भारत का प्रत्येक उत्सव और उसके लोक व्यवहार के पीछे अध्यात्म का पुट

भारत का प्रत्येक उत्सव और उसके लोक व्यवहार के पीछे अध्यात्म का पुट

 

भारत का प्रत्येक उत्सव और उसके लोक व्यवहार के पीछे अध्यात्म का पुट है। एक रहस्यमय घटना है इन व्यवहारों में जो हजारों वर्ष से अनवरत जारी है।

गाँवों में दीपावली के दिन दिए के प्रकाश में पढ़ना, भले ही अल्पकालिक रूप से, आवश्यक था। भले ही जोर जबरदस्ती से।
बहुत पढ़ें लिखें लोगों को उस समय यह एक रूढ़िवादी व्यवहार और परंपरा का अंग प्रतीत होता था। परंतु अब समझ में आया कि इसके गहरे अर्थ हैं।

इसे गांव में विद्या जगाना कहा जाता था।
विद्या का जागरण।

हमारी संस्कृति में समस्त ज्ञान को दो हिस्सों में बांटा गया है।
*अविद्या और विद्या।*

अविद्या इग्नोरेंस नहीं है। इग्नोरेंस है परंतु दूसरे और गहरे अर्थों में। संसार की समस्त विद्याएं जो संसार को समझने में सहायक हैं, या सांसारिक वैभव और विकास के लिए आवश्यक हैं वह अविद्या की श्रेणी में आयेगीं। साइंस से लेकर अन्य सभी प्रकार का समस्त ज्ञान इसके अंदर आयेगा। अविद्या इसे इन अर्थों में कहा जाता है कि इसका केंद्र कोई दूसरा है, इसका केंद्र जगत है, संसार है। यह वाह्य को जानने, समझने के लिए आवश्यक है। संसार में इस ज्ञान के बिना सांसारिक सुख सुविधा का न ही निर्माण संभव होगा और न ही उसकी प्राप्ति।

परंतु यह ज्ञान अविद्या की श्रेणी में आएगा।

एक दूसरी विद्या है विद्या: अतः करण में प्रवेश का विज्ञान और कला। साइंस और तकनीक। जिसे विद्या कहते हैं। आत्म की खोज। Who am I की ओर आगे बढ़ने का विज्ञान।

दीपक है प्रतीक मनुष्य के अंदर व्याप्त चेतना का। *बुद्ध ने जब कहा अप्प दीपो भव*, तो वे उसी दीपक की बात कह रहे हैं जिसे चेतना कहते हैं।

उस चेतना को मन में व्याप्त अवचेतन के महा संसार को आलोकित करने का प्रतीक है यह विद्या जगाने का उपक्रम।
हमारे मन के दो हिस्से हैं एक चेतन, दूसरा अचेतन या अवचेतन।

चेतन मन के ही माध्यम से समस्त सांसारिक ज्ञान और कला को प्राप्त किया जाना संभव है। परंतु वह मात्र एक हिस्सा है।

बाकी नौ हिस्सा अचेतन मन का संसार है। जहां समस्त स्मृति एकत्रित है। जहां काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर, का संसार है। यही कारण है कि समस्त नैतिक शिक्षा के बावजूद भी मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह का शिकार होने से नहीं बच पाता। क्योंकि कोई भी समाज इनकी शिक्षा नहीं देता कि चोरी करो, क्रोध करो, लोभ करो। फिर भी मनुष्य इनकी पकड़ाई से बच नहीं सकता।
क्यों?
कोई तो कारण होगा?
यदि कोई इनसे बचा रह सकता है तो वह संस्कार वश और संसार के भयवश। संस्कार एक पहरा लगा देता है, नो एंट्री का इस क्षेत्र की तरफ। परंतु अंदर वह विद्यमान न हो, ऐसा संभव नहीं है।

इसीलिए हमारे बाहर का चेहरा कुछ और होता है, और अंदर का चेहरा कुछ और। भले ही वह चेहरा हम संसार से छुपा लें, परंतु हमको तो पता ही होता है कि यह सारे भाव हमारे अंदर कब कितना प्रबल रूप लेते रहते हैं।

तो विद्या जगाने का आध्यात्मिक पक्ष है चेतना के दीपक को मन के उन अंधेरे कोठरियों को प्रकाशित करना जहां यह विकराल विचार और भाव जन्म लेते हैं और छुपे रहते हैं। उस हिस्से को एक दीपक, जिसे चेतना कहते हैं उसी से प्रकाशित करना। उसी चेतना को आत्मा कह लो परमात्मा कह लो।
कृष्ण कहते हैं-
चेतना अश्मि सर्वभूतानां।
अर्थात् मैं सभी जीवों की चेतना हूं।

सबको अपने मन के दीपक को मन के अंधेरे कोने कतरों में पहुंचने का साहस प्रदान करने का अवसर प्रदान करता है यह विद्या जागरण।