पश्चिम के मजहबी झण्डाबरदारों ने प्राचीन भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के विकृतिकरण का अभियान-सा चला रखा है। इसके लिए भारतीय वाङ्ग्मय में घुसने का सुराख तमिल साहित्य में सेंध मारकर बनाया गया है। जबकि वेदों का उल्टा-पुल्टा अनुवाद करने वाले षड्यंत्रकारी मैक्समूलर के ‘द्रविड़वाद’ को सेंधमारी के लिए औजार के तौर पर इस्तेमाल किया गया।
द्रविड़वाद नामक औजार से बौद्धिक व्याभिचारियों ने दक्षिण भारतीय तमिल साहित्य को अपने घेरे में जकड़ लिया है और इस भूभाग को शेष भारत से अलग-थलग करने के बावत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी जमीन तैयार कर रखी है। राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक- ‘ब्रेकिंग इण्डिया’ में इसका विस्तार से खुलासा किया है, जिसके अनुसार देइवनयगम नामक दक्षिण भारतीय लेखक की संस्था- ‘दी ड्रैविडियन स्पिरिचुअल मूवमेण्ट’ ने ‘दी इंस्टीच्यूट ऑफ एशियन स्टडीज’ और ‘न्यूयॉर्क क्रिश्चियन तमिल टेम्पल’ के सहयोग से वर्ष 2005 में अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसका विषय था- ‘भारत में सेण्ट टॉमस के उदय से लेकर वास्को-डी-गामा तक की प्रारम्भिक ईसाइयत का इतिहास।’ न्यूयार्क में आयोजित इस विषय पर वह पहला अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था और तब से यह लगातार आयोजित होता रहा है। उस सम्मेलन में ‘भारत में आरम्भिक ईसाइयत का इतिहास-एक सर्वेक्षण’ नामक शोधपत्र प्रस्तुत किया गया, जिसमें उल्लेख है कि “…कृष्ण की कथाओं ने ईसाई-स्रोतों से ही व्यापक रूप से सामग्री ली है।” उक्त शोधपत्र में श्रीकृष्ण और ईसा मसीह में जबरन अनेक समानतायें स्थापित करते हुए उन्हें सूचीबद्ध किया गया है। यह भी दावा किया गया है कि कृष्ण की पूजा यूरोप से बहुत देर बाद भारत में आई। इसी तरह सम्मेलन में भाग लेने गए एक ईसाई-प्रचारक डॉ. जे. डेविड भास्करदोस और उनकी पत्नी हेफ्जिबा जेसुदासन द्वारा प्रस्तुत शोधपत्र में दावा किया गया है कि कम्बन की रामायण और तुलसी की रामायण, दोनों पर ईसाइयत का प्रभाव है, जबकि ‘पूर्व मीमांसा’ पर बाइबिल के ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ और ‘उतर मीमांसा’ पर बाइबिल के ‘न्यू टेस्टामेण्ट’ का। इसी तरह उक्त सम्मेलन में भारतीय वाङ्ग्मय के अन्य ग्रन्थों-शास्त्रों को अपहरण अथवा विकृतिकरण का निशाना बनाते हुए उनमें ईसाइयत का प्रक्षेपण करने वाले अनेक तथाकथित शोधपत्र प्रस्तुत किए गए थे, जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- `शिवज्ञानपोतम में त्रयी सिद्धान्त’, ‘ईसाइयत और सिद्ध साहित्य’, ‘ईसाइयत और ब्रह्मसूत्र’, ‘ईसाइयत और वेदान्त पर एक टिप्पणी’, ‘ईसाइयत और षड्दर्शन’, ‘प्रजापति और जीसस’, ‘बाइबिल और तमिल भक्ति-काव्य में विवाह के रूपक’, ‘गंगा नदी और पाप का क्षमा-सिद्धांत’ आदि।
इस फेहरिस्त को देख कह सकते हैं कि किसी विचार-दर्शन ग्रन्थ या शास्त्र से ईसाइयत की तुलना करना अथवा दोनों में समानता स्थापित करना कोई अनुचित काम नहीं है, बल्कि यह तो वैचारिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दृष्टि से अच्छा ही है। मेरा भी ऐसा ही मानना है; किन्तु यह तब उचित और अच्छा हो सकता है, जब ऐसा करने वालों की नीयत साफ और उद्देश्य पवित्र हो। मगर यहां तो ‘गॉड के इकलौते पुत्र’ एवं तथाकथित ‘ज्ञान की इकलौती किताब’ को सारी दुनिया पर स्थापित करने की साम्राज्यवादी औपनिवेशिक योजना क्रियान्वित करने में लगे पश्चिमी बुद्धिबाजों की नीयत ही काली है।
