सिमटते अख़बार और सोशल मीडिया में “सूचनाओं” का अंबार

 

अनेक अख़बार व कई न्यूज़ चैनल वेंटिलेटर पर 

सर्कुलेशन कम होने के बाद 70% विज्ञापन हुए बंद 

इंटरनेट “लील” रहा अख़बार। युवा नेट को मानते हैं भगवान।

कोरोना की पहली लहर ने अख़बारों को एनीमिक बनाया तो दूसरी लहर ने उनकी बची खुची कमर भी तोड़ दी है। बावजूद अपनी बेहतर विश्वसनीयता के अख़बार एक-एक कर बंद होते जा रहे हैं। उनमें काम करने वाले मीडियाकर्मी भी सड़क पर आते जा रहे हैं। वो खुद अपनी आवाज़ उठाने के लायक भी नहीं रहे हैं। क्योंकि मीडिया अब खेमों में इतना विभाजित हो चुका है कि अपनो की मौत भी उसे ज्यादा विचलित नहीं करती। नौकरियां गंवाने के साथ बीते सवा साल में कोरोना से क़रीब 500 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दी हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अख़बार अब PDF के रूप में जिंदा रहने की कोशिश में हैं। यह अख़बारों का वामनावतार है। इस बात पर तो चर्चा बहुत होती है कि मीडिया को क्या छापना/दिखाना चाहिए, क्या नहीं छापना/दिखाना चाहिए, लेकिन मीडिया और मीडिया के अपने हालात क्या हैं, इस पर तो खुद मीडियावाले भी चर्चा से बचते हैं।
कोविड-1 के समय मीडिया डेंजर झोन में चला गया था, अब कोविड-2 में मीडिया में दो तरह के बदलाव नमूदार हुए और हो रहे हैं। पहला तो “जनता की आवाज” समझे जाते रहे ज्यादातर अख़बार अब अपने वजूद की संध्याछाया से जूझ रहे हैं। इस देश में अख़बारों की 240 साल की महान परंपरा मिटने की कगार पर है। वो पत्रकारिता, जिसने तमाम ख़ामियों के बावजूद आजादी के आंदोलन से लेकर स्वतं‍त्र भारत में भी कई दूसरे आंदोलन और समाज सुधार के अभियान चलाए, भंडा फोड़ किए अब खुद पाठकों को तलाश रही है। आश्चर्य नहीं कि दो दशक बाद आने वाली नस्ल अख़बार की दुनिया को इतिहास के एक अध्याय के रूप में पढ़े। बड़े अख़बारों का आकार सिमट रहा है तो ज्यादातर छोटे अख़बार छपना बंद होकर डिजीटल एडीशन पर चले गए हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अख़बारों का PDF और ख़बरों का लिंक कल्चर तेजी से उभर रहा है। अपनी ख़बर पढ़वाने के लिए भी हाथ-पैर जोड़ना पड़ रहे हैं कि मेहरबानी कर फलां लिंक को खोलें, लाइक या कमेंट करें। यानी आपका एक लाइक अथवा कमेंट किसी ख़बरनवीस के लिए जिंदगी की खुराक हो सकता है।
यहां तर्क दिया जा सकता है ‍कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इससे मीडिया अपवाद कैसे हो सकता है? अखबारों ने अपनी जिंदगी जी ली, जी भर कर खेल लिया। अब बदले वक्त में इंटरनेट ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। मिलेनियल पीढ़ी नेट को ही भगवान मानती है। हाथ में अख़बार लेकर पढ़ना, उसके स्पर्श से रोमांचित होना, उसे सुबह की चाय का अनिवार्य साथी समझना, बिना अख़बार के दिन सूना-सूना महसूस करना, यह सब 20 सदी के अहसास हैं। या यूं कहें कि यह विचार और सूचना की भूख कम, आदत की लाचारी ज्यादा है। अब जब सूचना के तमाम साधन मौजूद हैं, तब अख़बार की जरूरत ही क्या है ? मोबाइल पर हर सूचना हर क्षण मौजूद है।
