मौतों के दौर में सोनिया की सियासत

मौतों के दौर में सोनिया की सियासत

आर.के. सिन्हा:

अफसोस कि जब देश को कोरोना वायरस के संक्रमण की राष्ट्रीय आपदा और उससे पैदा हुई समस्याओं से एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए था, तब भी हमारे देश में ओछी राजनीति हो रही है। लगता है कि मौतों और लाशों की खबरें देख सुनकर भी कुछ नेताओं में मनुष्यता अबतक जागी नहीं है। उनके दिल अभी भी पत्थर के समान कठोर हैं। उन्हें तो सस्ती सियासत ही करनी है। चाहे देश और जनता जाये चूल्हें में उनकी अपनी रोटी सिंकना जरूरी है, चिता की आग हो या दंगों की आगजनी। उन्हें कहाँ कोई फर्क पड़ता है।

अब जरा देख लें कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस लॉकडाउन के कारण फंसे रहे मजदूरों को उनके अपने गृह राज्यों में रेल से भेजने के प्रश्न पर अकारण राजनीति करने लगी। कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी विगत 4 मई को कहने लगी कि कांग्रेस पार्टी प्रवासी मजदूरों का रेल किराया देने के लिए तैयार है। बाकायदा लिखित बयान जारी कर झूठे आरोप लगाये। जब सरकार करीब एक करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूरों को, जिनका संबंध मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश वगैरह से है, उनके घरों में पहुंचाने का काम चालू कर चुकी है तो सोनिया गांधी को मजदूरों का किराया देने का ख्याल क्यों और कैसे आया? क्या किसी मजदूर या मजदूरों ने उनसे कभी कोई आग्रह किया था?

पिछले महीने की 24 मार्च को जब लॉकडाउन लागू हुआ, तब लाखों की संख्या में जो प्रवासी मजदूर जिधर थे वहीं फंस गए थे। उसके बाद करीब 40 दिनों के बाद अब उन्हें उनके पैतृक प्रदेशों में भेजा जा रहा है। केंद्र सरकार इस बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्पेशल ट्रेनें चला रही है। ऐसा तय हुआ कि स्पेशल ट्रेनों के चलने का 85 फीसद भाग रेलवे वहन करेगी और शेष 15 फीसद राज्य सरकारें। इसमें कहां कोई गड़बड़ है? क्या गलत है? पर फर्जी जानकारी के आधार पर अफवाह फैलाई जाती रही कि मजदूरों से सरकार किराया ले रही है। यानी सोनिया गांधी तथ्यों को कायदे से जाने बिना, छानबीन कराये बिना ही केंद्र सरकार और भारतीय रेल पर आरोपों की बौछार करने लगीं। क्या जब धरती पर अस्तित्व का संकट आया हुआ है, तब उन्हें इस तरह की घटिया राजनीति शोभा देती है?

हालांकि सोनिया गांधी ने इस तरह की कभी कोई पहल नहीं की ताकि कांग्रेस शासित राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को राज्य सरकारें छत और भोजन आदि की सही से व्यवस्था करें। इसी का नतीजा है कि अकेले पंजाब से 70 फीसदी प्रवासी मजदूर अपने राज्यों की तरफ पैदल, साइकिलों पर, ठेले पर, ट्रकों में ठूंसकर यहाँ तक कि टैंकरों और कंक्रीट मिक्सरों में बैठकर अपने गावों को पहले ही रवाना हो चुके हैं। उनके प्रति कुछ राज्य सरकारों का रवैया बेहद निर्मम और खराब रहा। इनके इतने बड़े पैमाने पर राज्य को छोड़ने के चलते पंजाब में औद्योगिक इकाइयां और कृषि क्षेत्र की हालत तो बुरी तरह पतली होने ही वाली है, वह बात अलग है। लेकिन, वहां की सरकार का पूरा ध्यान शराब की दुकानों को खुलवाने पर ही केन्द्रित रहा। पंजाब से करीब 10 लाख श्रमिक लॉकडाउन में अपने राज्यों में वापस जाना चाहते थे। यह जानकारी खुद मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने दी थी। क्या सोनिया गांधी ने उन्हें समझाया नहीं कि वे मजदूरों को राज्य में रहने और खान-पान की सुविधा दें ताकि वे पराए राज्य को भी अपना ही मानें? पंजाब में काम करने वाले ज्यादातर प्रवासी मजदूर झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश के हैं। अब वहां के उद्योग और फसलों की रोपाई-कटाई का इंतजाम कैप्टन साहब करवाकर दिखायें तो बढ़िया प्रयास होगा। कितना सफल होगा यह जानने के लिये एक वर्ष का इंतजार कीजिए। इस बीच, महाराष्ट्र और केरल में भी प्रवासी मजदूर लगातार धक्के खाते रहे। उनके साथ वहां पशुओं के समान व्यवहार होता रहा। महाराष्ट्र, पंजाब और केरल में राज्य सरकारें कांग्रेस पार्टी ही चला रही है। जरा देख लें कि क्या सोनिया गांधी ने एकबार भी महाराष्ट्र में मजदूरों के सूरतेहाल के लिए ठाकरे सरकार को कोई सलाह दी हो या कसा हो? कतई नहीं।

