कुछ तो बात है संघ के इस राष्ट्रवाद में…..

कुछ तो बात है संघ के इस राष्ट्रवाद में…..

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प्रकाश भटनागर:

इस बार का दशहरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए कई मायने में एक विशेष अवसर बन गया। संघ की स्थापना के सौ साल में उसका राजनीतिक कद वाकई संघ के करोड़ों स्वयं सेवकों के लिए गौरव का कारण हो सकता है। कभी संघ और भाजपा आपस में अपने रिश्तों को खुलकर स्वीकार नहीं करते थे। यह बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है। लेकिन पिछले एक दशक में सब बदल गया है। यह भारत की राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन है, जब देश का प्रधानमंत्री संघ के मुखिया के जन्मदिन पर देश भर के अखबारों में उन पर प्रमुखता से आलेख लिखें। संघ की स्थापना के सौ साल पूरे होने पर भी अखबारों में प्रधानमंत्री का संघ को समर्पित आलेख प्रमुखता से प्रकाशित हो। और सबसे बड़ी बात, संघ की स्थापना के सौ सालों पर भारत सरकार एक सौ रूपए का सिक्का भी जारी करें।

 

जिस संगठन को देश की राजनीति में कभी सरकारों से लेकर राजनीतिक दलों से अछूत से व्यवहार का सामना करना पड़ा हो। जिसकी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़ी विचारधारा तत्कालीन सरकारों के गढ़े नेरेटिव से बिल्कुल विपरीत हो। जो संगठन कभी सरकारों पर आश्रित न रहकर समाज में सर्वस्वीकार हुआ हो। वाकई आज उसकी धाक है। जाहिर है, यहां तक आने में संघ को, उसके समर्पित कार्यकर्ताओं को कड़ा संघर्ष करना ही पड़ा है। यह विजयादशमी बुराई पर अच्छाई की विजय के सशक्त उदाहरण के चलते वाकई विशेष बन गई है। इस पर्व पर तिथि के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर गया। यह उपलब्धि संघ, उसकी विचारधारा और उसके स्वयंसेवकों के देश की जमीन से जुड़े होने की समझ को प्रदर्शित करती है।

 

वह संगठन जो सार्थक अनुशासन के सकारात्मक अणुओं का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है। जो राष्ट्रवाद की सफल परिभाषा के निनाद का केंद्र है। जहां सबसे नीचे से लेकर शीर्ष तक के बीच कोई भेद नहीं है। केवल एक अभेद्य वह श्रृंखला है, जिसकी एक-एक कड़ी पारस्परिक विश्वास, समर्पण और सामूहिक संकल्पों की अकल्पनीय जयमाला है। संघ वो है, जिसे उसे उसके अब तक के सौ वर्ष में आंकड़ों के हिसाब से अनगिनत अग्नि परीक्षाओं में धकेला गया। फिर भी हुआ ये कि जिस संगठन को ऊपरी दृष्टि से देखकर उसके लिए प्रायोजित सतही अनुमान लगाए गए, ऐसा करने वाले स्वयं ही आज संघ की जड़ में जाकर यह देखने को विवश हो गए हैं कि आखिर इसकी गहराई कितनी और कैसी है? विशेष बात यह कि ऐसा वैचारिक शीर्षासन करने को मजबूर लोगों में संघ के घनघोर विरोधियों की ही सबसे अधिक संख्या है।

 

संघ की सबसे बड़ी बात यह कि उसने अपने आलोचकों के लिए ‘निंदक नियरे राखिए’ वाले भाव को कभी भी तिरोहित नहीं होने दिया। यह संगठन निष्काम भाव से आगे चला और शेष से वो आज कितना आगे जा चुका है, इसकी अलग से व्याख्या बहुत लंबी हो जाएगी। आदर्श स्वरूप पाने के बेहद आसान दिखने वाले सूत्र का एक वाक्य होता है कि अपने संकल्प से न डिगो। लेकिन कोई बहुत बड़ा समूह तो दूर, एक आम इंसान तक के लिए इस मामले में खरा उतरना संभव नहीं दिखता है। ये बहुत कठिन साधना का विषय है।

 

संघ के लोग स्वतंत्र भारत की कांग्रेस वाली पहली सरकार में शामिल हुए। ये पौराणिक काल वाले समुद्र मंथन जैसा वह समय था, जब अमृत की तो बंदरबांट कर ली गई, लेकिन राष्ट्र के समक्ष गंभीर चुनौतियों वाले विष के सामने आते ही संघ ने उसे अपने कंठ में उतार लिया। संघ इस विषपान के लिए लंबे समय विवश रहा। उसने स्वयं पर प्रतिबंध का शांति एवं संयम के साथ सामना किया। तमाम झूठे आक्षेप सहे, लेकिन सही के मार्ग से खुद को तनिक भी विचलित होने नहीं दिया। संघ के विरोधियों के लिए यह समझने का सही समय है कि संघ की सुगंध अब बहुत बड़ा आकार ले चुकी है।

 

संघ की इस ताकत को अमली जामा पहनाने का काम उसके राजनीतिक अनुषांगिक संगठन ने भी बखूबी किया है। जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी वाली राजनीतिक यात्रा यदि आज वैश्विक गौरव वाला स्वरुप ले चुकी है, तो इसके पीछे संघ का रणनीतिक कौशल और धैर्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। आप देखिए कि लोकसभा में 99 सीट पाने के बाद भी कांग्रेस किस तरह छटपटा रही है। उसे आगे जाने का कोई मार्ग नहीं दिख रहा है। लेकिन ये संघ का संस्कार ही है कि किसी समय लोकसभा में मात्र दो सीटों से संतोष करने वाली भाजपा आज लगातार केन्द्र सरकार में तीसरे कार्यकाल के लिए मौजूद है। दो बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल करने का करिश्मा भी उसने लगातार दौहराया। यदि संघ का सामाजिक समरसता वाला भाव राष्ट्र को एकजुट रखने का बहुत बड़ा माध्यम बना है, तो इसी से मिलते-जुलते मार्ग पर चलते हुए भाजपा ने 2024 से पहले वाले दो आम चुनाव में स्वयं को बहुमत मिलने के बाद भी एनडीए के सहयोगी दलों के लिए अपने समरसता वाले भाव में किंचित भी कमी आने नहीं दी। ये संघ की पाठशाला के सबक का प्रभाव ही कहा जाएगा। इसलिए इस तीसरे कार्यकाल में कुछ सीटें कम रह जाने के बाद भी नरेन्द्र मोदी, लगभग वैसे ही अंदाज में सरकार चला रहे हंै, जैसा वे पिछली दो सरकारों में करते रहे थे।

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