श्रीगोपाल गुप्ता:
अभी हाल ही में कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में अपने समर्थक विधायकों के साथ शामिल हुये पूर्व मंत्री एवं राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया होने वाले उप चुनाव में चम्बल-ग्वालियर संभाग में कोई चुनौती नही हैं! यहां के हालात और पिछले अनुभव जो रहे हैं, कम से कम उससे तो यही प्रतीत हो रहा है! ये तथ्य 100 फीसदी सत्य है कि अपने 18 साल के राजनीतिक जीवन में सिंधिया जब तक कांग्रेस में थे तब तक एक जन नेता के तौर पर दोनों संभागों में उभर कर सामने आये! संभवतः भाजपा में भी वे अपना यह ओहदा बरकरार रख पायें? मगर सत्य यह भी है कि वे एक जन नेता तो शुरु से ही पिता के निधन के बाद दिखने लगे मगर वे जननायक अभी तक नहीं बन सके! उनके राजनैतिक जीवन की शुरुआत से ही उनके काफिले,जुलूस और सभाओं में भारी भीड़ लगती थी और लगता था कि जनसैलाव उमड़ गया हो! मगर ध्यान इस और भी देना होगा कि वे इस जनसैलाव को कभी भी मतदान केन्द्र तक वोटों में तबदील नहीं कर पाये! यही कारण रहा कि उनके भारी प्रयासों और जूलुस व सभाओं में भारी फौज-फाटे और जनसैलाव के बावजूद कांग्रेस चम्बल में चुनाव दर चुनाव हारती रही! जिसका फायदा और दोहन भाजपा ने पूरी सजगता और मुस्तैदी के साथ किया!कड़वा सच तो यह है कि सन् 1998 में लोकसभा के आम चुनाव के दौरान ग्वालियर से भारी मुस्किल और मशक्कत से भाजपा के दिग्गज बंजरंगी बाबू जयभान सिंह पवैया से चुनाव जीते ज्योतिरादित्य सिंधिया के स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के ग्वालियर संसदीय क्षेत्र छोड़कर गुना रवाना हो गये! तब से उस हादसे के बाद भारतीय जनता पार्टी चम्बल-ग्वालियर में अपना आधार मजबूत करती गई और कांग्रेस अंदर खाने अंधेरे की और खिसकती गई! इसके बाद जो परिणाम आये वो सबके सामने हैं कि सन् 1991 के बाद दोनों महाराजाओं के ऐड़ी-चोटी का जौर लगा देने के बावजूद सन् 2019 तक आम चुनावों में मुरैना लोकसभा क्षेत्र से एक अदद चुनाव जीतने का सपना संजो रही कांग्रेस आज भी खाली हाथ है! भिण्ड तो शुरु से ही सिंधियाओं के खिलाफ रहा है तो वहां तो सिंधिया जी की मदद से कांग्रेस सांसद बना ही नहीं सकती थी! ग्वालियर भी इससे अछूता नहीं रहा हां फिर भी रामसेवक बाबूजी किसी तरह सांसद बनने में सफल भी हो गये थे, मगर वे अयोग्यता की भेंट चड़ गये! तब से ग्वालियर संसदीय क्षेत्र भाजपा का अभेद किला बन और कांग्रेस के लिये जीरो बटे सन्नाटा! शिवपुरी गुना का हाल कल की ऐतिहासिक घटना है कि स्यंम श्रीमंत ही चुनाव हार गये, हालांकि उनका हारना कोई मामूली घटना नहीं है मगर सच तो यही है!
लगभग इसी से मिलती जुलती कहानी मुरैना जिले की छह और श्योपुर जिले की दो विधानसभा सीटों की है! अगर 2018 विधानसभा को छोड़ दें तो संभाग मुख्यालय मुरैना विधान सभा सीट पर कांग्रस ने आखिरी दफा सन् 2993 में सिंधिया खैमे के स्वर्गीय सोवरन सिंह मावई की जीत पर तिरंगा फहराया था! उसके बाद से लेकर जन नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के भारी-भरकम प्रचार और हजारों की भीड़ जूलुस और सभाओं के बावजूद मुरैना से कांग्रस का कोई विधायक नहीं बन पाया! सुमावली विधानसभा से एंदल सिंह कंषाना को छोड़ दिया जाये तो सबलगढ़, जोरा में लंबे अरसे के बावजूद एक- एक विधायक सुरेश चोधरी और उम्मेद सिंह बना को छोड़कर कोई नहीं जीत पाया जबकि दिमनी,अंबाह में हालात कांग्रेस के हाथों से बाहर ही रहे! सन् 2018 के चुनाव में यदि कांग्रेस ने मुरैना-श्योपुर व ग्वालियर में जो अधिकांस सीटें झटकीं तो उसका बड़ा और प्रमुख कारण रहा 2 अप्रैल सन् 2018 का हिंसक दलित आंदोलन और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का आरक्षण के समर्थन में दिया गया बड़ बोला बयान कि आरक्षण को कोई माई का लाल नहीं रोक सकता! बड़ी संख्या में आंदोलन के दौरान दलितों पर पुलिस ने मामले दर्ज कर जेल भिजवा दिया जिनमें युवायों की संख्या अधिक थी! इस आंदोलन के बाद बहुजन समाज पार्टी के किसी भी नेता ने इसका विरोध नहीं किया जबकि कांग्रेस दलितों को मूक समर्थन देती रही! परिणाम बसपा का जो वोट बैंक था वो छिड़क कर कांग्रेस के साथ आ मिला और कांग्रेस ने चम्बल-ग्वालियर में ढंका पीट दिया और उसने 41साल बाद मुरैना जिले की सभी सीटों पल कब्जा कर लिया! सन् 77 के बाद ये पहला मौका था जब किसी एक पार्टी को पूरी की पूरी सीटों पर विजय मिली! अगर सूत्रों और चम्बलांचल के राजनीतिक पंडितों की मानी जाये तो हालात अभी भी ज्यादा नहीं बदले हैं, बसपा के वोट बैंक का झुकाव अभी भी कांग्रेस की और बना हुआ है और भाजपा के स्थापित नेता भी पार्टी में आये कांग्रसी विधायकों को लेकर चिंतित हैं! इसलिये उप चुनाव जीतने की चुनौती भाजपा के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिये नहीं! क्योंकि बिपरीत परिस्थितियों में पार्टी के लिये मजबूत किलों में तबदील हो चुकी सीटों को जीतना सबसे बड़ी चुनौती है! क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया जन नेता तो हैं मगर जननायक नहीं!