आखिरकार एसबीआई के चेयरमैन खारा ने 28/01/2022 को पुष्टि की बेड बैंक की अगले महीने तक शुरू होने की.
चेयरमैन दिनेश खारा ने कहा कि प्रस्तावित बैड बैंक को परिचालन शुरू करने के लिए सभी जरूरी मंजूरियां मिल गई हैं।
खारा ने कहा कि पब्लिक सेक्टर के बैंकों के पास नेशनल असेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी लि. (एनएआरसीएल) में मेजॉरिटी स्टेक होगी, वहीं प्राइवेट बैंकों के पास इंडिया डेट रिजॉल्युशन कंपनी लि. (आईडीआरसीएल) की अहम हिस्सेदारी होगी।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले आम बजट में बैड बैंक का ऐलान किया था।
यह संस्था बैंकों के बहीखातों को साफ सुथरा बनाने के लिए खराब यानि एनपीए खातों का अधिग्रहण करेगी।
शुरुआती चरण में प्रस्तावित बैड बैंक में 50,000 करोड़ रुपये के लगभग 15 मामले ट्रांसफर किए जाएंगे। बैड बैंक में लगभग 2 लाख करोड़ रुपये के बैड असेट ट्रांसफर के जाने का अनुमान है।
पिछले बजट की घोषणा का क्रियान्वयन एक साल खत्म होने के बाद भी न हो पाना साफ दर्शाता है कि समस्या इतनी आसान नहीं है कि सिर्फ बैड बैंक स्थापित करने से एनपीए खत्म हो जाऐंगे.
जहाँ पिछले बजट में एनपीए का स्तर आधिकारिक तौर पर 7% था, वही आज इसका लेवल करीब 9% पर है. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं की गैर अधिकारिक तौर पर एनपीए का स्तर 20% से कम नहीं है.
20 लाख करोड़ रुपये के एनपीए समस्या का समाधान 50000 करोड़ रुपये की शुरुआत और 200000 करोड़ रुपये का टारगेट समाधान ऊंट के मूंह में जीरा समान ही है.
पिछले बजट से अभी तक में खराब खातों का स्तर 200000 करोड़ रुपये से बढ़ना बैंकिंग क्षेत्र की दयनीय हालात दर्शाता है और सरकारी संरक्षण के बिना कितने दिन बैंक चल पाएंगे, यह कहना मुश्किल है.
पब्लिक के पैसे की बरबादी आखिर क्यों?
पैसे वसूली के लिए इतना मंहगा संस्थागत खर्च और इतना तामझाम इंफ्रास्ट्रक्चर, हाई सैलरी पर बड़े बड़े रिटायर्ड अफसरों और नौकरशाहों को हेड बनाना, राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोगों को निदेशक बनाना, गैर व्यापारिक सोच वाले लोगों को वसूली अधिकारी बनाना जैसे कदम बैंकों की और व्यापार की समस्या दूर कर पाएंगे, ऐसा लगता तो नहीं है.
देश को जरुरत है सस्ते और सरल देशी उपायों की, न की विदेशी कापी किये गए उपाय. हमारे सामने दिवालिया कानून की असफलता एक जीवंत उदाहरण है जो विदेश से कापी किया गया और आज ऐसे हालात हैं कि कोई बैंक उसे अपनाना नहीं चाहता. बैंक अपनी रिकवरी टीम पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं.
सबसे सरल उपाय राजनीति और राजनितिज्ञ को बैंकों से दूर रखना और इनकी दखलंदाजी को हटाना है. चाहे सरकारी बैंक हो या सहकारी, यदि लोन डूबें है तो इसके पीछे राजनीतिक दखलंदाजी ही रही है. सरकारी योजनाओं और सब्सिडी की आड़ में और राजनितिक संरक्षण के बदले बैंकों को खुले आम लूटा गया है. यह खेल आज भी चल रहा है, सिर्फ फर्क इतना है कि लोगों को दिखाने के लिए संस्थान और कानून बनाए जा रहे हैं और लूट को कानूनी जामा पहनाया जा रहा है. इस सोच को बदलना होगा और राजनीतिक दखलंदाजी को रोकना होगा. बैंकों के निदेशक मंडल में ऐसे लोग और पैशेवर जिनकी काबलियत सत्ताधारी दल से जुड़ा होना है, वे ऐसे निर्णायक पदों पर बैठाये जाते हैं तो हम क्या उम्मीद करें ऐसी सरकारी नीतियों पर.
दूसरा व्यापारिक सोच और मजबूत आर्थिक समझ वाले लोगों को बैंकिंग और इनसे जुड़ी संस्थानों में जोड़ना और निर्णय लेने की आजादी देना. बैंकों का पैसा बांटने के लिए नहीं है, यह एक व्यापारिक इकरारनामा है जिसे उपयोग कर ब्याज सहित लौटाना एक सैद्धान्तिक नियम है.
उपरोक्त दो कदम बिल्कुल आसान, सस्ते और सरल है जिनको क्रियान्वित कर हम बैंकिंग एनपीए समस्या पर लगाम लगा सकते हैं और यही हमारे देश की सच्चाई है, न की दिवालिया कानून या फिर बैड बैंक.
लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर