संसद की संयुक्त समिति ने एक आदेश जारी किया है, जिसके कारण अब सांसदों को सिर्फ अपनी एक ही पेंशन पर गुजारा करना होगा। अभी तक एक सांसद को, यदि वह विधायक भी रहा हो और सरकारी कर्मचारी भी रहा हो तो तीन-तीन पेंशनें लेने की सुविधा बनी हुई है। हमारे सांसदों को तीन लाख 30 हजार रु. तो हर महिने वेतन के तौर पर मिलते ही हैं, उन्हें तरह-तरह की इतनी सुविधाएं भी मिलती हैं कि उन सबका हिसाब बाजार भाव से जोड़ा जाए तो उन पर होनेवाला सरकारी खर्च कम से कम 10 लाख रु. प्रति माह होता है। जबकि भारत के लगभग 100 करोड़ लोग 10 हजार रु. प्रति माह से भी कम में गुजारा करते हैं। हमारे वे सांसद और विधायक बिल्कुल भौंदू माने जाएंगे, जो सिर्फ अपने वेतन और भत्तों पर ही निर्भर होंगे। राजनीति में आनेवाला हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पार्टी का हो, उसके लिए यह सरकारी वेतन और भत्ते तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान हैं। हमारी राजनीति का शुद्धिकरण तभी हो सकता है जबकि हमारे जन-प्रतिनिधि आचार्य कौटिल्य की सादगी का अनुकरण करें या यूनानी विद्वान प्लेटो के दार्शनिक सेवकों की तरह रहें। प्रधानमंत्री ने खुद को ‘प्रधान जनसेवक’ कहा है, जो बिल्कुल उचित है लेकिन हमारे नेता गण वास्तव में जनता के प्रधान मालिक बन बैठते हैं। उनकी लूट-पाट और उनकी अकड़ हमारे नौकरशाहों के लिए अत्यंत प्रेरणादायक होती है। वे उनसे भी ज्यादा अकड़बाज और लुटेरे बनकर ठाठ करते हैं। संसदीय समिति को बधाई कि उसने अभी सांसदों की दुगुनी-तिगुनी पेंशन पर रोक लगाई है लेकिन यह काम अभी अधूरा ही है। उसे पहला काम तो यह करना चाहिए कि सांसदों को अपने वेतन और भत्ते खुद ही बढ़ाने के अधिकार को वह समाप्त करे। दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में यह अधिकार दूसरे संगठन को दिया गया है। इसके अलावा जरा यह भी सोचा जाए कि यदि कोई व्यक्ति पांच साल से कम समय तक संसद और विधायक रहे तो उसे पेंशन क्यों दी जाए? क्या सरकारी कर्मचारी और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को इस तरह पेंशन मिल जाती है? मेरी अपनी राय तो यह है कि सांसदों और विधायकों को कोई पेंशन नहीं लेनी चाहिए। इसके अलावा यदि विभिन्न राज्यों का हिसाब-किताब देखें तो वहां पेंशन के नाम पर लूट मची हुई है। कई राज्यों में जो विधायक कई बार चुने जाते हैं, उनकी पुरानी पेंशन में नई पेंशन भी जुड़ जाती है। पंजाब में अकाली दल के 11 बार विधायक रहे प्रकाशसिंह बादल को लगभग 6 लाख रु. प्रति माह पेंशन मिलती है। ‘आप पार्टी’ की मान सरकार इस प्रावधान पर रोक लगा रही है। इसके अलावा विधायकों के और भी कई मजे हैं। देश के सात राज्यों में विधायक लोगों की आय पर आयकर उनकी सरकारें भरती हैं। उन्हें भी सांसदों की तरह निवास, यात्राओं आदि की कई मुफ्त सुविधाएं मिली रहती हैं। जो सुविधाएं जन-सेवा के लिए जरुरी हैं, वे अवश्य दी जाएं लेकिन नेताओं की पेंशन, मोटी तनख्वाह और अनावश्यक सुविधाओं में यदि कटौती कर दी जाए तो हजारों करोड़ रु. की बचत हो सकती है, जिसका लाभ देश के वंचितों, गरीबों और पिछड़ों को पहुंचाया जा सकता है। आजकल देश के नेतागण अपने विज्ञापन छपाने और दिखाने पर अरबों-खरबों रु. खर्च कर रहे हैं। इस पर भी तुरंत पाबंदी लगनी चाहिए।