विचार की शक्ति का प्रभाव

 

 

हृदयनारायण दीक्षित:

‘सोच विचार’ की शक्ति बड़ी है। कुछ लोग सकारात्मक सोचते हैं। वे प्रकृति की घटनाओं में अपने लिए कल्याण देखते हैं। ऐसे मनुष्य सामान्य कार्य व्यवहार में भी शुभ की उपस्थिति सोचते हैं। वे अस्वस्थ दशा में शीघ्र स्वस्थ होने की गहरी आशा से भरे पूरे होते हैं। ऐसे लोग प्रायः ईश्वर या देव आस्तिक होते हैं। वे प्रकृति की हरेक घटना, आपदा या शुभदाता संयोग को ईश्वर या देव कृपा मानते हैं कि ईश्वर सबकुछ ठीक करता है। वे आशावादी होते हैं। इनसे भिन्न प्रकृति के लोग भी होते हैं। वे हर घटना में अशुभ की आशंका देखते हैं। अनावश्यक रूप से निराश रहते हैं। निराशा का वातावरण फैलाते हैं। विचार की शक्ति से मनोबल बढ़ाने की मनोवैज्ञानिक पद्धति काफी प्राचीन है।

अथर्ववेद के अनेक मंत्रों में रोगी से कहा जाता है कि हम आपके रोग को अमुक-अमुक अंगों से दूर करते हैं। रोगी को भी प्रेरित करते हैं कि हम स्वस्थ हो रहे हैं। स्वयं को स्वस्थ होने का सुझाव स्वयं द्वारा ही देना भारत के बाहर भी प्रचलित था। लेकिन इसके प्राचीन सूत्र अथर्ववेद में हैं। उपनिषदों में भी हैं। मुण्डकोपनिषद् (3.1.10) में सोचने और प्रगाढ़ भाव से श्रेष्ठ की इच्छा करने से मिलने वाले फल का उल्लेख है, “वह भोगों की कामना करता है-यान कामान् कामयेत। वह लोकों का चिंतन करता है-यं यं लोकं मनसा संविभाति। उसे वे भोग व लोक प्राप्त हो जाते हैं।” यहां सोच विचार के प्रभाव से शत-प्रतिशत इच्छापूर्ति की घोषणा है। सोचने में प्रत्यक्ष भौतिक क्रियाएं और उपकरणों के प्रयोग नहीं है। विचार की शक्ति का प्रभाव प्रत्यक्ष है।

जादू को मेस्मरिज्म कहा जाता है। वियना के विद्वान फ्रेडरिक एन्टोन् मेस्मर ने विचार शक्ति पर तमाम भौतिक प्रयोग किए थे। मेस्मर के नाम पर ऐसी गतिविधियों को मेस्मरिज्म कहा जाता है। अथर्ववेद के अनुसार मनुष्य शरीर में प्रवाहित वायु के कई रूप हैं। वायु भीतर ले जाना प्राण है और बाहर आना अपान। प्राण की शक्ति का वर्णन अथर्ववेद के अलावा उपनिषदों में भी है। मेस्मर की स्थापना है कि प्राण शक्ति को स्पर्श द्वारा अन्य व्यक्ति में हस्तांतरित किया जा सकता है। मेस्मर का जन्म 1734 में हुआ था। स्पर्श द्वारा स्नायु रोगों को ठीक करने की विधि पद्धति और ज्ञान का विकास अन्य विद्वानों ने भी किया है। अथर्ववेद में ऐसे अनेक प्रसंग हैं। रोगी को छूते हुए स्वस्थ होने के आदेश देने, मंत्र पाठ करते हुए शरीर के रुग्ण अंशों तक विचार तरंग प्रेषित करने के अनेक विवरण हैं। अथर्ववेद में प्राण की महत्ता है। प्राण के कारण ही प्राणी है। उपनिषदों में भी प्राण की महत्ता है। कठोपनिषद् में प्रकृति-अदिति को प्राण से उत्पन्न बताया गया है। प्रश्नोपनिषद् में संसार धारण करने वाली शक्तियों में प्राण वरिष्ठ हैं-वरिष्ठः प्राणः। प्राण का ज्ञानी श्रेष्ठ होता है। अथर्ववेद के ऋषियों ने मंत्र, स्पर्श, आदेश, सुझाव आदि तमाम विधियों से प्राण शक्ति का जागरण व हस्तांतरण संभव किया था। प्राण का अतिरेक सक्रिय जीवन गति में परिवर्तित होता है। प्राण की कमी रूग्णता में प्रकट रहती है। प्राण की नितांत कमी की स्थिति में वेन्टीलेटन उपकरण के माध्यम से आक्सीजन देते हैं। अथर्ववेद के रचनाकाल में वेन्टीलेटर नहीं था। ऋषि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्राण हस्तांतरण के प्रयोग करते थे।

