संविधान का मखौल उड़ाता शाहीन बाग

डॉ. मयंक चतुर्वेदी:
एक हाथ में तिरंगा और दूसरे में भारतीय संविधान की कॉपी, लोगों का हुजूम और एक ही रट- हम लोकतंत्र की हत्या के विरोध में धरना दे रहे हैं। देखते ही देखते इस धरने को 51 दिन बीत चुके हैं। दूर से आप धरने को देखेंगे तो लगेगा, वाह क्या बात है। लेकिन जब आप इसकी गहराई में जाते हैं तो मन विद्रूपता से भर उठता है। कुछ पल के लिए यह भी आपको लग सकता है कि ऐसे लोकतंत्र को कैसे अच्छा माना जाए, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर तिरंगे और संविधान की आड़ में लोकतंत्र की हत्या करने का ही कुचक्र रचा जा रहा हो। वस्तुत: शाहीन बाग सीधे तौर पर गहराई से देखने और समझने पर यही बता रहा है कि देश तोड़नेवालों ने अब अपने पैंतरे बदल दिए हैं। लोकतंत्र की सर्वसमावेशी ताकत के बीच तमंचे को अपना हथियार न बनाते हुए देश तोड़नेवालों ने इसबार बड़ी चालाकी से इसकी ताकत (संविधान-तिरंगा) राष्ट्रीय ध्वज को ही अपना हथियार बना लिया है। यह कैसा विरोधाभास है कि यहां बैठे लोग अपने लिए आजादी मांग रहे हैं। कहने को यह आजादी देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से लेकर नागरिक संशोधन कानून (सीएए) को लेकर है लेकिन इसकी आड़ में जो नारे और भाषणबाजी यहां हो रही है, (देश तोड़ने के संदर्भ में) वह इतनी खतरनाक है कि यहां उसका उल्लेख करना भी एक तरह से भारत की सार्वभौमिकता एवं सर्वसमावेशिता के सिद्धांत का अपमान होगा। इसके लिए आज सोशल मीडिया बहुत कुछ बयां कर रहा है।
यह कोई देखना नहीं चाहता कि जिस संविधान की यहां दुहाई दी जा रही है, उसी भारतीय संविधान ने संसद को यह ताकत दी है कि वह कोई भी कानून बनाकर उसे देशभर में लागू करवाए। यदि कोई कानून पूर्व में सही हो किेंतु वर्तमान में सही नहीं है तो उसे लोकहित में समाप्त कर दे। यही भारतीय संविधान देश के महामहिम राष्ट्रपति को यह ताकत देता है कि वह संसद द्वारा पारित कानून पर स्वविवेक से संवैधानिक नियमों के तहत विचार करें और उन्हें आगे कानून बना देना है अथवा नहीं, यह निर्णय लेकर अपनी अंतिम मुहर उस पर लगाएं।
यह एक बड़ा प्रश्न है कि विधिसम्मत बने जिस कानून का शाहीन बाग में विरोध हो रहा है, क्या उस ‘‘सीएए’’  में कहीं संवैधानिक नियमों की अवहेलना हुई है? यदि वह राज्यसभा में पास होता है, लोकसभा में पास होता है, एक सिस्टम के अंतर्गत राष्ट्रपति उसपर विधिवत अपनी मुहर लगाते हैं तो फिर यह विरोध किसलिए? इसके क्या मायने हैं? क्या कुछ मुट्ठीभर लोगों को यह इजाजत दी जा सकती है कि वे लाखों लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को बंधक बना लें ? जैसा कि इन दिनों शाहीन बाग में देखा जा रहा है। पूरी सड़क रोक रखी है। लोग परेशान हैं। बीमार तक को निकलने का रास्ता नहीं दिया जा रहा। अब जो लोग इस धरने से परेशान हो रहे हैं, वे अपना आपा तक खोने लगे हैं, कहीं कोई बंदूर लेकर इन प्रदर्शनकारियों के विरोध में सड़क पर आ रहा है तो कहीं इनका विरोध इन्हीं के तरीके से हाथ में तिरंगा लेकर सड़कों पर शुरू हो गया है।
जो लोग शाहीन बाग के बहाने लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे हैं, उनका मकसद क्या है? यदि ये अपनी आजादी की बात कह रहे हैं और इसके पीछे वे अपने संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हवाला देते हैं तो क्या उन बहुसंख्यक लोगों के मौलिक अधिकार नहीं, जो इस सड़क का नियमित तौर पर इस्तेमाल करते हैं? जो बंदूक लेकर हवा में इस आन्दोलन के विरोध में फायर करेगा, वह कानून तोड़ेगा, उससे पुलिस पूछताछ करेगी। हो सकता है कि न्यायालय भी ऐसे व्यक्ति को लेकर पुलिस को रिमाण्ड पर लेने का लम्बा वक्त दे दे। जो बिना इजाजत इस धरने के विरोध में अचानक सड़कों पर उतरेगा, पुलिस उसपर भी कानून तोड़ने के तहत कार्रवाई करेगी और जेल में डाल देगी लेकिन जो बिना पुलिस की इजाजत लिए पिछले कई दिनों से शाहीन बाग को बंधक बनाए हुए हैं, यही पुलिस उनकी चारों ओर से सुरक्षा करती नजर आएगी।
वस्तुत: क्या यह विरोधाभास किसी को दिखाई नहीं दे रहा है? वास्तविकता में संविधान का मखौल कौन उड़ा रहा है? वे जो भारतीय संविधान से चुनी हुई सरकार से आजादी चाहते हैं? उसके विरोध में नारे लगाते-लगाते इतने बेखौफ हो जाते हैं कि ऐसा कुछ भी बोलने लगते हैं जो सीधे-सीधे भारतीय संविधान और खासकर देश के लोकतंत्र के लिए चुनौती है या वे लोग आज देश के लिए खतरा हैं जो सहज तरीके से अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीना चाहते हैं। इस सड़क पर चलते हुए अपने काम पर जाना और फिर सुरक्षित अपने घर लौटना चाहते हैं। अब इस संदर्भ में विचार आपको करना है कि आजादी के नाम पर देश के संविधान सम्मत कानून को नहीं मानने की जिद पर अड़े रहकर भारतीय संविधान और लोकतंत्र को वर्तमान में चुनौती कौन दे रहा है?
(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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