धर्मस्थलों के लिए गाइडलाइन हो

 

क्या धर्म स्थलों के लिए कोई गाइडलाइन नहीं हो सकती? हम कहीं भी भवन तान दें और फिर जब दुर्घटना हो जाए तो जिम्मेदारी प्रशासन पर थोप दें, क्या यह सही है? क्या इंदौर की घटना की पूरी जिम्मेदारी मंदिर ट्रस्ट की नहीं है? और भी तमाम सवाल हैं, जो केवल धर्म स्थल के नाम पर गौण हो जाएंगे, ऐसा लग रहा है। वैसे भी प्रदेश में हुई तमाम दुर्घटनाओं की जांच रिपोर्ट का इतिहास अच्छा नहीं है, इसलिए इस जांच पर अभी से संदेह की सुई घूमने लगी है।
असल में इंदौर के बेलेश्वर महादेव झूलेलाल मंदिर में रामनवमी के दिन हुआ हादसा जितना त्रासद और दुर्भाग्यपूर्ण है, उतना ही विचारणीय भी। यहां एक-दो नहीं, छत्तीस लोगों की मौत हुई है। रामनवमी के मौके पर मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगना कोई अप्रत्याशित बात नहीं थी। जाहिर है भीड़ को संभालने के लिए जिस तरह की चाक-चौबंद और चौकस व्यवस्था होनी चाहिए थी, उसका वैसे ही अभाव था जैसे आम तौर पर मंदिरों में होता है। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा तो यह है कि मंदिर के अंदर बावड़ी को ढकने वाले स्लैब पर भी काफी लोग इक_ा हो गए थे। कोई उन्हें रोकने वाला या यह बताने वाला नहीं था कि यह स्लैब कमजोर है और ज्यादा लोगों का बोझ नहीं वहन कर सकता।
वही हुआ, जिसकी कल्पना नहीं की थी। अचानक स्लैब धंस गया और उस पर खड़े तमाम लोग नीचे गहरी बावड़ी में गिर गए। मामले की जांच के आदेश तत्काल दे दिए गए। मृतकों के परिजनों और घायलों के लिए मुआवजा राशि घोषित करने में भी सरकार ने देर नहीं लगाई। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्यों हमें बार-बार विभिन्न धार्मिक स्थलों से ऐसे हादसों की खबरें सुनने को मिलती हैं? कभी किसी मंदिर की छत गिर जाती है तो कभी रेलिंग का हिस्सा टूटकर गिर जाता है। क्यों इन मंदिरों और अन्य धर्मस्थानों की मरम्मत और रखरखाव की व्यवस्था पर नजर नहीं रखी जाती? कानून के अनुरूप, उनकी जिम्मेदारी क्यों नहीं तय हो पाती?
ताजा हादसे का भी यह एक अहम पक्ष है। मंदिर के अंदर स्थित बावड़ी को इस तरह ढका जाना गैरकानूनी तो था ही, स्थानीय प्रशासन को इसकी जानकारी भी थी। इस बारे में नोटिस भी दिया गया था। खबरों के मुताबिक जनवरी के आखिरी हफ्ते में इंदौर नगर निगम ने मंदिर के ट्रस्ट को अल्टीमेटम दे दिया था कि अगर एक सप्ताह के अंदर इस स्लैब को नहीं हटाया गया तो जबरन हटा दिया जाएगा और उसका खर्च मंदिर प्रबंधन से लिया जाएगा। नगर निगम का यह रुख बिलकुल सही था।
लेकिन दुखद पहलू यह रहा कि इसके बाद हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप लगने लगे। कहा जाने लगा कि नगर निगम प्रशासन मंदिर के अंदरूनी मामलों में बेवजह दखल दे रहा है। ऐसा लगता है कि कथित तौर पर हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं का वास्ता दिए जाने के बाद नगर निगम दबाव में आ गया। मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष ने तो बाकायदा नगर निगम के अधिकारियों को भावनाएं भडक़ने की धमकी ही दे दी थी।
संभवत: इसीलिए जो काम एक सप्ताह की समय सीमा समाप्त होते ही शुरू हो जाना चाहिए था, उस दिशा में दो महीने बाद भी कोई प्रगति नहीं हुई। नतीजा यह कि रामनवमी के मौके पर श्रद्धालुओं को अपनी जान देकर इस लापरवाही की कीमत चुकानी पड़ी। आखिर कथित धार्मिक भावनाओं के नाम पर हमारी कानून व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियां अक्सर लाचार क्यों दिखने लगती हैं? यह स्थिति बेहद खतरनाक है। एक बात यह भी है कि राज्य सरकारें अपने यहां के धर्मस्थलों का सुरक्षा ऑडिट क्यों नहीं करातीं ताकि ऐसे हादसे रोके जा सकें। इसकी पहल तभी हो सकती है, जब इंदौर की घटना के लिए मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष को हत्याओं का सीधे जिम्मेदार मानकर कानूनी कार्रवाई की जाए। अभी गैर इरादतन हत्या का आरोप लगा है, जो उचित प्रतीत नहीं होता। ट्रस्ट सीधे जिम्मेदार है, गैर इरादतन हत्या का मामला यही संकेत देता है कि इस मामले का भी वही हश्र होगा, जो रतनगढ़ मंदिर हादसे या अन्य ऐसे ही हादसों की जांच का हुआ।
फिर भी, सरकार और प्रशासन को धार्मिक स्थलों के लिए कोई गाइडलाइन तो बनानी ही होगी। धर्म के नाम पर लोगों को मौत के मुंह में धकेलने वालों पर जब तक सख्त कार्रवाई नहीं होगी, वे प्रशासन को धमकाते रहेंगे। जान की कीमत सरकारी मुआवजा से नहीं तौला जाए, तभी कुछ हो पाएगा।
-संजय सक्सेना

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