संपादकीय….सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा
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मध्यप्रदेश अब चुनाव की दहलीज पर खड़ा है, परंतु दोनों ही प्रमुख पार्टियों में अंदरूनी घमासान की स्थिति नजर आ रही है। भारतीय जनता पार्टी तो अनुशासन के नाम पर सख्त रवैया अपनाकर ठोस निर्णय ले लेती है, लेकिन कांग्रेस में ऐसा कुछ भी नहीं है। अभी चुनाव हुए नहीं हैं, सरकार बनी नहीं है और सीएम बनने को लेकर जंग शुरू हो गई है।
एक तरफ अति उत्साह में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने लगे हैं। ठीक है, कमलनाथ के नेतृत्व में चुनाव हो रहा है, पिछली बार भी हुआ था। और पिछली बार भी वे मुख्यमंत्री बन ही गए थे। अब सरकार ही चली गई तो इसमें कोई क्या कर सकता है। इस बार कांग्रेस नेताओं को फूक फूक कर कदम रखना चाहिए था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। उलटे और अधिक लापरवाही देखने को मिल रही है।
भाजपा के अंदरूनी सर्वे के नाम पर जो खबरें बाहर आ रही हैं, उनमें भाजपा को कम सीटें मिलना बताया जा रहा है। अब ये सर्वे सही है या गलत, या फिर इसके आंकड़े जो बाहर बताए जा रहे हैं, वो वाकई सर्वे में सामने आए हैं, यह कौन तय करेगा? कौन इसकी गारंटी देगा। और कांग्रेस के सर्वे में यदि यह कहा जा रहा है कि उसे बहुमत हासिल होता दिख रहा है, तो चार महीने में क्या माहौल ऐसा ही रहेगा?
सवाल बहुत सारे हैं। और माहौल सत्तापक्ष के खिलाफ भले ही दिख रहा हो, लेकिन भाजपा के बारे में सभी जानते हैं, ऐन वक्त पर वो माहौल बदलने में सक्षम है। इस पार्टी में सख्त फैसले ले लिए जाते हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा कभी देखने को नहीं मिला। अभी ही देख लो। नेताओं के जो बयान आ रहे हैं, वो भाजपा या सत्ता पक्ष के खिलाफ तो उलटे-सीधे आ ही रहे हैं, कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई को भी उजागर करते दिख रहे हैं। सीएम चेहरे का मुद्दा अभी से उठाने की बात क्यों उठाई जा रही है। अधिकांश वो लोग ऐसे बयान दे रहे हैं, जो पूर्व मुख्यमंत्री के समर्थक माने जाते हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री जहां हारी हुई सीटों को सुधारने की मुहिम में जुटे हैं, उनसे जुड़े लोग सीएम का मुद्दा उठा रहे हैं। आखिर इसके लिए लाइन कहां से मिल रही है? और यह मुद्दा उठाया ही क्यों जा रहा है? केवल भाजपा या सत्तापक्ष के खिलाफ बन रहे माहौल को देखकर यह अति उत्साह क्यों? और क्यों कमलनाथ समर्थक खुले आम कह रहे हैं कि सीएम तो कमलनाथ ही बनेंगे? उनके पास ऐसा कहने का अधिकार किसने दिया? चुनाव तो जीत जाएं, फिर सीएम और अन्य पदों की बात की जाए। एक बार और ऐसा ही हुआ था। कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष ने चुनाव के पहले न केवल अपनी केबिनेट की सूची बना जी थी, अपितु निगम-मंडल तक अपने लोगों को बांट दिए थे। हुआ क्या? सारी सूचियां धरी की धरी रह गईं।
अब तो हाईकमान भी कुछ ताकतवर होता दिख रहा है। कर्नाटक की जीत ने उसे नई ऊर्जा दे दी है। मध्यप्रदेश में यदि कांग्रेस की सरकार बनती दिख रही है, तो नेताओं के ऊटपटांग बयानों पर तो लगाम लगना ही चाहिए। कर्नाटक में क्या हुआ? हाईकमान ने प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बजाय सिद्धारमैया को क्यों सीएम बना दिया? यह बात मध्यप्रदेश में भी उठ रही है। लेकिन फिलहाल तो कांग्रेस को एकजुटता की जरूरत ज्यादा है। जीती हुई सीटों पर जीत न केवल पक्की करनी होगी, अपितु वहां वोट बढ़ाने की कवायद होना चाहिए। और हारी हुई सीटों पर नए और ऊर्जावान लोगों को टिकट देना होगा।
हमेशा तो यह होता आया है कि हमारे समर्थक को टिकट मिलना चाहिए, भले ही हार जाएं। और तो और सर्वे में भी फर्जीवाड़ा करके अपने आदमी को जीतने वाला उम्मीदवार साबित कर टिकट दिया जाता रहा है, और वो हार जाता है। यदि पांच हजार से अधिक वोटों से हारने वाले को टिकट नहीं देना तो नहीं देना, फार्मूल बने तो उस पर अमल भी हो।
खैर, ये फार्मूला तो अलग मुद्दा है, फिलहाल तो कांग्रेस को यदि मध्यप्रदेश में चुनाव वाकई जीतना है तो उसे अंतरविरोधी बयानों पर रोक तो सख्ती से लगानी ही होगी। न तो सीएम बनने और न ही इसके विरोध में कोई बयान आना चाहिए। अभी तो हाल यह है कि भाजपा कार्यकर्ता तो ठीक आम आदमी भी कहने लगा है कि ये तो अभी से लड़ रहे हैं, सरकार क्या चलाएंगे? प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ को इस बारे में सभी बड़़े नेताओं को बुलाकर सख्ती से कहना होगा कि यदि कोई भी सीएम चेहरे को लेकर बयान देता है तो कार्रवाई होगी, चाहे उनका समर्थक हो या कोई और। अन्यथा यदि जीतने की स्थितियां बन भी रही होंगी, तो पराजय का मुंह देखना पड़ जाएगा।
-संजय सक्सेना