चातुर्मास : व्यवहारिक पक्ष

 

 

-रमेश रंजन त्रिपाठी :

 

सनातन संस्कृति में मानव भावनाओं एवं जीवन की घटनाओं को देवत्व से जोड़कर पवित्र तथा अलौकिक स्वरूप प्रदान कर दिया जाता है। इससे जनमानस के मन में उत्पन्न होनेवाली श्रद्धा एवं विश्वास उनके जीवन को सार्थकता प्रदान करने में विशेष सहायक होते है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चातुर्मास अवधि में भी यही बात लागू होती है। इस अवधि को सृष्टि के नियंता श्रीहरि की योगनिद्रा माना जाता है।

चातुर्मास में हमारी धरती पर जीवन के प्रमुख आधार सूर्य देव दक्षिणायन हो जाते हैं। ऋतु चक्र में वर्षा का आरंभ हो जाता है। मौसम में बड़ा बदलाव होने लगता है। सूर्य और चंद्रमा का तेज घटने लगता है। तापमान में गिरावट, नदी-नालों में बाढ़, खर-पतवार से ढके मैदान और रास्ते, कृषि प्रधान देश में खेती के काम में व्यस्त होते किसान, वातावरण में नमी और ऊष्मा के मिलेजुले प्रभाव से उत्पन्न हुए कीड़े-मकोड़े और वायरस बैक्टीरिया, सुषुप्तावस्था से बाहर आते जीव-जंतु, हरियाली की बहार, सब मिलकर लोगों के आने-जाने, घूमने-फिरने में कमी ले आते हैं। ऐसे में देवी-देवताओं के विश्राम की अवधारणा में आश्चर्य क्या? अपनी सबसे प्रिय एकादशी तिथि से श्रीहरि सृष्टि के संचालन का भार शिव जी को सौंपकर पाताल लोक में दैत्यों के राजा बलि के पास चले जाते हैं। पृथ्वी पर जनमानस का आवागमन सीमित हो जाता है और उसे व्रत, त्योहार, उत्सव मनाने का अधिक समय मिलने लगता है। परदेस जाने में असुविधा के चलते शादी जैसे अनेक ऐसे मांगलिक कार्य स्थगित कर दिए जाते हैं जिनमें मेहमानों को आना-जाना पड़ता है। धार्मिक व्यवस्थाओं में अनेक बातें बहुत सुंदर तरीके से समझाई जाती हैं। उदाहरण के लिए बारिश में नदियों में बाढ़ आ जाती है, उनका जल मटमैला और कचरे आदि से भर जाता है। उनमें पैठना खतरनाक हो सकता है। प्राचीन ग्रंथों में ऐसे समय नदियों में तैरना यह कहकर वर्जित किया गया है कि वे रजस्वला हो गई हैं। वर्षा से उत्पन्न अव्यवस्थाओं और गंदगी आदि को ठीक करने के लिए शरद ऋतु के अगले के दो महीनों को मिलाकर चातुर्मास की व्यवस्था की गई। इसके लिए संयम एवं नियम बनाए गए, साफ-सफाई पर जोर दिया गया। जठराग्नि में कमजोरी, आवागमन में व्यवधान, रोग के विषाणुओं में वृद्धि जैसे अनेक कारणों से व्रत, उपवास पर जोर दिया गया है। परिव्राजक एक स्थान पर ठहर जाते हैं। लड़कियाँ भाई को राखी बांधकर हमेशा के लिए मायके से अपने संबंधों को दृढ़ता प्रदान करती हैं। श्रीकृष्ण और बलराम का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। सुहागिनें अपने पति की लंबी उम्र और खुशहाली के लिए हरतालिका तीज का निर्जला व्रत या करवा चौथ का उपवास करती हैं। पितृपक्ष में पूर्वजों को प्रसन्न करने के उपाय किए जाते हैं। नवरात्र में शक्ति संचय हेतु देवी जी की आराधना की जाती है। दीवाली में अमावस्या की काली रात को दीपमालिका से जगमग कर लक्ष्मी जी का स्वागत किया जाता है। शरद पूर्णिमा का चंद्रमा धरतीवासियों को अमृत से तृप्त कर देता है।

चार महीने बीतने पर हेमंत ऋतु के आगमन के साथ कार्तिक शुक्ल एकादशी को श्रीहरि पाताल लोक से लौटकर अपना कार्यभार पुनः संभाल लेते हैं। उज्जैन में इस अवसर पर ‘हरि हर मिलन’ की अद्भुत प्राचीन परंपरा है। समारोह पूर्वक भगवान महाकाल की सवारी श्री गोपाल मंदिर जाती है।

चातुर्मास से रोचक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है। देवताओं को परास्त कर समस्त संसार में अपना आधिपत्य स्थापित करनेवाले दैत्यराज बलि से श्रीहरि ने वामन रूप धारण कर तीन पग पृथ्वी माँगी। उन्होंने पहले पग में संपूर्ण धरती और दूसरे पग से स्वर्ग ले लिया। तीसरे चरण के लिए बलि ने अपना मस्तक श्रीहरि के सामने प्रस्तुत कर दिया। बलि की भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीहरि ने उसे पाताल लोक का राज्य दे दिया और वरदान माँगने के लिए कहा। राजा बलि ने माँगा कि श्रीहरि उसके साथ नित्य निवास करें। वचनबद्ध भगवान को पुनः बैकुंठ ले जाने के लिए लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई बना लिया। और, बदले में श्रीहरि को मुक्त करने की प्रार्थना की। राजा बलि ने श्रीहरि को अपनी बहन लक्ष्मी जी के साथ जाने दिया। कहते हैं कि रक्षाबंधन का त्योहार तभी से शुरू हुआ। यह भी मान्यता है कि इसीलिए भगवान चातुर्मास में राजा बलि के पास पाताललोक चले जाते है।

देवशयनी, देव उठनी महत्वपूर्ण पर्व हैं। सनातन धर्म में बेहतर मानव बनने के लिए विशेष त्योहारों पर संयम, उपवास और ईश्वर की पूजा आराधना करने की परंपरा है। इन परंपराओं का लाभ उठाना चाहिए।

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