बढ़ता टैक्स कलेक्शन और विकास दर की हकीकत

पहली बार 2021-22 में पिछले 20 वर्षों से चले आ रहे ट्रेंड को बदलते हुए टैक्स कलेक्शन जीडीपी के 10% के मुकाबले जीडीपी के 12% पर पहुंचा और सरकार इसे 14% तक ले जाने की कोशिश कर रही है.

कर अनुपालन में बढ़ोत्तरी और टैक्स कलेक्शन एक अच्छी बात है और इसका मुख्य कारण विकास दर वित्त वर्ष 2020-21 में जहाँ (-) 6.6%, वही 2021-22 में 8.9% रही.

आरबीआई का साफ तौर पर मानना है कि महामारी से हुए नुकसान की रिकवरी करने में अर्थव्यवस्था को अगला दशक पूरा लग जाएगा और 2034-35 तक भरपाई हो पाएगी.

यह बात आरबीआई ने हाल में ही जारी वर्ष 2021-22 की करेंसी और फाइनेंस पर रिपोर्ट के अध्याय- महामारी के निशान में इंगित करी. आरबीआई के अनुसार वित्त वर्ष 2012-13 से 2019-20 तक इकॉनमी 6.6 फीसदी सीएजीआर (कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट) से बढ़ी थी और अगर इसमें स्लोडाउन इयर्स तो निकाल दें तो वित्त वर्ष 2012-13 से वित्त वर्ष 2016-17 के बीच 7.1 फीसदी सीएजीआर से बढ़ी.

वित्त वर्ष 2020-21 में ग्रोथ रेट (-) 6.6 फीसदी रही, वित्त वर्ष 2021-22 में 8.9 फीसदी और अब वित्त वर्ष 2022-23 में 7.2 फीसदी और फिर इसके बाद 7.5 फीसदी की ग्रोथ रेट मानें तो कोरोना से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई वित्त वर्ष 2034-35 तक हो सकेगी.

साफ है बढ़ता टैक्स कलेक्शन जीडीपी रिकवरी के संकेत दे रहा है लेकिन इसके प्रचार प्रसार के बजाय वस्तु स्थिति समझने की कोशिश करनी होगी ताकि ये ट्रेंड जारी रहे.

दूसरी ओर क्रिसिल रिसर्च एजेंसी ने अर्थव्यवस्था में गिरावट की चेतावनी दी है.

देश-दुनिया के आर्थिक हालात पर नज़र रखने वाली इस एजेंसी की रिपोर्ट में दी गई इस चेतावनी का आधार क्रिसिल का फाइनेंशियल कंडीशन्स इंडेक्स है, जो मार्च 2022 के दौरान जीरो से भी नीचे चला गया.

एजेंसी के मुताबिक इंडेक्स में यह गिरावट देश के वित्तीय हालात के कमजोर होने का संकेत दे रही है.

एजेंसी का यह इंडेक्स इक्विटी, डेट, मनी और फॉरेक्स मार्केट जैसे 15 महत्वपूर्ण इंडिकेटर्स को मिलाकर तैयार किया जाता है, जो हर महीने देश की आर्थिक हालत का विस्तृत खाका पेश करता है.

क्रिसिल के फाइनेंशियल कंडीशन्स इंडेक्स के जीरो से नीचे चले जाने का मतलब है कि देश के आर्थिक हालात औसत से खराब चल रहे हैं.

क्रिसिल ने इसकी 6 मुख्य वजहें गिनाई हैं :

1. विदेश पोर्टफोलियो निवेश का देश से बाहर जाना

मार्च के महीने में फॉरेन पोर्टफोलियो इनवेस्टमेंट (FPI) का देश से बाहर नेट ऑउटफ्लो 6.6 अरब डॉलर का रहा, जबकि फरवरी में यह 5.1 अरब डॉलर था. मार्च में क्रूड ऑयल की कीमतें 20.7 फीसदी के भारी उछाल के साथ 115.6 डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंचीं.

2. रुपये की कीमत घटना

विदेशी निवेशकों के बढ़ते आउट-फ्लो ने रुपये पर दबाव बढ़ाया है, जिससे मार्च के महीने में डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 1.7 फीसदी गिर गया. इससे पहले फरवरी में रुपये में 0.8 फीसदी की गिरावट देखी गई थी. रुपये को तेल की आसमान छूती कीमतों और बढ़ते व्यापार घाटे की वजह से भी भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा है.

3. शेयर बाजार में गिरावट

देश के शेयर बाजारों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिगड़े हालात और मार्च में पैसे निकालने का बुरा असर पड़ा है. एक महीने के दौरान सेंसेक्स में 2.2 फीसदी की गिरावट देखने को मिली.

