अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं!आपको शायद याद भी होगा!श्रीमुख से एक नया डायलॉग निकला था – अब तक कबूतर छोड़े जाते थे..अब चीते छोड़े जाते हैं!
नही याद आया..? चलिए हम आपको याद दिला देते हैं!
हुजूर का अवतरण (17 सितंबर) दिवस था।इस ऐतिहासिक मौके पर अपने एमपी में भी एक अलौकिक आयोजन हुआ था।देश में लुप्त हो चुके चीतों का पुनर्स्थापन किया गया था!नामीबिया से 8 चीते लाए गए थे!इन्हें श्योपुर जिले के कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा गया था!
कुछ याद आया कि नहीं!अरे..अपने अवतरण दिवस पर हुजूर खुद इन चीतों को लेकर कूनो आए थे।उनके साथ गाड़ी में बैठकर उनके लिए बनाए गए बाड़े तक गए थे।हमेशा की तरह कैमरे की चौतरफा नजर में चीते का पिंजड़ा हुजूर ने ही खोला था।आपको यह भी याद होगा कि इस मौके पर मौजूद मामा किस तरह गदगदायमान हुए थे।उसी दिन एक प्रायोजित सभा में यह डायलॉग “अवतरित” हुआ था – अब तक कबूतर छोड़े जाते थे.. अब चीते छोड़े जाते हैं!राज्य के लिए तो ऐतिहासिक इवेंट था ही साथ ही देश का भी नाम रोशन हुआ था!आखिर जिन चीतों का नामोनिशान देश से मिट गया था,वे फिर आ गए थे।
खूब चर्चा हुई।बड़े बड़े दावे भी हुए।देश में चीते आए!एमपी टायगर स्टेट के साथ चीता स्टेट भी बन गया।बाद में अफ्रीका से भी 12 चीते लाए गए।उन्हें भी कूनो लाकर छोड़ा गया!फिर सबने छाती ठोंकी!सब चिल्लाए..चीता..चीता..!
लेकिन 6 महीने में ही हालात बदले बदले नजर आ रहे हैं।कुल 20 में से 2 चीते (एक नर और एक मादा) मर चुके हैं।यह अलग बात है कि एक मादा चीता ने 4 शावकों को जन्म देकर संख्या को 22 तक पहुंचा दिया है।इस बीच एक चीते ने वन अमले की नाक में दम कर दिया है।वह बार बार अपने इलाके से बाहर की ओर भाग जाता है।फिर उसे बेहोश करके वापस लाना पड़ता है।
इस बीच चीता प्रोजेक्ट से जुड़ी कई समस्याएं भी सामने आईं!सवाल उठा कि जगह कम है और चीते ज्यादा।इसलिए “भागदौड़” हो रही है।उधर वन्यजीवन से जुड़े एक प्रमुख जर्नल ने इस प्रोजेक्ट पर ही सवाल उठा दिया!जर्नल के मुताबिक 20 चीतों के लिए ज्यादा खुली जगह चाहिए।एक चीते के लिए औसत 100 वर्ग किलोमीटर जंगल होना चाहिए।लेकिन कूनो के कुल 750 वर्ग किलोमीटर इलाके में 20 चीते लाकर छोड़ दिए।जगह कम,भीड़ ज्यादा! ऐसी समस्या आ गई जिसका समाधान तत्काल तो संभव नहीं दिख रहा।
इस बीच पता चला कि चीता प्रोजेक्ट भी राजनीति का शिकार हुआ है।पहले यह तय हुआ था कि करीब आधा दर्जन चीतों को कूनो की बजाय राजस्थान के मुकुंदरा अभ्यारण्य में रखा जाएगा।लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने इसकी अनुमति ही नही दी। वहां कांग्रेस की सरकार है!केंद्र सरकार यह नही चाहती है कि उसकी महत्वाकांक्षी परियोजना से कांग्रेस या उसके शासन वाले राज्य का नाम जुड़े!हालांकि राजस्थान सरकार इससे अनभिज्ञता जताती है।
वैसे एक तथ्य यह भी है कि चीता प्रोजेक्ट से जुड़े अफसरों को पहले से पता था कि कूनो में जगह कम है।लेकिन उन्हें लगा कि कहीं दक्षिण अफ्रीका चीते देने से ही इंकार न कर दे।सो उन्होंने सारे चीते कूनो में जमा कर दिए!
