कोरोना काल बना तकलीफदेह

 

 

वीरेन्द्र सेंगर:

कोरोना काल का लॉकडाउन अभी जारी है। यूं तो इसकी अवधि अगले चार दिनों बाद पूरी होने वाली है लेकिन कोरोना के खतरे को देखते हुए बंदिशें बनी रहेंगी। केंद्र ने राज्य सरकारों पर ही जिम्मेदारी डाल दी है कि वे ही सलाह दें और तय करें। यही कि लॉकडाउन में कहां और कितनी छूट देनी है? जाहिर है इसके बाद राज्यों की, विशेष तौर पर गैर भाजपा सरकार वाले राज्यों की यह शिकायत खत्म हो जाएगी कि बार-बार लॉकडाउन का फैसला केंद्र से थोप दिया जाता है। इसी के साथ इन राज्यों की जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी। कोरोना के प्रकोप का खतरा कहीं से कम नहीं हुआ। मार्च में पीएम ने लॉकडाउन का ऐलान किया था। केवल चार घंटे का समय दिया गया था। वही नोटबंदी के स्टाइल में।

लंबे लॉकडाउन से करीब पंद्रह करोड़ अति गरीब आबादी भुखमरी की स्थिति में पहुंची है। लाखों प्रवासी मजदूर जगह-जगह फंसे हैं। ये अपने गांव लौटना चाहते थे लेकिन इजाजत नहीं मिली। हजारों की संख्या में मजदूर परिवारों के साथ सैकड़ों मील दूर पैदल निकले। कुछ किसी तरह पंहुचने मेंं सफल भी रहे लेकिन कई बीच में ही चल बसे। कोई भूख से तड़पता रहा तो किसी की जान थकावट और प्यास ने ले ली। बारह साल की एक बच्ची पांच सौ किलोमीटर का रास्ता परिवार के साथ चल चुकी थी। बिहार के अपने गांव पहुंचने की मजबूरी थी। उसके मजदूर पिता बेटी को झूठ दिलासा देते रहे कि जल्दी गांव आने वाला है जबकि गांव तो दो सौ किलोमीटर दूर था। आखिर बच्ची के कदम लड़खड़ा गये। वह गिरी तो फिर न खड़ी हो पायी। यह दारुण कथा सोशल मीडिया के जरिये सामने आयी थी। फोटो भी थी। यह जानकर बहुत पीड़ा हुई। ऐसी तमाम खौफनाक दर्द भरी कहानियां लगातार आ रही हैं। कोरोना काल बहुत तकलीफदेह बन चुका है।

ठेठ सच्चाई यह है कि इसी तरह का लॉकडाउन एक पखवाड़ा और चल गया तो कुछ राज्यों में हालात बेकाबू हो सकते हैं। क्योंकि भुखमरी में गरीबों को ज्यादा मजबूर नहीं किया जा सकता। सरकारों ने गरीबों की कुछ मदद की है लेकिन करोड़ों लोग इससे वंचित रहे हैं। ये भी कड़वी सच्चाई है। सरकारी मदद इतनी नहीं है कि पूरा परिवार इतने लंबे तक पेट भर सके। स्थिति विकट है। मोदी जी ने जान बचाने के साथ जहान बचाने की भी बात की थी।उनकी चिंता वाजिब है लेकिन चुनौती यह है कि इसकी शुरूआत कैसे हो? राज्य सरकारें केंद्र से आर्थिक पैकेज की गुहार कर रही हैं। केंद्र पर बकाया देय को देने की भी गुहार है। शुरुआती दौर में 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये की मदद का एलान हुआ था। उम्मीद की जा रही थी कि केंद्र और बड़े पैकेज का ऐलान करेगा। एक महीना हो गया। केंद्र ने चुप्पी साध ली है। जो पैकेज दिया गया है वो जीडीपी के एक प्रतिशत से भी कम का है। जबकि कोरोना महामारी से लड़ने वाले विकसित मुल्क जीडीपी का आठ से दस प्रतिशत का पैकेज दे चुके हैं।

