कोड वर्ड में प्रसारित किये गए संदेशों का कोई तय स्वरूप नहीं होता है। वह मौखिक हो सकते हैं और लिखित भी। फिर सयाने तो मौन में छिपे शब्दों को भी समझ लेते हैं। आज जिस खामोशी की बात कही जा रही है, वह दरअसल एक शोर से ही उपजी है। इसी शोर के बीच आपराधिक लापरवाही किस्म की एक सहानुभूति लहर चली और समाचार पत्रों की विश्वसनीयता पर कहर बन कर बरस पड़ी है। यह उस सांझा चूल्हा का मामला है, जिसकी आग को बनाये रखने के लिए अखबारी कागज इस्तेमाल किये जा रहे हैं। उस चूल्हे पर परस्पर समान निजी स्वार्थों की देग चढ़ाई गयी है। मीडिया जब इंडस्ट्री और मालिक प्रमोटर हों तो पत्रकारिता तो वैसे भी इनकी गुलाम है। मैनेजमेंट से बाहर जाकर कोई पत्रकार क्या खाक पत्रकारिता करेगा। वैसे मैं अभी भी पत्रकारिता को पवित्र नदी कह रहा हूं, पर मन में ढेरों संशयों के साथ।
सुबह-सुबह इनके पन्ने देखो तो लगता है कि बस सतयुग आ ही गया है। संपादकीय पृष्ठ पढ़ो तो महसूस होता है कि आज भी राम राज्य की परिकल्पना को साकार करने के स्तुत्य प्रयास हो रहे हैं। होर्डिंग या बैनर पे इनके दावे पढ़ों तो लगता है कि साक्षात शरलक होम्स पत्रकार बनकर उनके संस्थान में सेवाएं देने लगा है। लेकिन इधर पिछले दो दिन से आप अखबार के आखिरी पेज तक पहुंचे और उधर आपका ये भ्रम दरकने लगता है। मेरे साथ कल से ऐसा ही हो रहा है। नामी प्रकाशनों के पेज खत्म हो गए, लेकिन एक खबर की उनमें एक लाइन तक देखने को नहीं मिली। जिनमें मिली, हमाम के उतने नंगे वे भी हैं जितना देश का नंबर वन अखबार है। लेकिन उनकी प्रतिद्वंद्विता है, उनका झगड़ा है, धंधे की दुश्मनी है, खबर केवल इसलिए है। इसलिए तो बिल्कुल ही नहीं कि खबर है, इसलिए छापनी है। आयकर विभाग की इतनी बड़ी छापेमारी का समाचार देने में बाकी बड़े समूहों के भी पसीने छूट गए। हाड़-तोड़ मेहनत कर उन्होंने इस मामले की खबर को रोका। जिन्होंने थोड़ी बहुत नैतिकता दिखाकर समाचार प्रकाशित किया, वो भी मामले को वैसा तूल नहीं दे सके, जैसा वे तब देते जब यह किसी अफसर, नेता या किसी और उद्योगपति के साथ हुआ होता। समाचार पत्रों में यूं भी संपादकों की जगह मैनेजर ले चुके हैं। लेकिन कल से तो ऐसा लग रहा है कि मैनेजर हटाकर उनकी जगह डिक्टेटर बिठा दिए गए हों। जिन्होंने अपने-अपने स्तर पर दो आदेश दिए होंगे। पहला, इस खबर को छूना भी नहीं है। दूसरा, इस खबर को कुछ ऐसे छूना है कि उसकी आत्मा को कुचलने में कोई कसर बाकी न रह जाए। वो समाचार नहीं, केवल ‘शिष्टाचार’ बनकर रह जाए। और पाठक! वो तो निरा नादान है। थमा देंगे उसे झुनझुना एक और किसी इनामी स्कीम के कूपन का। उलझा देंगे उसे किसी ‘आयातित’ सर्वे के मकड़जाल में।
इस सबके पीछे एक कॉमन फियर फैक्टर है। वह यह कि आज जो गलत इसका पकड़ा जा रहा है, कल वही हमारा भी पकड़ा जा सकता है। इसलिए एकता दिखाओ। ये जताओ कि इस हमाम में हम पूरी तरह साथ-साथ हैं। आज हम आपकी पीठ खुजा रहे हैं, ताकि कल को आप हमारी भी इसी तरह सेवा कर सकें। हम आज आप से जुड़े तमाम काले सच से इसलिए आंख मूंद रहे हैं, कि कल को हमारे सच के निर्वस्त्र होने से आप भी नजर फेरने के कर्तव्य बोध से भरे रहें। यहां मुझे सरकार की नीयत पर भी शक होता है। मीडिया की आड़ में एक अकेला यही संस्थान तो नहीं है जो हर तरह के नैतिक अनैतिक तरीके इस्तेमाल करके केवल धन कमाने में जुटा है। अगर इसने गरबे के नाम पर संस्कृति का धंधा शुरू किया तो