मैक्समूलर द्वारा वेदों के कुत्सित प्रायोजित अनुवाद से आविष्कृत ‘आर्य-द्रविड़वाद’ नामक औजार के सहारे अन्य भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों की समीक्षा और इनसे ईसाइयत की संगति बिठाने का उद्देश्य पवित्र हो ही नहीं सकता। तभी तो असम में कुछ वर्ष पहले वहां के एक चर्च के पादरियों को उनकी गतिविधियों का खुलासा होने पर स्थानीय आक्रोशित हिन्दुओं से माफी मांगनी पड़ी, जिसकी खबर 08 जनवरी 1999 को ‘दी हिन्दू’ अखबार में प्रकाशित हुई थी। खबर के अनुसार चर्च ने वैष्णव सम्प्रदाय के पवित्र धर्मग्रन्थ ‘नामघोष’ का ऐसा अनुवाद प्रकाशित कराया था, जिसके मूल भजनों में ‘राम’ व ‘कृष्ण’ के नाम हटाकर ‘ईसा मसीह’ का नाम प्रक्षेपित कर दिया। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। इन षड्यंत्रकारियों ने ‘दक्षिण का रामायण’ कहे जाने वाले ‘तिरुकुरल’ नामक महाकाव्य को दशकों पहले ईसाई शिक्षाओं का ग्रंथ और इसके रचयिता जो दक्षिण के तुलसी कहे जाते हैं, उन्हें जबरिया सेण्ट टॉमस का शिष्य घोषित कर रखा है। जाहिर है कि समस्त प्राचीन भारतीय ग्रन्थ और धर्म-शास्त्र इन षड्यंत्रकारियों के निशाने पर हैं।
दरअसल, ये लोग समस्त सनातन धर्म के तत्व दर्शन व भारत के इतिहास व साहित्य सबके मूल में ईसा व ईसाइयत को जबरिया घुसाने-पिरोने तथा आर्य-द्रविड़ के आधार पर उत्तर बनाम दक्षिण की विभाजक दरार पैदाकर भारतीय राष्ट्रीयता के विघटन की गुप्त योजना में लगे हैं । इनकी रणनीति है-समस्त भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों का अपहरण या इनका विकृतिकरण अथवा इन दोनों ही कार्यक्रमों का अलग-अलग मोर्चों पर एकसाथ क्रियान्वयन। इनकी रणनीति इन उदाहरणों से समझा जा सकता है। एक ओर जहां रामायण को ईसाइयत की शिक्षाओं का ग्रन्थ प्रमाणित करने के प्रयत्न में लगे हैं, वहीं इनका दूसरा खेमा इसे एक नस्लवादी ग्रन्थ प्रचारित करने में भी लगा है। पोर्टलैण्ड स्टेट यूनिवर्सिटी की एक प्राध्यापिका डॉ. कैरेनकर इस हेतु वेबसाइट का संचालन करती हैं, जिसमें राम को ‘आर्य-आक्रमणकारी’ तथा रावण को ‘द्रविड़ों का आक्रान्त राजा’ और हनुमान-जामवन्त आदि बानरों को ‘दक्षिण भारत की आम जनता’ निरूपित करते हुए बताया जाता रहा है कि उत्तर भारत वाले दक्षिण भारत के आम लोगों को साधारण मनुष्य नहीं मानते, इस तरह से रामायण नस्लीय घृणा फैलाने वाला ग्रंथ है।
पश्चिम के इन शिक्षाविदों-लेखकों-विचारकों का अभियान यहीं तक सीमित नहीं, बल्कि हमारी जड़ों में जाकर संस्कृत भाषा तक को लेकर दावा करने लगे हैं कि यह ग्रीक और लैटिन से निकली भाषा है, जिसे ब्राह्मणों ने हथिया लिया। भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपहरण-विकृतिकरण की ऐसी अटकलों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐतिहासिक, साहित्यिक व अकादमिक आकार दिया जा रहा है। इसके लिए भारत और भारत के बाहर यूरोप-अमेरिका में चर्च-मिशनरियों से सम्बद्ध अनेक शोध संस्थान और विश्वविद्यालय एक प्रकार से अनुबंधित हैं, जो बेसिर-पैर की ऐसी बातों पर आधिकारिक मुहर लगाते रहते हैं।