नया इंडिया/भोपाल:
इस जगत में किसी की भी सत्ता स्थाई नही है। सब गतिशील है। आज जो है कल नही रहेगा। राजपाट, पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत, शौहरत आदि इत्यादि कल किसी के पास थे आज कोई दूसरा सिंहासन पर है तो कल कोई अन्य इन सब का भोग कर रहा होगा। थोड़ा धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक लग सकता है। अंतिम सत्य यही है। अब इन सब बातों को सूबे की सत्तानशी पार्टी की सियासत से जोड़ कर देखिए। खासतौर से पिछले पखवाड़े जो कुछ भाजपा के रंगमंच पर घटित हुआ वह पार्टी के वफादार नेता-कार्यकर्ताओं के लिए सदमें में डालने वाला था। कई नेता मुख्यमंत्री बनने की इतनी जल्दी में दिखे कि उनके चाल, चरित्र और चेहरे सब निर्वस्त्र हो गए। हैरान करने वाली बात यह है कि चीर हरण के प्रसंग की कमान दुर्योधन, दुशासन के हाथ में नही बल्कि सूबे के धृतराष्ट्रों और संगठन के पितामहों के हाथ में थी।
भाजपा में हफ्ते दस दिन चले कमरा बंद बैठकों के निर्लज्ज दौर से बुध्दि से मंद नेत्रों से हीन प्रभारियों की टीम भी न तो इसे देख पाई और न ही समझ सकी। हालत यह कि पार्टी को हर घण्टे के हिसाब से नुकसान हो रहा है। मुख्यमंत्री बदलने के षड्यंत्रों को लेकर जब तक खण्डन आए तब तक यह मैसेज चला गया कि राजनीति में कुलीनों की इस पार्टी के कुनबे में कलह अब चरम की तरफ है। पार्टी के साथ यह गुनाह करने वालों में सरकार की रसमलाई खाने वाले कुछेक मंत्रियों के साथ संगठन के मास्टर, हेड मास्टर और इंचार्ज भी शरीक हैं। ऐसा भाजपा में पहली दफा हो रहा है। मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष समय समय पर मजबूत और कमजोर रहे हैं। उन्हें समय की मांग के हिसाब से बदला भी जाता रहा है। लेकिन शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं की इस प्रहसन में मौन सहमति और सुनियोजित अनदेखी आने वाले दिनों में भाजपा के लिए बिल्लियों के रोने जैसे अपशकुन और कौवों के कांव – कांव करने जैसा है।
“महाराज” ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजी के कांग्रेस की महज 15 माह चली कमलनाथ सरकार विदा हुई और भाजपा फिर सत्तारूढ़ हुई। तब भाजपा ने फिर शिवराज सिंह चौहान पर दांव लगाया और उन्हें चौथी दफा मुख्यमंत्री का ताज पहनाया। इस दौरान भोपाल से दिल्ली तक सीएम पद के दावेदारों ने सरकार का मुखिया बनने के लिए साम, दाम, दंड – भेद की चाणक्य नीति अपनाई लेकिन सत्ता की वरमाला शिवराज को हो पहनाई गई। जाहिर है शेष निराश दावेदार भारी अवसाद में डूब गए। यह स्वभाविक भी है। राजनीति में हरेक खासतौर से विधायक व मंत्रियों का सपना मुख्यमंत्री बनने का होता है। शिवराज सिंह चौहान के चौथी बार सीएम बनने से कई दावेदारों का तो केरियर ही खत्म हो गया। ऐसे नेताओं के प्रति चर्चा में सीएम चौहान भी उनके दर्द को समझ सहानुभूति जताते हैं।