मुझे याद है कि 2011 में एक प्रतिष्ठित पत्र में लेख छपा था कि भारत में प्रिंट उद्दयोग के इतने “अच्छे दिन” क्यों चल रहे हैं, जबकि बाकी दुनिया में इंटरनेट धीरे-धीरे अख़बारों को लील रहा है। ये वो दिन थे, जब अख़बारों में नए-नए संस्करण निकालने की होड़ सी मची थी। “हमारे इतने संस्करण” यह गर्व के साथ कहा जाता था। अब यही बात दबी ज़बान से भी करने को लोग तैयार नहीं है। नोटबंदी के बाद दूसरा बड़ा झटका कोविड ने पिछले साल दिया, जब लोगों ने बड़ी तादाद में संक्रमण के डर के मारे अख़बार बंद कर दिए। बड़े अख़बारों का सर्कुलेशन 50 से 60 प्रतिशत कम हो चुका है। विज्ञापन राजस्व क़रीब 70 फीसदी तक घट गया। हजारों पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की नौकरियां चली गईं और यह सिलसिला जारी है। अख़बार में काम करना दु:स्वप्न बन गया। कुछ ऐसी ही हालत इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की भी है। मीडिया जगत ने सरकार से बेलआउट पैकेज भी मांगा। लेकिन सरकार के लिए दूसरी चिंताएं ज्यादा महत्वपूर्ण थीं और जागरूक मीडिया कोई भी सरकार नहीं चाहती। बीते सवा साल में कितने अख़बार या चैनल बंद हुए अथवा वेंटीलेटर पर जिंदा हैं, इसका कोई निश्चित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सैकड़ो में है। अख़बार बंद होने से बेरोजगार हुए अनेक पत्रकार अब डिजीटल मीडिया या दूसरे नए मीडिया में अपना भविष्य तलाश रहे हैं। कई पत्रकार खुद प्रकाशक बन गए हैं। हालांकि वहां भी अपनी पहचान बनाने और पहचान बचाने की मारामारी है। इस बीच कई नवाचार भी देखने को मिल रहे हैं। मसलन नई न्यूज साइट्स, फैक्ट चैक पत्रकारिता, डाटा विश्लेषण पत्रकारिता, सनसनीखेज बहसें आदि। इनमें से कई तो लोगों से चंदा करके अपने वेंचर चला रहे हैं। हर ख़बर को मसालेदार बनाने का चलन आम होता जा रहा है। उधर यू-ट्यूब आदि पर तो ऐसे पत्रकारों का सैलाब-सा आया हुआ है और मौलिकता दांव पर लगी हुई है। सोशल मीडिया में जो दिखाया, बताया जा रहा है, वो कितना सही, कितना गलत है, कितना ज्ञान और कितना एजेंडा है, समझना मुश्किल है।
दूसरी तरफ देश में छपने वाले अख़बारों की संख्या सिकुड़ने से सोशल मीडिया और खासकर व्हाॅट्सएप पर हम एक नया “PDF कल्चर” पनपते देख रहे हैं। अपने ग्रुप में यथाशीघ्र जमाने भर के अख़बारों की PDF उपलब्ध कराना भी अब एक “नई समाज सेवा” है। यह बात अलग है कि इन्हें मुहैया कराने वाले ज्यादातर PDFसेवकों और PDFपाठकों को भी “पीडीएफ” का फुल फार्म ( पोर्टेबल डाॅक्युमेंट फार्मेट ) और अर्थ भी शायद ही मालूम होता हो। लोग इतना ही जानते हैं कि Whatsapp पर झलकने वाला अख़बार ही PDF है। आंखों पर जोर डालने वाले ये ऑनलाइन ‍अख़बार कितनी गंभीरता से पढ़े जाते हैं, कहना मुश्किल है। अलबत्ता लेकिन किसी खास लेख या ख़बर को पढ़वाने के लिए भी लेखक या रिपोर्टर को पूरा दम लगाना पड़ता है। यानी समग्रता में अख़बार पढ़ना और उस पर मनन का युग भी समाप्ति की और है। यह PDF पत्रकारिता भी बच्चों को रात में तारे दिखाने जैसी है। लेकिन इससे इतना फ़ायदा जरूर हुआ है कि वो तमाम अख़बार, जिनके शीर्षक भी आपके लिए मनोरंजन का कारण हो सकते हैं, खूब ऑनलाइन हो रहे हैं।