निफ्टी इंडिया वॉलेटैलिटी इंडेक्स भी मार्च में बढ़कर 25.1 हो गया, जो फरवरी में 22.1 था. बाजार में अस्थिरता का संकेत देने वाले इस इंडेक्स का लॉन्ग टर्म सामान्य स्तर 20 के आसपास रहता है.

4. गवर्नमेंट बांड की यील्ड में बढ़ोतरी

गवर्मेंट सिक्योरिटीज़ की यील्ड में चौतरफा बढ़ोतरी देखने को मिली है. ऐसा होने की मुख्य वजहों में कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी, अमेरिका के फेड रेट और ट्रेजरी यील्ड्स में वृद्धि और बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश बाहर जाने जैसे कारण शामिल हैं.

10 साल के बांड की दरें मार्च में 7 बेसिस प्वाइंट बढ़कर औसतन 6.83 फीसदी हो गईं, जो जून 2019 के बाद का सबसे ऊंचा स्तर है.

5. लिक्विडिटी का पहले से कम होना

सिस्टम में लिक्विडिटी अब भी ज्यादा है, लेकिन फरवरी के मुकाबले मार्च में इसमें कमी आई है.

इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने मार्च में लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी के तहत हर दिन औसतन 6.42 लाख करोड़ रुपये एब्जॉर्ब किए, जबकि फरवरी में यह औसत 6.88 लाख करोड़ रुपये का था.

6. मनी मार्केट रेट्स में बढ़ोतरी

रिपोर्ट के मुताबिक देश में अतिरिक्त लिक्विडिटी में कमी आने के कारण मनी मार्केट रेट धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं. हालांकि कोरोना महामारी से पहले के मुकाबले ये अब भी कम हैं. लेकिन मार्च में कॉल मनी रेट औसतन 3 बेसिस प्वाइंट्स बढ़कर 3.30 फीसदी पर पहुंच गए, वहीं 91 दिनों के ट्रेजरी बिल्स की दर 2 बेसिस प्वाइंट बढ़कर 3.78% हो गई. 6 महीने के कॉमर्शियल पेपर्स की दर 4 बेसिस प्वाइंट बढ़कर 4.84 फीसदी पर जा पहुंची.

क्रिसिल की रिपोर्ट के मुताबिक यह 6 कारण देश की आर्थिक हालत के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक बाहरी आर्थिक झटकों और घरेलू अर्थव्यवस्था की कमजोरी का साझा दुष्प्रभाव आने वाले दिनों में भारतीय बाजारों से पूंजी के पलायन को और तेज़ कर सकता है.

अगर ऐसा हुआ तो देश के वित्तीय हालात आने वाले महीनों में और भी चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं.

इन हालात का असर देश की जीडीपी से लेकर महंगाई और चालू खाते के घाटे जैसे तमाम अहम आंकड़ों पर नजर आ सकता है.

इसके अलावा रुपये की कीमतों और राजकोषीय घाटे पर भी इसका बुरा असर पड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.

रिपोर्ट में कहा गया है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की ब्याज दरें कम रखने की एकोमोडेटिव पॉलिसी अब तक घरेलू अर्थव्यवस्था के लिए बड़े कुशन का काम करती रही है. लेकिन अब बढ़ती महंगाई और अतंरराष्ट्रीय कारणों के दबाव में आरबीआई को भी अपनी नीति में बदलाव करना पड़ेगा.

इन हालात में रिजर्व बैंक इस वित्त वर्ष के दौरान नीतिगत ब्याज दरों में 50 से 75 बेसिस प्वाइंट तक की बढ़ोतरी कर सकता है. इसका असर मार्केट रेट्स पर भी पड़ेगा, जिससे वित्तीय हालात और कठिन हो जाएंगे.

बैंकों ने अपनी मिनिमम ऋण दरों में बढ़ोतरी की शुरुआत तो अभी से कर दी है, जिससे ब्याज दरों में तेजी का नया दौर शुरू होने का संकेत माना जा सकता है.

बढ़ती ब्याज दरें, घटती रूपये की कीमत और बहार जाता विदेशी निवेश हमारी अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती तो बना ही है, साथ ही जीएसटी में बढ़ौतरी व्यापार- खपत बढ़ने से कम बल्कि अनुपालन, विभागीय कार्यवाही और मंहगाई बढ़ने से ज्यादा हैं.

ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा यूरोप यात्रा कर विदेशी निवेश आकर्षित करने की कोशिश करना इसी दिशा में एक कदम है ताकि देश की अर्थव्यवस्था में खपत और मांग बनी रहे. साथ ही विभाग को कोशिश करनी होगी कि अनुपालन नियमों का सरलीकरण करे जिससे व्यापार आसान बनें और जीएसटी कलेक्शन यथावत् बना रहे क्योंकि कार्यवाही का डर दिखाकर टैक्स कलेक्शन नहीं किया जा सकता.

अनिल अग्रवाल (CA)

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