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को भी यह मालूम है।शायद इसीलिए वह मंदसौर के गांधीसागर अभ्यारण्य में चीते रखने की तैयारी करने का निर्देश अफसरों को देते रहे हैं।सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री कह तो रहे हैं लेकिन गांधीसागर में काम कराने के लिए वन विभाग को पैसा नही मिल पा रहा है।सरकार का खजाना खाली है।उस पर बजट से ज्यादा कर्ज है।इसलिए मामला अटका हुआ है।
पता यह भी चला है कि वन विभाग की ओर से राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण(एनटीसीए) को यह कहा गया है कि कुछ चीतों को कूनो से कहीं और भेज दिया जाए।क्योंकि कूनो नेशनल पार्क में 20 चीतों को रखने की जगह नही है।इस बारे में केंद्र सरकार को भी पूरी जानकारी दे दी गई है।पता यह भी चला है कि चीतों की देखरेख और उन पर नजर रखने के लिए बड़ी संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारियों की जरूरत है।राज्य सरकार इसकी भी व्यवस्था नही कर पा रही है।
एक समस्या और है!कूनो से राजस्थान का इलाका लगा हुआ है।सूत्रों के मुताबिक रणथंभोर इलाके का एक बाघ टी 135 आकर कूनो के इलाके में घुस आता है।अब दूसरा टी 136 भी कूनो की ओर जाता देखा गया है।अगर बाघ चीतों के इलाके में घुसे तो बड़ी समस्या हो जायेगी।क्योंकि बाघ हर दृष्टि से चीते पर भारी पड़ता है।इनके बीच भी टेरिटरी वार छिड़ सकता है।
वैसे बात मुख्य रूप से आर्थिक बंदोबस्त की भी है।बताते हैं कि इंडियन आयल ने सी एस आर के तहत चीता पुनर्स्थापन के लिए 50 करोड़ की राशि केंद्र सरकार को दी थी।केंद्र की ओर से 10 करोड़ एमपी को दिए गए थे।इनमें से साढ़े सात करोड़ तो चीतों को रखने की व्यवस्था बनाने में ही खर्च हो गए।बचे ढाई करोड़ चीतों की देखभाल और सुरक्षा पर खर्च किए जा रहे हैं।उधर गांधीसागर में सिर्फ फेंसिंग का ही खर्च करोड़ों का बताया जा रहा है।वहां का काम तभी आगे बढ़ पायेगा जब पैसा आएगा।
यही स्थिति नौरादेही अभ्यारण्य की बताई जाती है। और अगर तत्काल पैसा मिल भी जाए तो भी करीब एक साल का समय तैयारियों में ही लग जायेगा।
वन्य प्राणी विशेषज्ञ मानते हैं कि दूसरे देशों से आए चीते यदि लंबे समय तक इसी इलाके में रहे तो समस्या हो सकती है।क्योंकि शेरों की तरह चीते भी अपने इलाके बनाते हैं।ऐसे में इलाके को लेकर उनमें संघर्ष होना स्वाभाविक है।अगर ऐसा हुआ तो एक बड़ी समस्या हो जायेगी।घुसपैठिए बाघ समस्या को गंभीर बना सकते हैं।
खबर यह भी है कि एनटीसीए में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी प्रदेश के एक वरिष्ठ अधिकारी से खफा हैं।उन्हें एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री के संरक्षण की वजह से बड़ी कुर्सी मिल गई।जबकि एमपी के अधिकारी इस कुर्सी के लिए वास्तिवक दावेदार थे।इसी वजह से मनमुटाव है।जिसका खामियाजा राज्य सरकार और चीते ,दोनो ही भुगत रहे हैं।
बात दिल्ली के मंत्री के संरक्षण की है इसलिए मुख्यमंत्री भी कुछ नही कर पा रहे हैं।वनमंत्री की तो हैसियत ही क्या है! सबको सच्चाई पता है पर “दिल्ली” के आगे मुंह कौन खोले?
जहां तक चीतों का सवाल है… दो मर गए।दोनों बीमार थे।यह बड़ी बात है।लेकिन चूंकि एक मादा चीता ने चार बच्चे जने हैं इसलिए इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।लेकिन अगर आने वाले दिनों में भोपाल और दिल्ली के अफसरों के बीच चल रहे “टेरिटरी वार” की ओर ध्यान न दिया गया तो चीतों का टेरिटरी वार शुरू होने का खतरा बढ़ जायेगा।
फिलहाल चीते अपनी टेरिटरी बनाने और और अफसर अपनी टेरिटरी बचाने में लगे हैं!उधर शिकारी भी कूनो में डेरा जमा चुके हैं!
इस प्रोजेक्ट से जुड़े वन्यप्राणी विशेषज्ञ चीतों पर चल रही राजनीति से हतप्रभ हैं!उत्तर प्रदेश के पूर्व वरिष्ठ वन सेवा अधिकारी एवम वन्य प्राणी विशेषज्ञ डाक्टर उमा शंकर सिंह तो शुरू से ही इस परियोजना पर सवाल उठाते रहे हैं।उन्होंने तथ्य और तर्क के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि देश में चीतों को लाए जाने से पहले उनके हिसाब से तैयारी नही की गई।सिर्फ राजनीतिक श्रेय लेने के इसे बड़ा इवेंट बनाया गया।उसका परिणाम सामने है।
बाकी सब कुशल है। तो अब आप ही बताइए कि अपना एमपी गज्जब है ? है कि नहीं! अगर कोई पूछ पाता तो शायद चीते भी यही कहते!!!
अरुण दीक्षित ( वरिष्ठ पत्रकार)