साइंटिफिक-एनालिसिस: लोकतंत्र मांगे मीडिया का संवैधानिक चेहरा

साइंटिफिक-एनालिसिस

लोकतंत्र मांगे मीडिया का संवैधानिक चेहरा

कार्यपालिका का खेला “हेट-स्पीच” की जननी संसद, चौकीदार न्यायपालिका और मीडिया पोषक

हेट-स्पीच यानि हिन्दी में घृणित या नफरती भाषण होता हैं और कानून के हिसाब से कौनसे शब्द कब इसके दायरे में आते हैं या नहीं उसकी कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं हैं | सड़कों एवं सोशियल मीडिया में जिधर लोगों का ट्रैंड बनाया जाता हैं उसी करवट ऊंट को बैठा दिया जाता हैं | यहां पर भी कोई व्यवस्था या सिस्टम नहीं हैं जिससे सही रूप से पता चल सके कि ट्रैंड कौनसी दिशा में बना हैं बस यहाँ ज्यादा मीडिया के संगठन जिस दिशा में लग पडते हैं या लगा दिये जाते हैं वो ही हेट-स्पीच के दायरे में चला जाता हैं या बाहर निकल जाता हैं |

खेमेबाजी वाले आज के राजनैतिक घालमेल ने जिस तरह भीडतंत्र को उकेरा हैं उससे भविष्य की लकीरें बनने लगी हैं जो बता रही हैं कि आने वाले समय में न्यायाधीशों के फैसलों को भी हेट-स्पीच का जामा पहना दिया जायेगा | वैसे भी आजकल बहुतायत मामलों में न्यायपालिका सजा देकर व्यवस्था को विघटन से रोकने का पथ प्रदर्शित नहीं करती बल्कि लम्बी चौडी सिर्फ जुबानी कठोर टिप्पणी कर समय की लम्बी यात्रा पर निकल पडती हैं |

प्रधानमंत्री सदन के नेता के रूप में सभी सांसदों को पुराने संसद-भवन यानि संविधान-सदन से नये संसद-भवन में ले गये और राज्य सभा व लोकसभा के अध्यक्षों को पीछले दरवाजों से आना पडा जबकि नेतृत्व व संविधान के दायरे में सभी को रखने की जिम्मेदारी इनकी हैं | संविधान की नई प्रतियां छपवाकर सभी सांसदों को पकडाई गई परन्तु समय के साथ जो संसोधन हुये उन्हें छोड़ कर सभी की फसलियों में पानी भरकर छाती फुलाई गई कि अंग्रेजों से लड़कर इन्होंने ही देश को आजाद करवाया और असली लोकतंत्र ये ही अब लेकर आये हैं | जब पहली बार नये संसद-भवन में कामकाज शुरू हुआ तो छाती का पानी पेट के रास्ते मुंह से अपशब्दों के रूप में बाहर निकला तब सबको पता चल गया कि हेट-स्पीच की जननी का खिताब ये लोग अपने दिमाग में कीडे के रूप में छुपाकर साथ लाये हैं |

राज्यसभा के सभापति तो सिर्फ झण्डा फहराने के ख्यालों में रह गये और लोकसभा अध्यक्ष ने अपनी चेयर के माध्यम से देशवासीयों को जिन्होंने इन सभी सेवकों को करीबन 1200 करोड़ रूपये की नई संसद के रूप में सौगात अच्छे काम करने के लिए दी उन्हें धन्यवाद के रूप में गालियां लाईव टेलिकास्ट के माध्यम से उपहार में दे दी | यदि जनता पांच दिन का समय मांग 4 दिन में भाग जाने वाले कामचोर सेवकों के भरोसे नहीं रहती व इन पैसों को आपस में बांट लेती तो करीबन हर ईंसान की जेब में लगभग 8.50 करोड़ रूपये आ गये होते | गालियों का क्या वो तो किसी भी सिनेमाघर में जाकर सस्तें में सुन आते, वहां ऐसे-ऐसे धुरंधर आगये हैं जो समय-समय पर गालियों में स्टोरी मिलाकर अच्छे से परोस देते हैं | लोकसभा अध्यक्ष ने असंसदीय भाषा का टैग लगा रिकॉर्ड से हटाने का बोलकर हेट-स्पीच की जननी का रोल निभा दिया और लाईव टेलिकास्ट के चोर दरवाजे से हेट-स्पीच को बाहर निकाल देश की सड़कों पर खुल्ला छोड दिया |

