मूल की तरफ लौटे बिना उद्धार नहीं भाजपा का…

भाजपा को देखना होगा कि इन हालात से निपटने के नाम पर वह कहीं ‘तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना’ वाली चूक न कर बैठे। इन परिस्थितियों के मूल में बैठे लोग और फितरत को पहचान कर पार्टी को एक बार फिर वह मूलभूत बदलाव करने होंगे जो संगठन और कार्यकर्ता के बीच वाले विश्वास एवं सहयोग के संबंधों को पुन: समूल स्थापित कर सकें।

मध्यप्रदेश में भाजपा के लिए यह चिंतित होने वाली स्थिति है। पार्टी के पास यह कहने के लिए मुंह नहीं है कि मामला चौंकाने वाला भी है। वरिष्ठों की बैठक में सामने वह लाया गया, जो किसी से भी छिपा नहीं था। बात भाजपा की मंगलवार को हुई बैठक की है। इसमें कहा और स्वीकारा गया कि पुराने और अनुभवी कार्यकर्ताओं के बीच सरकार से लेकर संगठन तक के प्रति बड़ी नाराजगी है। तय किया गया कि रूठे हुओं को मनाया जाए। लगे हाथों इसके लिए जिम्मेदारी भी तय कर दी गयी। लेकिन यह कौन तय करेगा कि ऐसा होने के लिए कौन-कौन जिम्मेदार हैं?

: प्रदेश भाजपा में बीते लंबे समय से वह सब होने लगा है, जो पहले नहीं दिखा। हैरत की बात यह कि जिस दल ने सदैव कार्यकर्ताओं के महत्व को ‘देवतुल्य’ से सम्मानित किया, उसी में अब संगठन की इस रीढ़ को कमजोर हो जाने दिया जा रहा है। ऐसा होने की अपनी वजह भी है। बदलाव और नएपन का जुनून जब ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ वाला विस्तार पा जाए, तब ऐसा ही होता है, जैसा यहां दिख रहा है। पार्टी की राज्य इकाई में अतीत और वर्तमान के बीच की हर कड़ी को जैसे कड़ी मेहनत के साथ तोड़ दिया गया। वो लोग नेपथ्य में धकेल दिए गए, जिन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल वाले संगठनात्मक दौर से कई बातें सीखी थीं। देखा था कि किस तरह संगठन के उस समय में वरिष्ठों का एक-एक कार्यकर्ता के साथ जीवंत एवं स्नेहिल संपर्क रहता था। भाजपा के वे और उन जैसे कर्ताधर्ता कार्यकर्ताओं की हर चिंता को अपने ऊपर लेकर उन्हें यह विश्वास दिलाने में सफल रहते थे कि अंतत: यह पार्टी से अधिक किसी परिवार वाला मामला है। निश्चित ही ठाकरे और खंडेलवाल से मिले इन संस्कारों को भाजपा के अनेक लोगों ने ग्रहण किया। लेकिन ऐसी लगभग पूरी पीढ़ी को ही दरकिनार कर नेतृत्व उन हाथों में सौंप दिया गया, जो ठाकरे या खंडेलवाल वाली विभूतियों से केवल इतना नाता रखते हैं कि कैमरा चालू होते ही वे ऐसी विभूतियों की तस्वीर के आगे विशेष मौकों पर हाथ जोड़ते या फूल चढ़ाते हुए दिख जाते हैं। बाकि उस समय वाली भाजपा के संस्कारों से तो आज का संगठन न जाने कब से हाथ जोड़कर अलग हो चुका है।

भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में एक गजब का बदलाव देखने में आ रहा है। अब प्रदेश के संगठन मंत्री से मिलने से पहले कार्यालय में तैनात सुरक्षा गार्ड रजिस्टर में कार्यकर्ता का नाम पता सब नोट करता है। मिलने का टाइम लिया या नहीं, यह सब पूछता है। उसके बाद मिलने के लिए एंट्री या नो एंट्री। भूतकाल के कुटुंब वाली भाजपा आज कॉपोर्रेट घराने में बदल चुकी है। निश्चित ही इसके अपने-अपने कारण हैं। पार्टी संगठन का बहुत बड़ा स्वरूप अपने साथ बदलाव भी लाता है। फिर लंबे समय तक अपराजेय स्वरूप में सत्ता में रहने से भी प्रकृति में परिवर्तन आ जाता है। फिर भी यह कैसे भूला जा सकता है कि सत्ता और संगठन के ये विराट स्वरूप अंतत: उस ‘पार्टी विद डिफरेंस’ वाले तत्कालीन यथार्थ के चलते ही संभव हुआ, जिसमें कार्यकर्ता के नाराज होने जैसे किसी तत्व को कभी पनपने ही नहीं दिया गया था। और खासकर यहीं संगठन मंत्री नाम की व्यवस्था कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के बीच सेतू का काम करती थी। मान लिया कि जेब में चने और कंधे पर दो कपड़ों वाले थैले को टांगकर पार्टी के लिए पसीना बहाने वाले चेहरों की विस्तारित हो चुकी पार्टी को अब जरूरत नहीं है। लेकिन आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो भले ही जेब में राजनीतिक प्रगति के सपने लिए चलते हों, किन्तु उनके कंधों पर भाजपा के लिए समर्पण और स्वाभिमान धारण किया गया भाव अब भी कायम है। यदि यह वर्ग भी स्वयं को वर्तमान नेतृत्व के हाथों वर्ग-विभेद का शिकार पा रहा है तो फिर भाजपा के लिए यह गंभीर तरीके से सचेत हो जाने वाला समय है।

निश्चित ही कोर ग्रुप की बैठक से लगा कि पार्टी सचेत हो रही है। राज्य के चुनाव में करीब छह महीने का समय बचा है। इस अवधि में शेष तैयारियों के साथ मान-मनौवल की भी बड़ी जिम्मेदारी है। भाजपा का जो संगठनात्मक ढांचा है, उसके चलते यह भी कहा जा सकता है कि कम समय होने के बाद भी वह ‘रूठा है तो मना लेंगे’ वाली रणनीति में सफल हो जाएगी। लेकिन क्या इतना भर होने से सब ठीक हो जाएगा? असंतोष और अविश्वास के ये वायरस कोरोना की ही तरह आसानी से समाप्त होने वाले नहीं दिखते हैं। उनका स्थायी निदान तलाशा जाना होगा। उसके लिए इस समस्या की जड़ में जाकर उसे जड़ से खत्म करने के उपाय करने होंगे। भाजपा को देखना होगा कि इन हालात से निपटने के नाम पर वह कहीं ‘तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना’ वाली चूक न कर बैठे। इन परिस्थितियों के मूल में बैठे लोग और फितरत को पहचान कर पार्टी को एक बार फिर वह मूलभूत बदलाव करने होंगे जो संगठन और कार्यकर्ता के बीच वाले विश्वास एवं सहयोग के संबंधों को पुन: समूल स्थापित कर सकें। इसलिए सुधार की प्रक्रिया से उन तत्वों को अलग रखा जाना चाहिए, जो स्वयं ही इस बिगाड़ के कारक बने हैं।

लेखक :प्रकाश भटनागर ( वरिष्ठ पत्रकार)

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