Geeta

भगवद्गीता के अलावा श्रीरामचरितमानस में तीन जगह मोह, विषाद को दूर करने के लिए गीता कही गई है।

Geeta

 

( भाग – 02 )

 

पहला संवाद लक्ष्मण और निषादराज गुह के मध्य होता है। जिसपे कल लिखा जा चुका हैं। दूसरा भगवान राम और विभीषण के बीच। तीसरा काकभुशुंडि और गरुड़ के बीच।

*आज विभीषण गीता पे लिखा जा रहा हैं।

 

प्रसंग है लंका काण्ड में राम–रावण युद्ध का। रावण रथ पर सवार है, राम रथविहीन हैं। विभीषण भय और संदेह में भर उठता है कि यह युद्ध कैसे जीता जायेगा? तब श्रीराम उसे धीरज बँधाते हुए जो उपदेश देते हैं, वह एक अद्भुत मार्मिक प्रसंग है। राम एक ऐसे ‘धर्ममय रथ’ होने का भरोसा दिलाते हैं, जिसके पास होने पर संसार का कोई ऐसा युद्ध नहीं जो जीता न जा सके। लंका काण्ड का यह छोटा सा संवाद धर्मदृष्टि से एक कालजयी संवाद है।

 

*रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।

*देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥

*अधिक प्रीति मन भा संदेहा।

*बंदि चरन कह सहित सनेहा॥

*नाथ न रथ नहि तन पद त्राना।

*केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥

*सुनहु सखा कह कृपानिधाना।

*जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥

*सौरज धीरज तेहि रथ चाका।

*सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

*बल बिबेक दम परहित घोरे।

*छमा कृपा समता रजु जोरे॥

*ईस भजनु सारथी सुजाना।

*बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

*दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।

*बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥

*अमल अचल मन त्रोन समाना।

*सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

*कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।

*एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥

*सखा धर्ममय अस रथ जाकें।

*जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥

*महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।*

*जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥ (80अ)

 

 

अर्थात् राम रावण संग्राम में जब लंकेश रथ पर था और श्री राम जमीन पर नंगे पाँव थे तब बिभीषन बहुत अधीर हो गए और सोचने लगे की महाभट रावण से रघुवीर कैसे लड़ेंगे इनके पास तो न रथ हैं, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न ही पैरो में खडाऊँ। वह बलवान वीर रावण से किस प्रकार युद्ध करेंगे। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया और उन्होंने राम से पूछा की आप बिना संसाधन के कैसे युद्ध करेंगे। तब श्रीराम ने उन्हें उत्तर दिया जो कि आज के दौर में उतनी ही प्रासंगिक हैं। जो हमेशा सत्य के पथ पर चल के शुद्ध विजय प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें यें प्रेरणा देगी।

राम जी ने कहा मित्र तुम्हारी चिंता निर्मूल हैं लेकिन मनुष्य जिस रथ से विजय प्राप्त करता हैं वह लकड़ी और लोहे का बना हुआ नहीं होता हैं. वो दुसरा ही रथ होता हैं उस रथ के शौर्य और धर्य ही दो पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा को और पताका है। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं।

 

ईश्वर का भजन ही ( उस रथ को चलाने वाला ) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, वहीं श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल (पाप रहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है।

 

हे मित्र! ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो वो रावण तो क्या संसार रूपी महान अजेय शत्रु को भी पराजित कर सकता हैं। प्रभु के वचन सुनकर विभीषण ने हर्षित होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा हे प्रभु आप ने कृपा कर के मुझे ये परम उपदेश दिया हैं। जिससे आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन होगा।

 

*इस प्रसंग की तुलना भगवद्गीता की पृष्ठभूमि से की जाए तो कुछ रोचक समानताएंँ मिलती हैं।*

वहांँ कृष्ण और उसके सखा अर्जुन का संवाद होता है। यहांँ राम और उनके सखा विभीषण के मध्य का संवाद है। इन चौपाइयों में राम विभीषण को अनेक बार सखा शब्द से संबोधित करते हैं। ये दोनों संवाद युद्ध के मैदान में होते हैं। वहांँ कुरुक्षेत्र था यहांँ लंका। अर्जुन विषादग्रस्त है तो विभीषण संशयग्रस्त, अधीर। दोनों घबराए हुए हैं।

दोनों प्रसंगों का अन्त विजय के आश्वासन से होता है। यहांँ राम कहते हैं, “हे धीरबुद्धि वाले सखा! ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो वह रावण तो क्या संसार रूपी महान अजेय शत्रु को भी पराजित कर सकता हैं।