मीडीया का कोई संवैधानिक चेहरा नहीं और चौथे खम्भें के रूप में कोई कानूनी जवाबदेही स्तम्भ नहीं यह तो सिर्फ सड़कों पर बिखरे टेढ़े-मेढ़े, नुकिले, चपटे व भौंडे पत्थर के टुकड़े हैं जिन्हें कोई भी साम, दाम, दण्ड, भेद के माध्यम से एक-एक पत्थर उठाकर फेंकता रहता हैं | इसी का फायदा उठाकर संसद अपने विशेषाधिकार का चौला ओढ़ संविधान के नियमों व कानूनों से बच जाती हैं | संसद अपने रिकॉर्ड को डिलिट करे या रिकॉर्ड में रखें यह उसके विशेषाधिकार में आता हैं परन्तु लाईव-टेलिकास्ट के साथ यह मीडिया के संवैधानिक अधिकार व दायरे में चला जाता हैं | इसी मर्यादा व नैतिकता पर चले तो अदालतें न्याय नहीं कर सकती क्योंकि हर जगह परिवार, समाज, जातिगत समूह, धर्म, सम्प्रदाय के विशेषाधिकार आड़े आ जायेंगे |

अब मीडिया के इसी संवैधानिक चेहरे के अभाव में सत्ता अंग्रेजों के फूट डालो राज करो के सिद्धांत पर चल रही हैं व सांसद के अपशब्दों को पार्टी, पक्ष-विपक्ष, जात-पात, धर्म-संप्रदाय में बांट रही हैं ताकि जनता यह न पूछे की संसद ने इन अपशब्दों पर क्या कानूनी कार्यवाही करी, राजनैतिक दल आपस मेंं अन्दर लडे़, मारे-पिटे जो करे परन्तु हैं तो एक ही थाली के चट्टे-बट्टे | ये ही सांसद लोग और इनके पार्टी सहयोगी अब मीडीया पर आकर आपस मेंं अलग-अलग दल व गुट में बंटकर दिखावटी खेल कर रहे हैं और एक-दूसरे का नाम लेकर देशवासीयों को उसने ऐसा कहां, इन्होंने पहले ऐसा कहां कहकर गालियां पर गालियां सुना रहे हैं |

न्यायपालिका तो हेट-स्पीच की चौकीदार बनी पड़ी हैं वो तो संसद का विशेषाधिकार बोलकर न तो वो अन्दर घुसकर अपने संवैधानिक कर्तव्य का पालन कर रही हैं और न किसी दूसरे को जाने देती हैं | जब एक बार लाईव टेलिकास्ट से सार्वजनिक हो गया तो कौनसा विशेषाधिकार बचता है | अदालतों में कई हेट-स्पीच के मामले चल रहे हैं परन्तु हर बार संसद या सरकार यह व्यवस्था करें, ये कमेटी बनाये, गाईडलाइन तय करे ऐसा बोलकर मीडिया के संवैधानिक चेहरे होने को टाल रही हैं | संसद यानि विधायिका का कार्य सिर्फ कानून बनाना हैं, कार्यपालिका यानि तथाकथित सरकार का काम सिर्फ व्यवस्था चलाना है, लोकतंत्र में किसी भी क्षेत्र में न्याय करना न्यायपालिका का काम हैं चाहे वो राष्ट्रपति-भवन ही क्यों ना हो यहि तो संविधान कहता हैं | संविधान की प्रति तो संसद-भवन के अन्दर रखी हैं इसलिए शायद न्यायाधीश उसको पढ़ नहीं पा रहे लगते हैं | इस वजह से आपका साइंटिफिक,-एनालिसिस शुरु से कहता आ रहा हैं कि संविधान की प्रति उच्चतम न्यायालय के सभागार में रहनी चाहिए |

मीडीया का संवैधानिक चेहरा होता तो वह इस पर एक सामुहिक रिपोर्ट बनाता व संवैधानिक रूप से सीधे न्यायपालिका या राष्ट्रपति को भेज कार्यवाही करने की कानूनी रूप से अनुशंसा कर देता | जमीनी सच्चाई तो यह हैं कि मीडिया के चन्द सम्पादक देश के लिए जान हथेली पर लेकर चलने वाले भारतीय सेना के अनुरोध पर एक छोटी सी रिपोर्ट बना दे तो उन्हें आम आदमी के अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में तुरन्त न्यायपालिका से शरण मांगनी पडती हैं | यह कड़वा सच हैं लोकतंत्र के स्तम्भ मीडिया का | राष्ट्रपति को जाने दो वो तो 400 कमरों के आलीशान महलनुमा भवन के चकाचौंध में मग्न हैं उन्हें मीडिया के संवैधानिक चेहरे के अभाव में अपनी संवैधानिक कुर्सी के लंगडेपन का दर्द तक महसूस नहीं हो रहा तो बाहर क्या हो रहा हैं व जनता को अपशब्द क्यों सुनने पड़ रहे है उससे उनके कान पर कौनसी जू रेंग जायेगी |

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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