बाकी भी तो उसी रास्ते पर वैसे ही चल रहे हैं। अगर इसे सरकारी या सस्ती जमीनों से मोह है तो दूसरों के भी हाल अलग नहीं है। आखिर राजस्थान से आए एक मारवाड़ी सेठ ने भी जमीन के चक्कर में ही प्रदेश के कुछ राजनेताओं से पंगा लिया था। तो दूसरे किसी ने सरकार के एक मंत्री को केवल इसलिए ब्लेकमैल किया था क्योंकि उसे खदानें चाहिए थीं। दुनिया भर को नैतिकता सिखाने और नंगों को नंगा करने की होड़ में शामिल ये मीडिया संस्थान तो बच्चों की टाटपट्टी तक में भी घपला कर चुका है। तो वाकई एक सवाल तो उठता ही है कि आखिर आज ये कार्रवाई क्यों और इस अकेले पर क्यों। सरकार को बिना हिचक सबको रगड़ना चाहिए। उसके बाद भी अगर इनमें पत्रकारिता करने का दम बचा रहा तो शायद वास्तव में पत्रकारिता हो पाए। वैसे भी अब जिन्हें पत्रकारिता करना है, उन पत्रकारों के लिए सोशल और डिजिटल मीडिया एक बड़ा प्लेटफार्म बनकर उभरा है। और जो ये तमाम बड़े मीडिया हाउस कहलाते हैं, ये पत्रकारों को एक तरह से अपना बंधक ही बनाए हुए हैं। पत्रकारिता में लाइजनरों को ऊपर उठाने का काम इन्हीं संस्थानों का है। संपादक तो वैसे भी मालिकों का मैनेजर हो गया है, उससे ज्यादा असरदार आजकल मीडिया हाउस में लाइजनर हैं। चाहे वो कोई अखबार हो या फिर समाचार चैनल। इन मीडिया हाउस की दीगर धंधों में सफलता देखकर ही आज चाहे बड़ा बिल्डर हो, खनिज माफिया हो या फिर हो कोई उद्योगपति, उसे भी लगता है कि अखबार छापकर या टीवी चैनल चलाकर वो भी सरकार और कार्यपालिका पर दबाव डाल सकता है। भोपाल में तो लोगों ने इसी सब प्रक्रिया में एक बिल्डर को उभरते और फिर गर्त में जाते देखा-सुना ही है।
अब तो खैर पत्रिकाओं का दौर नहीं रहा है, लेकिन अस्सी के दशक की चर्चित साप्ताहिक पत्रिका में एक रिपोर्ट छपी थी। उसमें मुंबई के एक प्रभावशाली ‘भाई’ का चित्र प्रकाशित किया गया था। वह अपने हमपेशाओं के दो गुटों के बीच समझौता वार्ता कर रहा था। कमरे के एक कोने में गणपति जी की बड़ी प्रतिमा रखी हुई थी। लेकिन वहां मौजूद सभी छोटे-बड़ों के चेहरे के भावों में वह ‘भाई’ ही किसी विघ्नविनाशक के रूप में विराजमान था। यहां भी मैं अपनी कल्पना में ऐसा ही चित्र खींच रहा हूं। एक कमरा, जिसमें कई हमपेशा हैं। वे अपने एक साथ वाले पर आयी आपदा से उसे बचाने के लिए मंत्रणा कर रहे हैं। परस्पर सहमति बना रहे हैं। और उस कमरे में किसी जगह संसार के पहले पत्रकार देवर्षि नारद मुंह छिपाए बैठे हैं। वहां रखी गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रतिमा में कुछ नयी दरारें भी पड़ने लगी हैं।
मैं यह नहीं कहता कि आप किसी के जले पर नमक छिड़कने वाली पत्रकारिता करें। किंतु कम से कम पत्रकारिता का धर्म तो निभा लें। यह अहसास तो करवा दें कि एक डिक्टेटर और मैनेजर के नीचे दबा हुआ ही सही, लेकिन एक पत्रकार का दिल अब भी धड़कता है। पत्रकार तो सब कर ही लेंगे लेकिन अगर आप अखबार निकाल रहे तो कम से कम इसकी एक झलक ही दिखा दीजिए कि गलत काम वाले महासागर में आप बड़ी मछलियों पर भी जाल फेंकने की हिम्मत रखते हैं। अपने कल को बचाने के लिए पत्रकारिता की पवित्र नदी के कलकल प्रवाह को रोक उसे गंदे नाले में तो बदल ही दिया गया है। अब गंदगी से बजबजाते नाले में आप किसी से केवल एक दिन और केवल एक समाचार के लिए कभी एक बार सच्ची पत्रकारिता करने के साहस की अपेक्षा रखेंगे भी तो कैसे?
प्रकाश भटनागर (वरिष्ठ पत्रकार) भोपाल