यह कैसा मंजर! थम रही हैं सांसे बड़ी खामोशी से, छूट रहा हैं साथ अपनों से,आखिर कौन हैं जिम्मेदार?

 

देश अजीबोगरीब स्थिति से गु-जर रहा है। शहर हो या सुदूर गांव हालात चिंताजनक बनी हुई है। आजादी के बाद देश संभवत: एक ऐसी चुनौती का सामना पहली बार कर रही है जिसके सामने अमीर-गरीब,ऊंच-नीच,छोटे-बड़े,महिला-पुरुष,बच्चे-बुजुर्ग,शहर-गांव सभी संकट का सामना अभूतपूर्व ढ़ंग से कर रहे है। ऐसा नहीं है कि महामारी पहली बार आई है लेकिन साल भर के भीतर ही किसी महामारी ने दूसरी बार दस्तक देकर पूरी मानवता के सामने कठिन परिस्थिति खड़ी कर दी है।

जब प्रकृति दे रही थी संकेत…

सवाल उठता है कि जब प्रकृति पिछले साल ही कोरोना वायरस के तौर पर पहली बार महामारी सामने लाकर सचेत कर रही थी तब क्या हमारे देश की सरकार और उससे ज्यादा चुनाव आयोग लापरवाही का परिचय दे रही थी? यह बात सही है कि पिछले साल कोरोना वायरस ने जब शुरुआती कहर मचाना शुरु किया तो केंद्र सरकार ने आनन-फानन में लॉकडाउन लागू करने का सही फैसला किया। लेकिन चुनाव आयोग और मोदी सरकार की कमियां जल्द ही तब उजागर हुई जब अक्टूबर-नवंबर में कोरोना काल में ही बिहार विधानसभा चुनाव कराने की हरी झंडी दी। क्या देश के पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी चुनावी जंग जीतने के लिये करोड़ों लोगों के जिंदगी के साथ खिलवाड़ कर बैठे? दशकों के बाद पहली बार केंद्र में आई बहुमत की सरकार से कोई चूक हुई? क्या पीएम नरेंद्र मोदी ने कोरोना से लड़ाई में अदूरदर्शिता का परिचय दिया?

उजागर हुई मोदी की अदूरदर्शिता

यह सत्य है कि बिहार विधानसभा चुनाव सफलता पूर्वक संपन्न कराने से उत्साहित चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने की मंजूरी दी। उधर देश में कोरोना की दूसरी लहर तेज हुई। तो वहीं पांच राज्यों में भी चुनाव प्रचार अपने चरम पर पहुंचा। आलम तो यह था कि सुबह कहीं पीएम नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में मशगूल रहते थे तो शाम होते-होते कोरोना को हराने के लिये समीक्षा में लग जाते। हालांकि पीएम नरेंद्र मोदी के देश को लेकर प्रतिबद्धता पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता। उन्होंने कई मौके पर साबित किया कि भारत दशकों बाद एक सुरक्षित हाथ में है। तभी देश की जनता ने उन पर पूर्ण विश्वास करके सत्ता का बागडोर दोबारा थमाया।

बीते साल देश ने जीता था कोरोना से जंग

लेकिन कहावत है कि जहाज कितनी भी बड़ी क्यों न हो उसमें एक छोटा-सा छेद भी डुबोने के लिये काफी है। बीते साल मार्च में कोरोना वायरस से उपजे संकट का सामना भारत ने सफलता पूर्वक करके विश्व के आगे एक आदर्श उदाहरण पेश किया। जिसकी चारों तरफ तारीफ हुई। यहीं नहीं भारत ने नरेंद्र मोदी के नेतृव में बीते साल कोरोना के खिलाफ लड़ाई में कम से कम क्षति होने दी। जो पीएम नरेंद्र मोदी की कहीं न कहीं जीत ही थी। लेकिन उन्होंने जितना कमाया इस साल कोरोना की दूसरी लहर में गंवा दिया-यह कहना गलत नहीं होगा।

गांव से भी हालत बदतर हुई शहरों की

आज जब आप शहर से गांव की और चलेंगे तो स्थिति कितनी भयावह है- इसका मंजर देखकर रोंगटे खड़े हो सकते है। देश की राजधानी दिल्ली हो या आर्थिक राजधानी मुंबई समेत मेट्रो सिटी में भी स्वास्थ्य सेवा बदहाल हो चुकी है। ऐसे माहौल में गांव और छोटे शहरों की क्या स्थिति है-कल्पना से परे है। बहुत अच्छा होता यदि बीते एक साल से केंद्र सरकार और राज्य सरकार कदम से कदम मिलाकर हर बात में राजनीति करने की जिद्ध छोड़कर सिर्फ देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने में समय और धन लगाता तो शायद आज जो बिखरा तंत्र देखने को मिल रहा है कम से कम नहीं मिलता।लेकिन सवाल उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? जब सभी दल सत्ता हो या विपक्ष चुनाव में जीत-हार के समीकरण से सधी चाल चल रहे हो तो आम लोगों को तो अपनी जान की कीमत तो देनी ही पड़ेगी।

 

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