विचार का प्रभाव प्राण पर पड़ता है। भय की स्थिति में प्राण श्वास की गति बदल जाती हैं। निर्भय विचार की मनोदशा में प्राण की गति सामान्य होती है। बेचैनी और मन उद्विग्न होने की मनोदशा में अतिरिक्त प्राण की जरूरत होती है। बेचैन लोग गहरी सांस लेते देखे जाते हैं। वे जानबूझकर ऐसा नहीं करते। यह प्राण की कमी को पूरा करने की शरीर की अपनी स्वचालित प्रतिक्रिया है। योजनापूर्वक प्राण शक्ति के संवर्द्धन की व्यवस्था ही प्राणायाम है। इससे विचार की दिशा बदलती है। स्पर्श करते, मंत्र पाठ सहित सुझावों के माध्यम से अथर्ववेद के समाज में मनोदशा बदलने की तकनीकी थी। वाह्य सुझावों के प्रयोग से आत्म सुझाव की प्रकृति का संवर्द्धन संभव है। आत्म सुझाव के द्वारा मनोबल की वृद्धि आसान है। मनोबल का उच्चस्तर शरीर बल का क्षय रोकता है। रोगमुक्त भी करता है। अथर्ववेद के अभिचार कर्म की यही मूल धारा है।
स्वयंबोध परम स्वास्थ्य है। लेकिन स्वयं के द्वारा ही स्वयं को जानने का काम कठिन है। आचार्य शंकर परम ज्ञान सिद्ध थे। उन्होंने भी स्वयं सुझाव या आटो सजेशन की पद्धति बताई है। उनके द्वारा लिखित निर्वाण षटक में स्वयं द्वारा स्वयं को संबोधित परिचय है। कहते हैं “मैं मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त नहीं हूं। मैं कान, जीभ और आंख भी नहीं हूं। मैं आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी भी नहीं हूं। मैं ज्ञान आनंदरूप शिव हूं-आनंद रूपः शिवो अहम्।” यहां शिव परम आनंद हैं। कहते हैं “मैं प्राण नहीं हूं। मैं शरीर में विद्यमान वायु नहीं हूं। शरीर में स्थित मांस, मज्जा, अस्थि नहीं हूं। मैं हाथ, पैर, वाणी नहीं हूं। मैं ज्ञान आनंद रूप शिव हूं। ऐसे 6 षटक हैं। इनमें स्वयं का एक ही परिचय है कि मैं ज्ञान आनंद रूप शिव हूं। यहां स्वयं के परिचय का मिथ्याभास देने वाले अवयवों का निषेध है।

अथर्ववेद की शैली भी ऐसी ही है। आयुर्विज्ञानी पीड़ित से कहता है- आप रुग्ण नहीं हैं। मैं आपको स्वस्थ करता हूं। रोग के विषाणु को आपसे पृथक करता हूं।” इससे रोगी का मनोबल बढ़ता है। सशक्त मनोबल से रोग निरोधक बल भी बढ़ता है। ऋग्वेद की तुलना में रोगों व औषधियों के विवरण अथर्ववेद में ज्यादा हैं। ऋग्वैदिक समाज प्रकृति के अंतरंग है। मनुष्य का प्रकृति से टकराव नहीं है। अथर्ववेद के भूमि सूक्त में पृथ्वी की स्तुति है। पृथ्वी से लोक कल्याण की प्रार्थना है। संभव है कि अथर्ववेद के रचनाकाल में प्रकृति का दोहन बढ़ा हो। समाज प्राकृतिक नियमों के अनुशासन से दूरी बना रहा हो। अथर्ववेद में रोगों व घातक विषों से रक्षा करने के लिए तमाम औषधियों वनस्पतियों के उल्लेख है लेकिन मंत्रों पर भी विश्वास व्यक्त किया गया है। देवशक्तियों से भी रोग दूर करने की स्तुतियां हैं। कई मंत्रों में सीधे ‘रोग’ से ही मजेदार संवाद हैं। खांसी रोग है। लगातार खांसने के कारण गले के आसपास सूजन हो जाती है। ऋषि खांसी से कहते हैं “आपके कारण हमारी कांख-गर्दन, हाथ के नीचे जो सूजन आ गई है, उसकी औषधि मैं जानता हूं।” (6.127.2) यहां अपने औषधि ज्ञान पर विश्वास है। खांसी से संवाद सुंदर काव्य है। ऋषियों ने इसी तरह अनेक रोगों से संवाद वाले मंत्र रचे हैं।

वशीकरण मंत्रों की चर्चा बहुत होती है। स्त्रियों द्वारा पति को वश में करने या पुरुषों द्वारा पत्नी को वश में करने वाले ताबीज या कर्मकाण्ड की चर्चा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न आधुनिक काल में भी होती है। अथर्ववेद में भी वशीकरण मंत्र है लेकिन अथर्ववेद के वशीकरण मंत्र श्रृंगार रस पूर्ण कविता जैसे हैं। अथर्ववेद में ‘काम’ देवता हैं। ऋषि कहते हैं, “कंपन करने वाले काम तुमको कम्पित करें। मैं कामवाण से तुम्हारे हृदय को बेधता हूं। इस वाण पर मानसिक पीड़ा रूपी पंख हैं। कामना रूपी वाण से काम आपके हृदय को बेध करें। (3.25.1-2) यहां शुद्ध सरस काव्य है। अंधविश्वासी वशीकरण नहीं। युवा युवतियों को और युवतियां युवकों को ऐसे ही संक्षिप्त प्रेम संदेश- एस.एम.एस. आधुनिक काल में भी भेजती हैं। अथर्ववेद में ऐसे अनेक सरस मंत्र हैं। ऐसे मंत्रों में तत्कालीन खगोल विज्ञान के भी उल्लेख हैं। कहते हैं “जैसे द्युलोक और पृथ्वीलोक के बीच सूर्य का प्रकाश फैलता है, मैं उसी प्रकार आपके मन में व्याप्त हो रहा हूं। हम दोनों परस्पर निकट रहें।” (6.8.1-3) यह अंधविश्वासी वशीकरण मंत्र नहीं, नेह निमंत्रण है। ‘करन अर्जुन’ फिल्म के एक गीत में प्रकृति की अनेक शक्तियों की प्रीति के उदाहरण हैं और इसी आधार पर प्रेमबंधन को दृढ़ कहा गया है। गीत में कहा गया है, “सूरज कब दूर गगन से/चन्दा कब दूर किरन से/ खुशबू कब दूर पवन से। ये बंधन तो प्यार का बंधन है।” अथर्ववेद का काव्य अंधविश्वास नहीं रसपान का अक्षर संधान है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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