लॉकडाउन के बीच महाराष्ट्र के मुंबई, सांगली, नागपुर, चंद्रपुर समेत अनेक शहरों में प्रवासी मजदूर सड़कों पर धक्के खाते रहे, ताकि उन्हें कोई उनके घर पहुंचा दे। जब केन्द्र सरकार ने इन मजदूरों को इनके घर पहुंचाने की व्यवस्था की तो सोनिया गांधी इनका रेल किराया देने की पेशकश करने लगीं। महाराष्ट्र में बहुत बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर भवन निर्माण के काम में लगे हुए थे। ये ज्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल से हैं। किराये की पेशकश क्यों की? कहते हैं चोर की दाढ़ी में तिनका होता है। सभी राज्य सरकारों ने स्पेशल ट्रेनों को चलाने का 15 प्रतिशत खर्च सहर्ष जमा करवा दिया। सिर्फ तीन राज्यों केरल, महाराष्ट्र और राजस्थान ने 15 प्रतिशत जमा तो नहीं ही किया, उलटे मजदूरों से किराया वसूलना शुरू कर दिया। जब बवाल मचा तब सोनिया गाँधी ने उल्टे चोर कोतवाल को डांटे का फार्मूला अपनाते हुए केंद्र सरकार पर आरोपों की बौछार शुरू कर दी और कहना शुरू कर दिया कि केंद्र सरकार गरीब मजदूरों का किराया नहीं दे सकती तो कांग्रेस पार्टी दे देगी। केंद्र तो अपना 85 प्रतिशत दे ही रही है जो 15 प्रतिशत नहीं देकर मजदूरों से किराया वसूला वे सरकारें तो कांग्रेस की ही हैं। वे जनता को पूरी बेवकूफ समझती है।

राजस्थान में भी कांग्रेस सरकार है। वहां का हाल भी किसी से छिपा नहीं है। वहां भी जयपुर, जोधपुर, अजमेर, उदयपुर, कोटा आदि शहरों में प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के बाद मारे-मारे घूमते रहे। पर मजाल है कि राज्य की अशोक गहलोत सरकार ने उनके लिए कोई युद्धस्तर पर राहत कार्य चलाए हों। क्या ये देश धनी और असरदार लोगों का ही है? क्या भारत में गरीब को जीने का हक नहीं है? जरा सोनिया गांधी बताएं कि प्रवासी मजदूरों के लिए कांग्रेस शासित राज्यों में किस तरह के कदम उठाए गए? उन्हें जनता को बताना तो चाहिए। अब तो गली-गली में कांग्रेसी नेताओं को घेरकर जनता यह सवाल तो पूछेगी ही?

बेशक कोरोना से पैदा हुए हालात बेहद गंभीर और जटिल हैं। इन हालातों में सरकारों के सामने ढेर सारी चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। इसलिए यह वक्त किसी भी सरकार की मीनमेख निकालने का कतई नहीं है। पर जब सोनिया गांधी खुद यह सब कर रही हैं तो फिर सवाल तो उनसे ही पूछे जाएंगे। सोनिया गांधी की पेशकश के बाद सोशल मीडिया पर कुछ लोग कह रहे थे कि चलो बोफोर्स सौदे में जो कांग्रेस ने कमाया था उसके कुछ हिस्से का सदुपयोग हो जाएगा। जाहिर है, इस तरह की टिप्पणियों के लिए भी फिलहाल कोई जगह नहीं है। अभी वक्त है कि पूरा देश एकजुट होकर कोरोना वायरस को शिकस्त दे। क्योंकि कोरोना को मात देने के बाद ही राजनीति करने का वक्त होगा। कोरोना से यदि देश हार गया तो राजनीति करने को बचेगा कौन?

अब सरकार विदेशों में फंसे भारतीयों को वापस लेकर आ रही है। सरकार केवल उन लोगों को स्वदेश आने की अनुमति देगी जिनमें कोरोना वायरस के लक्षण नहीं हैं। अन्य देशों से भारत आने वाले यात्रियों को तो अपना किराया देना ही होगा। वे गये भी तो अपनी मतलब से, अपनी मर्जी से और अपने खर्चे से ही हैं। लेकिन, उन्हें भी वापस लाने का निर्णय मोदी जी की उदारता को प्रदर्शित करता है। सोनिया गाँधी को भी चाहिए कि अपने परिवार की अकूत सम्पति का एक हिस्सा तो कोरोना युद्ध में लगाकर दिखाएँ तब कोई बात बने।

आशा की जानी चाहिए कि सोनिया गांधी इस मसले पर फिर से कोई राजनीतिक बवाल खड़ा ना करेंगी। हां, उन्हें सरकार से सवाल पूछने या सरकार को सलाह देने का पूरा अधिकार है। इस मुद्दे पर कहीं कोई विवाद नहीं है। सोनिया गांधी सरकार की कमजोरियों को उजागर करें, पर जरा सोच-समझकर। उन्हें सरकार को इसलिए ही कटघरे में खड़ा करना चाहिए क्योंकि फिलहाल केन्द्र में उनकी कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं है। अभी तो उन्हें देश को गुमराह करने के लिये सार्वजानिक रूप से क्षमा याचना का वक्त है।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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