इसी के साथ एक नई डिजीटल पत्रकारिता संस्कृति भी फल-फूल रही है। गुजरे जमाने में लोग अख़बार मांग कर पढ़ते थे, अब डिजीटल में अपनी ख़बर या लेख लोगों को पढ़वाने गुहार करती पड़ती है। एक ही ख़बर या सूचना पचासों ग्रुपों में अलग-अलग लिंक के रूप में पोस्ट होती रहती है। हर लिंक आपसे लाइक और कमेंट मांगती है ताकि उसके हिट्स बढ़ें। कुल मिलाकर माहौल किसी धार्मिक स्थल पर जमे भिक्षुओं की माफ़िक होता है। यानी “एक लाइक” या “एक हिट” का सवाल है बाबा ! इस “लिंक सैलाब” के चलते डिजीटल मीडिया में विविधता का भारी का अकाल है। मौलिकता का घोर टोटा है। संपादन की कंगाली है। ऊपर से एक ग्रुप से बचो तो वही ख़बर दूसरे ग्रुप में लिंक के रूप में आपको चुनौती देती लगती है। संतोष की बात केवल इतनी है कि आप सोशल मीडिया पर जो चाहो, जैसा चाहो, कह सकते हैं, पोस्ट और फारवर्ड कर सकते हैं। क्योंकि किसी के पास सोचने, समझने और मेहनत के साथ उसे अभिव्यक्त करने का न तो वक्त है और न ही ऐसी कोई इच्छा है। दरअसल सोशल मीडिया “ख़बरों का लंगर” है। जिसको जो मिले, जैसा बने, परोसता रहता है। लोग भी उसे पूरा पढ़े या समझे बगैर फारवर्ड करते रहते हैं। यानी यहां उद्देश्य सूचना की जिज्ञासा के शमन से ज्यादा उसकी चिंगारी सुलगाते रहना होता है। सोशल मीडिया के गुलाम हो चुके, लोगों की मजबूरी यह है कि उन्हें भी हर पल कुछ नया चाहिए। वो सही है या गलत है, इससे किसी को कोई खास मतलब नहीं होता।
सोशल मीडिया की यह “अराजकता” भी अब एक बड़ी ताकत बन चुकी है, जो सत्ताओं को भी हिला देती है। भविष्य का मीडिया यही है। अख़बार चाटकर उससे दिमागी भूख मिटाने का दौर खत्म हुआ समझो। सोशल मीडिया पर हर पल आने और फारवर्ड होने वाली सूचनाएं चौंकाने, भड़काने या फिर डराने वाली ज्यादा होती है। इन पर अविश्वास के साथ विश्वास करते जाने का एक नया सामाजिक संस्कार हिलोरें ले रहा है। ऐसा संस्कार जिसकी कोई जवाबदेही नहीं है। हालांकि सरकार सोशल मीडिया पर कानूनी नकेल डालने की कोशिश करती रहती है, लेकिन वह बहुत ज्यादा कामयाब नहीं होगी ( उससे राजनीतिक प्रतिशोध का मकसद भले पूरा हो जाए)। क्योंकि यह मूलत: बिगडैल या स्वच्छंद सांड का बस्ती में घूमना है। लोग उससे डरते भी हैं, साथ में उसे देखते और छेड़ते भी हैं।
किसी ने कहा था कि ये दुनिया अब “कोविड पूर्व” और “कोविड पश्चात” में विभक्त हो जाएगी। अख़बारों की थमती सांसे, मीडियाकर्मियों की बेकारी-लाचारी और सोशल मीडिया की बेखौफ लंगोट घूमाने की अदा यही साबित करती है कि तकनीक के साथ सूचनाओं की बमबारी और बढ़ेगी। लोग उससे घायल भी होंगे। लेकिन सूचनाओं की विश्वसनीयता वेंटीलेटर पर पड़ी दिखेगी। इसका आगाज़ हो चुका है।

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