कोरोना जैसी महामारी सदियों में आती है। इसी दौर में तय होता है कि देश की सरकार का चेहरा कितना मानवीय है? ऐसे आफतकाल में भी हमारे यहां सांप्रदायिक राजनीति के हथकंडे आजमाए जा रहे हैं। समाज में धर्म के नाम पर जहर फैलाया गया। पीएम को भी इस खतरे का भान है। इसीलिए उनका बयान आया कि कोरोना रंग, धर्म, भाषा किसी का भेद नहीं करता। सब मिलकर महामारी का मुकाबला करें।

ये एकतरफा मामला नहीं है। दूसरे छोर पर भी कठमुल्ला कम नहीं हैं। कोरोना के मामले में जमातियों की कारगुजारी आपराधिक रही है। गैरवैज्ञानिक सोच को धर्म के ठेकेदार बढ़ाते हैं। इसी सोच के चलते जमातियों ने शर्मनाक लापरवाही की। इससे दूसरे छोर के पाखंडियों को पूरी कौम को बदनाम करने का मौका मिला। हमने साबित कर दिया है कि संकट कितना ही गहरा हो, हम अपनी संकीर्णता की जंजीरों से बाहर नहीं आते। इससे बड़ी और विडंबना क्या हो सकती है?

मुझे लगता है कि मोदीजी के पास ऐतिहासिक मौका है कि वे वाकई में सबका विकास और सबका विश्वास के अपने ही नारे को जमीन पर उतारें। ये हो सकता है। आज तो ये केवल आप ही ये करने की स्थिति में है। इतिहास सत्ता की अवधि से तय नहीं होता। कुछ अलग अच्छा करने से होता है। सत्ता है तो जाएगी भी। जीवन का सत्य यही है। विषयांतर हो रहा है।

अपनी मूल बात पर लौटता हूं। जब लॉकडाउन किया था, तब कोरोना पाजटिव की संख्या करीब पांच सौ थी, लॉकडाउन के बाद अब मरीजों की संख्या 32 हजार के ऊपर चली गयी है। मरने वालों की तादाद एक हजार के ऊपर पहुंच गयी है। जहान बचाना है तो काम-धंधे भी शुरू करने होंगे। कोई नहीं जानता कि इसके परिणाम क्या होंगे? ये घोर संक्रमण काल है। ऐसे में सलाह करके केंद्र ही फैसलों की धुरी मेंं रहे। राज्य अपने बल पर सारी जिम्मेदारी संभालने की स्थिति में नहीं हैं। कहीं खींचतान में लॉकडाउन की तमाम तपस्या भंग न हो जाए! इसपर भी सावधान रहने का समय है। यह सही है कि यूरोप और अमेरिका के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत बेहतर है। लेकिन यह समय खुद की पीठ ठोंकने का नहीं है।

इस समय जरूरत है कि सावधानी के साथ लॉकडाउन में छूट की व्यवस्था हो। लेकिन ध्यान रहे कि गरीब की रोटी का इंतजाम राज को करना ही होगा।इसकी और अनदेखी दुखद नतीजे ही देगी? पीर पर्वत-सी हुई कोई राह तो निकलनी ही चाहिए! केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इजाजत दे दी है कि राज्य अपने प्रवासी मजदूरों को बसों से ला सकते हैं। यह मुश्किल काम है। यह तो पहले ही हो जाना चाहिए था। चलिए देर से ही अच्छी पहल हुई लेकिन गांव में इनके खाने का मुफ्त इंतजाम करना होगा। इन्हें नये सिरे से रोजगार दिलाना आगे की महा चुनौती होगी। ये कोरोना काल देश और सरकार की तमाम अग्नि परीक्षाएंं एक साथ लेने आ धमका है क्या!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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