान दे दिया। कुछ समय बाद जब पृथ्वी पर महिषासुर नाम के असुर का अत्याचार बढ़ गया, तब दुर्गा के तेज से कात्यायन की पत्नी की कोख से देवी कात्यायनी ने जन्म लिया। पुराणों में ऐसा कहा गया है कि इस तेज में ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तेज का भी समावेश है। चार भुजाधारी कात्यायनी का वाहन सिंह है। इनकी चार भुजाओं को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक माना गया है।
दुर्गा के सांतवें रूप को देवी कालरात्रि के नाम से जाना जाता है। इनकी काया अमवस्या की गहरी काली रात की तरह काली है। इनके मस्तक पर तीन नेत्र विद्यमान हैं, जो ब्रह्मांड के समान गोल तथा तीन लोकों के प्रतीक हैं। इनके केस घने एवं बिखरे हुए हैं। इनके गले में विद्युत ज्वाला सी प्रकाशित माला पड़ी हुई है। सांस लेते समय इनके नासिका छिद्रों से अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं। इनकी सवारी गधा है और ये चार भुजाओं वाली हैं। इनके दो हाथों में तलवार और नुकीला अस्त्र है। जबकि एक हाथ वरदान की मुद्रा में और दूसरा अभय की मुद्रा में है। इन देवी को राक्षस और भूत-प्रेत का विनाश करने वाली देवी माना जाता है।
दुर्गा पूजन के आठवें दिन महागौरी की उपासना की जाती है। महागौरी ने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए लंबे समय तक तपस्या की। इस समय उन्होंने धूप, आंधी, वर्षा और ठंड के थपेड़े सहे। इस कारण उनका शरीर कृशकाय और काला हो गया। अंत में जब भगवान शिव ने पार्वती रूपी इन महागौरी को पत्नी रूप में स्वीकार किया तब शिव ने अपनी जटाओं से निकलने वाली गंगा की जलधारा से पार्वती का शरीर धोया। इस पवित्र और शुद्ध गंगाजल से पार्वती का मैल धुल गया और उनका शरीर गौर वर्ण की तरह चमकने लगा। इसी कारण वे महागौरी के नाम से जानी जाने लगीं। इनका वाहन बैल है और इनकी मुद्रा अत्यंत शांत एवं सौम्य है।
नवरात्रि के अंतिम यानी नवें दिन सिद्धिदात्री की पूजा करने की परंपरा है। ये सभी रिद्धी-सिद्धियों की स्वामिनि हैं। पुराण कथाओं के अनुसार जब दुर्गा के मन में सृष्टि की रचना का विचार उत्पन्न हुआ, तब उन्होंने शिव को उत्पन्न किया। शिवजी ने उत्पन्न होने पर दुर्गा से सिद्धियों की मांग की। शिव को सिद्धियां प्रदान करने के लिए एक अंश से देवी सिद्धिदात्री का जन्म हुआ। जो सभी प्रकार की सिद्धियों की ज्ञाता थीं। बाद में सिद्धिदात्री ने शिव को 18 प्रकार की दुर्लभ, आमोघ और शक्तिशाली सिद्धियां दीं। इनसे ही शिव में अलौकिक शक्तियों का तेज उत्पन्न हुआ। इसके बाद शिव ने विष्णु की और विष्णु ने ब्रह्मा की उत्पत्ति की। ब्रह्मा को सृष्टि रचना का, विष्णु को सृष्टि पालन का और शिव को सृष्टि के संहार का दायित्व सुपुर्द किया।
ब्रह्माजी को जब नर एवं नारी के अभाव में सृष्टि की रचना असंभव लगने लगी, तब उन्होंने माता सिद्धिदात्री का स्मरण किया। तब सिद्धिदात्री ने प्रकट होकर सिद्धियों द्वारा शिव का आधा शरीर नारी का बना दिया। इस प्रकार शिव आधे नर और आधे नारी के रूप में अर्धनारीश्वर कहलाए। तब कहीं जाकर ब्रह्मा की सृष्टि सृजन संबंधी समस्या का समाधान हुआ। दुर्गा के इन स्त्री रूपों में नारी की इतनी महिमा होने के बावजूद हम हैं कि न केवल स्त्री के साथ दुराचार कर रहे हैं, बल्कि कोख में भी स्त्री-भू्रण की हत्या करने का महापाप कर रहे हैं। सही मायने में नवरात्रि व्रत उपवास का संदेश स्त्री के संरक्षण से जुड़ा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)