वेद, भगवान के नि:श्वास हैं और गीता भगवान की वाणी है | नि:श्वास तो स्वाभाविक होते हैं,पर गीता भगवान ने योग में स्थित होकर कही है | अत: वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है।
*न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषत:|
*परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया ||
( महाभारत आश्व०१६/१२-१३ )
गीता उपनिषदों का सार है | गीता की बात उपनिषदों से ही विशेष है। गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है | मतभेद यदि कोई है तो गीता में नहीं , प्रस्तुत टीकाकारों में है | गीता में भगवान साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं | सगुण निर्गुण, साकार- निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि सब रूप परमात्मा के ही अंतर्गत हैं | समग्र रूप में कोई भी रूप बाकी नहीं रहता | किसी की भी उपासना करें, सम्पूर्ण उपासनाएं, सम्पूर्ण दर्शन, समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं | अत: सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है, परमात्मा के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ भी नहीं- इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है | गीता का तात्पर्य *वासुदेव: सर्वम्* में है | एक परमात्म तत्व के सिवाय दूसरी सत्ता की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है और दूसरी सत्ता की मान्यता मिटने से निवृत्ति की दृढता होती है | प्रवृत्ति का उदय होना ‘भोग’ है और निवृत्ति की दृढता होना ‘योग’ है |
गीता *सब कुछ परमात्मा है* — ऐसा मानती है और इसी को महत्त्व देती है | संसार में कार्यरूप से, कारणरूप से, प्रभावरूप से, सब रूपों से “में-ही-में-हूं” यह बताने के लिये भगवान ने गीता में चार जगह ( सातवें, नवें, दसवें, और पन्द्रहवें अध्याय में ) अपनी विभूतियों का वर्णन किया है | ब्रह्म ( निर्गुण- निराकार ), कृत्स्न अध्यात्म (अनंत योनियों के अनंत जीव ), अखिल कर्म ( उत्पत्ति- स्थिति- प्रलय आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ ), अधिभूत ( अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत् ) अधिदैव ( मन, इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता ) तथा अधियज्ञ ( अंतर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप )- ये सब -के – सब “वासुदेव:सर्वम् “ के अंतर्गत आ जाते हैं ( सातवें अध्याय का उन्तीसवाँ -तीसवां श्लोक ) | तात्पर्य है कि सत् , असत् और उसके परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं –
त्वमक्षरं सद्सत्त्परं यत्।
( गीता ११/३७)
संसार अपने राग के कारण ही दीखता है | राग के कारण ही दूसरी सत्ता दीखती है | राग न हों तो एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | जैसे भगवान ने कहा है –
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:।
( गीता १५/१५ )
मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूं | जिस हृदय में भगवान रहते हैं, उसी हृदय में राग-द्वेष, हलचल, अशांति होते हैं | हृदय में ही सुख होता है और हृदय में ही दु:ख आता है | समुद्र मंथन में वहीं से विष निकला, वहीं से अमृत निकला | भगवान शंकर ने विष पी लिया तो अमृत निकल आया | इसी तरह राग द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा निकल आएंगे | सन्त महात्माओं के हृदय में राग द्वेष नहीं रहते; अत: वहाँ परमात्मा रहते हैं | गीता, ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को समकक्ष और लौकिक बताती है | क्षर ( जगत् और अक्षर ( जीव ) दोनों लौकिक हैं –
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
( गीता १५- १६/१६ )
पर भगवान अलौकिक हैं।
उत्तम:पुरुषस्त्वन्य:।
( गीता १५/१७ )
क्षर को लेकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञान योग चलता है; अत: कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों लौकिक हैं | परन्तु भक्तियोग भगवान को लेकर चलता है; अत: भक्तियोग अलौकिक है |
भगवान की वाणी बड़े बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी ठोस और श्रेष्ट है; क्योंकि भगवान, ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं—
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:।
( गीता १०/२ )
अत: कितने ही बड़े ऋषी – मुनि, सन्त महात्मा क्यों न हों और उनकी वाणी कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, पर वह भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी *गीता* की बराबरी नहीं कर सकती |