मुख्यमंत्री बनने के मामले में लोकप्रियता, स्वीकार्यता, पार्टी के प्रति वफादारी, चाल, चरित्र और चेहरे के साथ एक जिताऊ नेता की छवि होना जरूरी है। इस सबसे भी ज्यादा नेता के भाग्य में सीएम बनना भी होना महत्वपूर्ण हैं। तमाम काबिलियत होने के बाद भी कई नेता सीएम की कुर्सी पाते पाते रह गए। आपसी बातचीत में शिवराजसिंह चौहान के विरोधी खासतौर से कांग्रेसी नेता कहते हैं कि हम भाजपा से तो लड़ सकते हैं मगर शिवराज सिंह के भाग्य से कैसे लड़ें। पिछले दिनों दिल्ली से लेकर भोपाल तक भाजपा ऑफिस से लेकर मंत्रियों के बंगलों में प्रदेश अध्यक्ष, संगठन महामंत्री , सह संगठन मंत्री, सरकार में मंत्री और राष्ट्रीय पदाधिकारियों के साथ बंद कमरे की बैठकों को लेकर सोशल मीडिया और मैनेज मीडिया में जो खबरें आई और लाई गईं उसने साबित किया कि सब के सब सत्ता के खेल में अपरिपक्व हैं। खिलोनो को पाने के लिए बच्चों जैसी जिद कर खुद ही खेल को खराब कर गए। अनाड़ी का खेलना और खेल का सत्यानाश वाली बात चरितार्थ हुई। प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा, संगठन महामंत्री सुहास भगत, हितानन्द शर्मा और उनकी टीम को अब फिर नए सिरे से संगठन की प्रतिष्ठा बनाने और सत्ता के साथ समन्वय का संदेश देने के प्रयास करने होंगे।
संगठन ज्यादा डेमेज हुआ…
मप्र में मुखिया बदलने के जो भी संकेत प्रदेश या दिल्ली के नेताओं ने दिए थे वे औंधे मुंह गिरे हैं। जब मैनेज मीडिया के जरिए बदलाव की आहट धमक में बदली जा रही थी तब दिल्ली से आकर मंजे खिलाड़ी की तरह मुख्यमंत्री भोपाल से दो सौ किलोमीटर दूर पहाड़ों की रानी पंचमढ़ी को वादियों में वक्त बिता रहे थे। उनकी बेफिक्री और खामोशी ने साफ सन्देश दिया कि बदलाव की बातें बकवास हैं। बाद में कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्रा और विदेश से सीधे भोपाल आए सिंधिया ने भी कहा कि प्रदेश सरकार शिवराज सिंह के नेतृत्व में चलेगी। लेकिन परिवर्तन की हवा चलने के बाद भी प्रदेश नेतृत्व की चुप्पी ने संगठन को भी झुलसा दिया है।
संगठन की भद्द पिट गई…
मप्र जैसे श्रेष्ठ भाजपा संगठन को लगता लंबें समय से किसी की बुरी नजर लग गई है। कभी अध्यक्ष कार्यकाल पूरा नही कर पाते तो कभी निर्वाचित अध्यक्ष को हटा दिया जाता है। फिर जो भी काबिल- नाकाबिल अध्यक्ष बनते हैं उन्हें चार चम्पू किस्म के नेता, चापलूस अफसर और पालतू मीडिया वाले पहले दिन से ही मुख्यमंत्री बनाने में जुट जाते हैं। एक साल बीतते बीतते अध्यक्ष जी सीएम बनने के सपने देखने लगते हैं। इसके बाद मुख्यमंत्री से टकराव शुरू हो जाता है। इस काम यदि संगठन महामंत्री परिपक्व हों तो टकराव रुक राटा और अप्रिय हालात काबू में आ जाते हैं। यहां कांग्रेस नेता दिग्विजयसिंह की बात का उल्लेख करना आवश्यक लगता है ” वे जब मुख्यमंत्री बने थे तब कहा करते थे कि टिकट मेहनत से और मंत्री जुगाड़ से बन सकते हैं लेकिन सीएम और पीएम बनने के लिए भाग्य में होना जरूरी है। जब तक किस्मत में सीएम रहेंगे जिस दिन भाग्य में नही होगा सब के कहने के बाद भी पद छोड़ना पड़ेगा। ” यह बात जो जितने जल्दी समझ जाएगा वह मारामारी नही करेगा।